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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 14/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - सविता छन्दः - जगती सूक्तम् - सविता सूक्त

    दमू॑ना दे॒वः स॑वि॒ता वरे॑ण्यो॒ दध॒द्रत्नं॑ पि॒तृभ्य॒ आयूं॑षि। पिबा॒त्सोमं॑ म॒मद॑देनमि॒ष्टे परि॑ज्मा चित्क्रमते अस्य॒ धर्म॑णि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दमू॑ना: । दे॒व: । स॒वि॒ता । वरे॑ण्य: । दध॑त् । रत्न॑म् । दक्ष॑म् । पि॒तृऽभ्य॑: । आयूं॑षि । पिबा॑त् । सोम॑म् । म॒मद॑त् । ए॒न॒म् । इ॒ष्टे । परि॑ऽज्मा । चि॒त् । क्र॒म॒ते॒ । अ॒स्य॒ । धर्म॑णि ॥१५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दमूना देवः सविता वरेण्यो दधद्रत्नं पितृभ्य आयूंषि। पिबात्सोमं ममददेनमिष्टे परिज्मा चित्क्रमते अस्य धर्मणि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दमूना: । देव: । सविता । वरेण्य: । दधत् । रत्नम् । दक्षम् । पितृऽभ्य: । आयूंषि । पिबात् । सोमम् । ममदत् । एनम् । इष्टे । परिऽज्मा । चित् । क्रमते । अस्य । धर्मणि ॥१५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 14; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (दमूनाः) दमनशील शान्तस्वभाव, (देवः) व्यवहारकुशल, (वरेण्यः) स्वीकार योग्य (सविता) चलानेवाला पुरुष (पितृभ्यः) पालन करनेवाले विद्वानों के हित के लिये (रत्नम्) रमणीय धन, (दक्षम्) बल और (आयूंषि) जीवनसाधनों को (दधत्) धारण करता हुआ (सोमम्) अमृत का (पिबात्) पान करे, और (एनम्) इस [परमेश्वर] को (इष्टे) यज्ञ में (ममदत्) प्रसन्न करे, (परिज्मा) सब ओर चलनेवाला पुरुष (चित्) ही (अस्य) इस [परमेश्वर] के (धर्म्मणि) धर्म अर्थात् नियम में (क्रमते) चला जाता है ॥४॥

    भावार्थ - जो मनुष्य विद्वानों की सेवा करते हैं, और सर्वत्रगति होते हैं, वे ही आनन्दरस पीते हुए ईश्वर की आज्ञा का पालन करके आनन्द भोगते हैं ॥४॥

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