Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 80

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 80/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - चन्द्रमाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त

    ये त्रयः॑ कालका॒ञ्जा दि॒वि दे॒वा इ॑व श्रि॒ताः। तान्सर्वा॑नह्व ऊ॒तये॒ऽस्मा अ॑रि॒ष्टता॑तये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । त्रय॑: । का॒ल॒का॒ञ्जा: । दि॒वि । दे॒वा:ऽइ॑व । श्रि॒ता: । तान् । सर्वा॑न् । अ॒ह्वे॒ । ऊ॒तये॑ । अ॒स्मै । अ॒रि॒ष्टऽता॑तये ॥८०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये त्रयः कालकाञ्जा दिवि देवा इव श्रिताः। तान्सर्वानह्व ऊतयेऽस्मा अरिष्टतातये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । त्रय: । कालकाञ्जा: । दिवि । देवा:ऽइव । श्रिता: । तान् । सर्वान् । अह्वे । ऊतये । अस्मै । अरिष्टऽतातये ॥८०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 80; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (ये) जो (कारकाञ्जाः) काल अर्थात् सब की संख्या करनेवाले परमेश्वर के प्रकाश (दिवि) आकाश में (श्रिताः) आश्रित (त्रयः) तीन (देवाः इव) देवताओं [अग्नि, वायु और सूर्य−निरु० ७।५] के समान वर्तमान हैं, (तान्) उस (सर्वान्) सब [परमेश्वर के प्रकाशों] को (अस्मै) इस [जीव] के हित के लिये (ऊतये) रक्षा करने और (अरिष्टतातये) क्षेम करने को (अह्वे) मैंने बुलाया है ॥२॥

    भावार्थ - मनुष्य स्वयंप्रकाशस्वरूप परमात्मा की महिमायें सर्वत्र साक्षात् करके अपनी रक्षा करें ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top