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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 97/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - देवाः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    52

    इ॒मं वी॒रमनु॑ हर्षध्वमु॒ग्रमिन्द्रं॑ सखायो॒ अनु॒ सं र॑भध्वम्। ग्रा॑म॒जितं॑ गो॒जितं॒ वज्र॑बाहुं॒ जय॑न्त॒मज्म॑ प्रमृ॒णन्त॒मोज॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । वी॒रम् । अनु॑ । ह॒र्ष॒ध्व॒म् । उ॒ग्रम् । इन्द्र॑म् । स॒खा॒य॒: । अनु॑ । सम् । र॒भ॒ध्व॒म् । ग्रा॒म॒ऽजित॑म् । गो॒ऽजित॑म् । वज्र॑ऽबाहुम् । जय॑न्तम्। अज्म॑ । प्र॒ऽमृ॒णन्त॑म् । ओज॑सा ॥९७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं वीरमनु हर्षध्वमुग्रमिन्द्रं सखायो अनु सं रभध्वम्। ग्रामजितं गोजितं वज्रबाहुं जयन्तमज्म प्रमृणन्तमोजसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । वीरम् । अनु । हर्षध्वम् । उग्रम् । इन्द्रम् । सखाय: । अनु । सम् । रभध्वम् । ग्रामऽजितम् । गोऽजितम् । वज्रऽबाहुम् । जयन्तम्। अज्म । प्रऽमृणन्तम् । ओजसा ॥९७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 97; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आत्मा की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (सखायः) हे परस्पर सहायक मित्रो ! (इमम्) इस (वीरम् अनु) वीर सेनापति के साथ (हर्षध्वम्) हर्ष करो, (ओजसा) अपने शरीर, बुद्धि और सेना बल से (ग्रामजितम्) शत्रुओं के समूह को जीतनेवाले, (गोजितम्) उनकी भूमि को जीतनेवाले (वज्रबाहुम्) अपनी भुजाओं में शस्त्र रखनेवाले, (अज्म) संग्राम को (जयन्तम्) विजय करनेवाले (प्रमृणन्तम्) वैरियों को मार डालनेवाले (उग्रम्) तेजस्वीः, (इन्द्रम् अनु) महा प्रतापी सेनाध्यक्ष के साथ होकर (सम्) अच्छे प्रकार (रभध्वम्) युद्ध आरम्भ करो ॥३॥

    भावार्थ

    सेनापति और सैनिक लोग परस्पर सहायक होकर शत्रुओं का राज्य आदि पाकर प्रजापालन करके सदा सुखी रहें ॥३॥ यह मन्त्र ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, राजप्रजाधर्म विषय में पृष्ठ २२४ पर व्याख्यात है, और कुछ भेद से यजुर्वेद में है−अ० १७ म० ३८ ॥

    टिप्पणी

    ३−(इमम्) (वीरम्) शूरसेनापतिम् (अनु) अनुसृत्य (हर्षध्वम्) हर्षं प्राप्नुत (उग्रम्) तेजस्विनम् (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं सेनाध्यक्षम् (अनु) अनुगत्य (सम्) सम्यक् (रभध्वम्) युद्धारम्भं कुरुत (ग्रामजितम्) जि−क्विप्। शत्रुसमूहजेतारम् (गोजितम्) शत्रुभूमिविजयिनम् (वज्रबाहुम्) वज्राः शस्त्राणि बाह्वोर्यस्य तं (जयन्तम्) तॄभृवहिवसि०। उ० ३।१२८। जि जये−झच्। विजयिनम् (अज्म) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। अज गतिक्षेपणयोः मनिन्। संग्रामम्−निघ० २।१७। (प्रमृणन्तम्) प्रकर्षेण शत्रुं मारयन्तम् (ओजसा) स्वस्य शरीरबुद्धिसेनाबलेन ॥

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    विषय

    ग्रामजितं गोजितम्

    पदार्थ

    १. (इमम्) = इस (वीरम्) = वीर्यवान् राजा को (अनुहर्षध्वम्) = अनुसृत करते हुए हे सैनिको! वीररस से इष्ट होओ। (उग्रम्) = उद्गूर्ण बलवाले, (इन्द्रम्) = परमैश्वर्ययुक्त इस राजा को (सखाय) = हे समान ज्ञानवाले सैनिको! (अनुसंरभध्वम्) = अनुसृत करके योद्युक्त होओ। २. इस राजा का अनुसरण करो जोकि (ग्रामजितम्) = ग्रामों का विजय करनेवाला है, (गोजितम्) = गौओं का जय करनेवाला है, (वज्रबाहुम्) = उद्यत आयुधवाला है और इसी लिए (जयन्तम्) = शत्रुओं को पराजित करता है, अज्म क्षेपणशील शत्रुबल को (ओजसा) = बल से (प्रमृणन्तम्) = प्रकर्षेण हिसित कर रहा है।

    भावार्थ

    वीर राजा के अनुकूल सैनिक भी हर्ष का अनुभव करते हैं और शत्रुओं को पराजित करनेवाले होते हैं।

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    भाषार्थ

    (इमम्) इस (वीरम्) वीर, (उग्रम्) उग्र, (ग्रामजितम्) ग्राम-ग्राम कर के जीतते हुए, (गोजितम्) शत्रु की पृथिवी को जीत लेने वाले, (वज्रबाहुम्) वज्रसमान कठोर बाहुओं वाले, (अज्म) संग्राम को (जयन्तम्) जीतते हुए, और (ओजसा) बल द्वारा (प्रमृणन्तम्) शत्रु सैनिकों को मारते हुए (इन्द्रम्) सम्राट के (अनु) अनुकूल होकर (हर्षध्वम्) प्रसन्न होओ, और (सखायः) मित्रभूत सैनिकों ! (अनु) इसके अनुसार (संरभध्वम्) मिलकर युद्धारम्भ करो।

    टिप्पणी

    [अज्म संग्रामनाम (निघं० २‌।१७)। गोजितम् = गौः पुथिवीनाम (निघं० १।१), तथा गोपशु। इन्द्रम् =सभ्राजम्, यद्वा इन्द्रः संग्रामाधिदेवता (सायण)]।

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    विषय

    विजय प्राप्ति का उपाय।

    भावार्थ

    हे (सखायः) मित्र लोगो ! आप लोग (उग्रम्) उग्रस्वभाव, नित्य दण्ड देनेवाले, बलवान् (वीरम्) वीर्यवान् (ग्राम-जितम्) ग्राम को जीतने वाले (गोजितम्) इन्द्रिय को वश में करने वाले (वज्रबाहुम्) वज्र = खड्ग को बाहु में धारण करने वाले और (ओजसा) अपने बल से ही (अज्म) शत्रु के बल को (प्रमृणन्तम्) विध्वंस करने वाले और (जयन्तम्) विजय प्राप्त करने वाले (इन्द्रम्) ऐश्वर्यशाली राजा को मुख्य मान कर (अनु सं रभध्वम्) उसकी अनुमति के अनुकूल सब कार्य करो। अध्यात्म में सखायः = इन्द्रियगण, इन्द्र = आत्मा, ग्राम=मानस दोषगण, गौ = इन्द्रिय, वज्र = ज्ञान, अज्म = काम-विकार।

    टिप्पणी

    ऋ० १०। १०३। ६ अथर्व० १९। १३। ६ यजु० १८।३२॥ (तृ०) ‘गोत्रभिदं गोविंदं’ इति ऋ०। पूर्वोक्तरयोरर्धयोर्विपर्ययः। (प्र०) ‘इमं सजाता अनुवीरयध्वम्’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मित्रावरुणौ देवते। १ त्रिष्टुप्, २ जगती, ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory Over Enemies

    Meaning

    O friends and comrades of the human nation, rejoice and rise and, with love, loyalty and judgement, cooperate with this Indra, mighty world leader, winner and promoter of human habitations, lands, cows and culture, strong of thunder arms, victor of battles and destroyer of adversity and adversaries by the light and force of his lustre and splendour.

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    Subject

    Devah

    Translation

    Raise a shout of joy, O friends, following this mighty hero. Mobilize yourselves behind this resplendent one, the conqueror of villages, the conqueror of cows, Wielder of the adamantine weapon, victorious and the destroyer of enemy’s force by his vehemence.

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    Translation

    O friends! adhere to the command of and be glad in this King who is brave, powerful, who has control upon his body, who has control upon his limbs, who possesses strong arms, who overpowers the strength of enemies and who destroys it with his vigor.

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    Translation

    O friendly countrymen, encourage the Commander of the army, and begin the battle in obedience to the orders of him, who conquers the enemies villages, usurps their land, is armed with weapons, subdues the enemy in the battle, and conquers him with his might.

    Footnote

    See Yajur, 17-38, and Rigveda, Adi Bhashya Bhumika, where this verse has been translated by Swami Dayanand on page 224, in the chapter on the king and his subjects.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(इमम्) (वीरम्) शूरसेनापतिम् (अनु) अनुसृत्य (हर्षध्वम्) हर्षं प्राप्नुत (उग्रम्) तेजस्विनम् (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं सेनाध्यक्षम् (अनु) अनुगत्य (सम्) सम्यक् (रभध्वम्) युद्धारम्भं कुरुत (ग्रामजितम्) जि−क्विप्। शत्रुसमूहजेतारम् (गोजितम्) शत्रुभूमिविजयिनम् (वज्रबाहुम्) वज्राः शस्त्राणि बाह्वोर्यस्य तं (जयन्तम्) तॄभृवहिवसि०। उ० ३।१२८। जि जये−झच्। विजयिनम् (अज्म) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। अज गतिक्षेपणयोः मनिन्। संग्रामम्−निघ० २।१७। (प्रमृणन्तम्) प्रकर्षेण शत्रुं मारयन्तम् (ओजसा) स्वस्य शरीरबुद्धिसेनाबलेन ॥

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