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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 115

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 115/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वाङ्गिराः देवता - सविता, जातवेदाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापलक्षणनाशन सूक्त

    या मा॑ ल॒क्ष्मीः प॑तया॒लूरजु॑ष्टाभिच॒स्कन्द॒ वन्द॑नेव वृ॒क्षम्। अ॒न्यत्रा॒स्मत्स॑वित॒स्तामि॒तो धा॒ हिर॑ण्यहस्तो॒ वसु॑ नो॒ ररा॑णः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । मा॒ । ल॒क्ष्मी: । प॒त॒या॒लू: । अजु॑ष्टा: । अ॒भि॒ऽच॒स्कन्द॑ । वन्द॑नाऽइव । वृ॒क्षम् । अ॒न्यत्र॑ । अ॒स्मत् । स॒वि॒त॒: । ताम् । इ॒त: । धा॒: । हिर॑ण्यऽहस्त: । वसु॑ । न॒: । ररा॑ण: ॥१२०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या मा लक्ष्मीः पतयालूरजुष्टाभिचस्कन्द वन्दनेव वृक्षम्। अन्यत्रास्मत्सवितस्तामितो धा हिरण्यहस्तो वसु नो रराणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या । मा । लक्ष्मी: । पतयालू: । अजुष्टा: । अभिऽचस्कन्द । वन्दनाऽइव । वृक्षम् । अन्यत्र । अस्मत् । सवित: । ताम् । इत: । धा: । हिरण्यऽहस्त: । वसु । न: । रराण: ॥१२०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 115; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (या) जो (पतयालूः) गिरानेवाला (अजुष्टा) अप्रिय (लक्ष्मीः) लक्षण (मा) मुझ पर (अभिचस्कन्द) आ चढ़ा है, (इव) जैसे (वन्दना) बेल (वृक्षम्) वृक्ष पर। (सवितः) हे ऐश्वर्यवान् [परमेश्वर !] (हिरण्यहस्तः) तेज वा सुवर्ण हाथ में रखनेवाला, (नः) हमें (वसु) धन (रराणः) देता हुआ तू (इतः) यहाँ से, (अस्मत्) हमसे (अन्यत्र) दूसरे [दुष्टों में] (ताम्) उसको (धाः) धर ॥२॥

    भावार्थ - मनुष्य परमात्मा के अनुग्रह से अधर्मरूप दुर्लक्षणों और दुष्टों से बचकर शुभ गुण प्राप्त करें ॥२॥

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