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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 97

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 97/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - देवाः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    इ॒मं वी॒रमनु॑ हर्षध्वमु॒ग्रमिन्द्रं॑ सखायो॒ अनु॒ सं र॑भध्वम्। ग्रा॑म॒जितं॑ गो॒जितं॒ वज्र॑बाहुं॒ जय॑न्त॒मज्म॑ प्रमृ॒णन्त॒मोज॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । वी॒रम् । अनु॑ । ह॒र्ष॒ध्व॒म् । उ॒ग्रम् । इन्द्र॑म् । स॒खा॒य॒: । अनु॑ । सम् । र॒भ॒ध्व॒म् । ग्रा॒म॒ऽजित॑म् । गो॒ऽजित॑म् । वज्र॑ऽबाहुम् । जय॑न्तम्। अज्म॑ । प्र॒ऽमृ॒णन्त॑म् । ओज॑सा ॥९७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं वीरमनु हर्षध्वमुग्रमिन्द्रं सखायो अनु सं रभध्वम्। ग्रामजितं गोजितं वज्रबाहुं जयन्तमज्म प्रमृणन्तमोजसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । वीरम् । अनु । हर्षध्वम् । उग्रम् । इन्द्रम् । सखाय: । अनु । सम् । रभध्वम् । ग्रामऽजितम् । गोऽजितम् । वज्रऽबाहुम् । जयन्तम्। अज्म । प्रऽमृणन्तम् । ओजसा ॥९७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 97; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (सखायः) हे परस्पर सहायक मित्रो ! (इमम्) इस (वीरम् अनु) वीर सेनापति के साथ (हर्षध्वम्) हर्ष करो, (ओजसा) अपने शरीर, बुद्धि और सेना बल से (ग्रामजितम्) शत्रुओं के समूह को जीतनेवाले, (गोजितम्) उनकी भूमि को जीतनेवाले (वज्रबाहुम्) अपनी भुजाओं में शस्त्र रखनेवाले, (अज्म) संग्राम को (जयन्तम्) विजय करनेवाले (प्रमृणन्तम्) वैरियों को मार डालनेवाले (उग्रम्) तेजस्वीः, (इन्द्रम् अनु) महा प्रतापी सेनाध्यक्ष के साथ होकर (सम्) अच्छे प्रकार (रभध्वम्) युद्ध आरम्भ करो ॥३॥

    भावार्थ - सेनापति और सैनिक लोग परस्पर सहायक होकर शत्रुओं का राज्य आदि पाकर प्रजापालन करके सदा सुखी रहें ॥३॥ यह मन्त्र ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, राजप्रजाधर्म विषय में पृष्ठ २२४ पर व्याख्यात है, और कुछ भेद से यजुर्वेद में है−अ० १७ म० ३८ ॥

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