अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 4
दमू॑ना दे॒वः स॑वि॒ता वरे॑ण्यो॒ दध॒द्रत्नं॑ पि॒तृभ्य॒ आयूं॑षि। पिबा॒त्सोमं॑ म॒मद॑देनमि॒ष्टे परि॑ज्मा चित्क्रमते अस्य॒ धर्म॑णि ॥
स्वर सहित पद पाठदमू॑ना: । दे॒व: । स॒वि॒ता । वरे॑ण्य: । दध॑त् । रत्न॑म् । दक्ष॑म् । पि॒तृऽभ्य॑: । आयूं॑षि । पिबा॑त् । सोम॑म् । म॒मद॑त् । ए॒न॒म् । इ॒ष्टे । परि॑ऽज्मा । चि॒त् । क्र॒म॒ते॒ । अ॒स्य॒ । धर्म॑णि ॥१५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
दमूना देवः सविता वरेण्यो दधद्रत्नं पितृभ्य आयूंषि। पिबात्सोमं ममददेनमिष्टे परिज्मा चित्क्रमते अस्य धर्मणि ॥
स्वर रहित पद पाठदमूना: । देव: । सविता । वरेण्य: । दधत् । रत्नम् । दक्षम् । पितृऽभ्य: । आयूंषि । पिबात् । सोमम् । ममदत् । एनम् । इष्टे । परिऽज्मा । चित् । क्रमते । अस्य । धर्मणि ॥१५.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ईश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(दमूनाः) दमनशील शान्तस्वभाव, (देवः) व्यवहारकुशल, (वरेण्यः) स्वीकार योग्य (सविता) चलानेवाला पुरुष (पितृभ्यः) पालन करनेवाले विद्वानों के हित के लिये (रत्नम्) रमणीय धन, (दक्षम्) बल और (आयूंषि) जीवनसाधनों को (दधत्) धारण करता हुआ (सोमम्) अमृत का (पिबात्) पान करे, और (एनम्) इस [परमेश्वर] को (इष्टे) यज्ञ में (ममदत्) प्रसन्न करे, (परिज्मा) सब ओर चलनेवाला पुरुष (चित्) ही (अस्य) इस [परमेश्वर] के (धर्म्मणि) धर्म अर्थात् नियम में (क्रमते) चला जाता है ॥४॥
भावार्थ
जो मनुष्य विद्वानों की सेवा करते हैं, और सर्वत्रगति होते हैं, वे ही आनन्दरस पीते हुए ईश्वर की आज्ञा का पालन करके आनन्द भोगते हैं ॥४॥
टिप्पणी
४−(दमूनाः) दमेरुनसि। उ० ४।२३५। दमु उपशमे-उनसि, वा दीर्घः। दमिता। शान्तस्वभावः। दमूना दममना वा दानमना वा दान्तमना वा। अथवा दम इति गृहनाम तन्मनाः स्यान्मनो मनोतेः-निरु० ४।४। (देवः) व्यवहारकुशलः (सविता) नायकः पुरुषः (वरेण्यः) वृञ एण्यः। उ० ३।९८। वृञ् वरणे-एण्य। स्वीकरणीयः (दधत्) धारयन् (रत्नम्) रमणीयं धनम् (दक्षम्) बलम् (पितृभ्यः) पालकानां विदुषां हिताय (पिबात्) लेटि रूपम्। पिबेत् (सोमम्) अमृतरसम् (ममदत्) लेडर्थे माद्यतेर्ण्यन्तात्, लुङि, चङि रूपम्। मदयेत्। तर्पयेत् (एनम्) अन्तर्यामिनं जगदीश्वरम् (इष्टे) यज्ञे (परिज्मा) श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। अज गतिक्षेपणयोः कनिन्, मुडागमः, अकारलोपः। परितोगन्ता। सर्वत्रगतिः पुरुषः (चित्) एव (क्रमते) वृत्तिसर्गतायनेषु क्रमः पा० ३।१।३८। इत्यात्मनेपदम्। अप्रतिबद्धो गच्छति (अस्य) परमेश्वरस्य (धर्मणि) धारणीये नियमे ॥
विषय
दानं, दक्ष, आयूंषि
पदार्थ
१. (दमूना:) = [दानमना:-नि०] सब अभिलषित पदार्थों को देनेवाला, (देव:) = प्रकाशमय, (सविता) = उत्पादक व प्रेरक, (वरेण्यः) = वरण करने योग्य प्रभु (पितृभ्य:) = रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त लोगों के लिए (रत्नम्) = रमणीय धनों को, (दक्षम्) = बल को तथा (आयूंषि) = दीर्घजीवन को (दधत्) = धारण करता है। २. (अस्य धर्मणि) = इस प्रभु के निर्दिष्ट धारणात्मक कमों में प्रवृत्त जीव (सोमं पिबात्) = सोम का शरीर में ही पान करता है, सोम का रक्षण करता है। यह रक्षित सोम (एनं ममदत) = इसे आनन्दित करता है। यह सोमरक्षक पुरुष (इष्टे) = यज्ञों में (परिज्मा चित्) - परितः गन्ता होता हुआ, यज्ञमय जीवनवाला बनता हुआ (एनं क्रमते) = इस प्रभु को प्राप्त होता है।
भावार्थ
प्रभु 'दमूना, देव, सविता, वरेण्य' हैं, वे रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त लोगों के लिए 'रमणीय धन, बल व दीर्घजीवन' प्राप्त कराते हैं। प्रभु-निर्दिष्ट धर्मों में प्रवृत्त व्यक्ति [क] सोमरक्षण करता है, यह रक्षित सोम इसे आनन्दित करता है, [ख] यज्ञों में विचरण करता हुआ यह व्यक्ति प्रभु को प्राप्त करता है।
प्रभु-निर्दिष्ट धर्मों में दृढता से चलता हुआ यह सोमरक्षण व यज्ञशीलता से अपने जीवन का उत्तम परिपाक करता है, अत: 'भृगु' कहलाता है। अगले तीन सूक्तों का ऋषि भृगु ही है।
भाषार्थ
(दमूनाः) दानी मन वाला, (वरेण्यः) वरणीय, (सविता देवः) उत्पादक परमेश्वर देव (पितृभ्यः) माता पिताओं के लिये (रत्नम् दक्षम्, आयूंषि) रत्न बल तथा आयु को (दधत्) प्रदान करता हुआ (सोमम्) इनके उत्पन्न भक्तिरस का (पिबात्) पान (इष्टे) और ध्यानेष्टि में (एनम्) इस प्रत्येक ध्याता को (ममदत्) प्रसन्न करे, (अस्य) इस परमेश्वर के (धर्मणि) धारण-सामर्थ्य में (ज्मा चित्) पृथिवी भी (परिक्रमते) परिक्रमा कर रही है।
टिप्पणी
[दमूनाः = दानमनाः (निरुक्त ४।१।५) दधत्= विदधत्। दक्षः बलनाम (निघं० २।९)। सोमम्= उत्पन्न भक्तिरस। ज्मा= पृथिवी (निघं० १।१)। पृथिवी की परिक्रमा द्वारा परमेश्वर के सामर्थ्य को प्रकट किया है]।
विषय
ईश्वर की उपासना।
भावार्थ
(देवः) प्रकाशमान (सविता) सबका प्रेरक और उत्पादक और सर्वैश्वर्यवान् (वरेण्यः) और सब को वरण करने योग्य, सबका प्रिय प्रभु (दमूनाः) सबको उनके अभिलषित पदार्थों का प्रदान करता है। वह ही (पितृभ्यः) देह, इन्द्रिय मन और अपनी प्रजा, गृह आदि के पालन करने वाले जीवों को (रत्नं) उन के रमण करने योग्य कर्म फल (दक्षं) ज्ञान और (आयूंषि) दीर्घ जीवन (दधात्) प्रदान करता है। (अस्य) इस साक्षात् प्रभु की (धर्मणि) धारण व्यवस्था में रहकर यह जीव (सोमं पिबात्) सोमस्वरूप परमानन्द रस का पान करता है और वह आनन्द रस (एनं) इस जीव को (ममदत्) मस्त कर देता है, अपने में मग्न और मत्त कर लेता है, और वह जीव (परि-ज्मा) सर्वत्र गतिमान्, सर्वाप्तकाम हो कर (इष्टे चित्) उस परम पूज्य, इष्ट, उपास्य प्रभु को (क्रमते) प्राप्त करता, उसमें लीन हो जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। सविता। १, २ अनुष्टुप् छन्दः। ३ त्रिष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Worship
Meaning
May generous Savita, friend of the household, bear and bring for parents of the home choice gifts, jewel wealth and values of life, strength and skill, and long age of good health and joy. May he cherish the soma of their homely yajna and give the joy of self-fulfilment to each wedded couple as the yajamana couple moves on in life, observing the rules of this lord Savita’s law.
Translation
The impeller Lord, inclined to bestowing, the desirable Lord, has blessed our elders with treasures, skill and long spans of life. May He drink the devotional bliss (Soma) and be exhilarated at this sacrifice. Under His law (dharmani) the travellers go all around.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.15.4AS PER THE BOOK
Translation
The mighty, benevolent, all-worshippable Creator of the universe grants to learned men the wealth, vigor and life. The individual soul drinks the nectar of this world under His law, he makes this individual soul delighted with His blessedness and it wanders everywhere in Him.
Translation
The Refulgent, Urging. Friendly God, grants to all the objects desired by them. He bestows wealth, knowledge, long life on souls, the guardians of their bodies, organs, minds and people. Under His law, the soul enjoys extreme felicity, which makes the soul self absorbed. The active soul then realizes its goal, the Venerable God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(दमूनाः) दमेरुनसि। उ० ४।२३५। दमु उपशमे-उनसि, वा दीर्घः। दमिता। शान्तस्वभावः। दमूना दममना वा दानमना वा दान्तमना वा। अथवा दम इति गृहनाम तन्मनाः स्यान्मनो मनोतेः-निरु० ४।४। (देवः) व्यवहारकुशलः (सविता) नायकः पुरुषः (वरेण्यः) वृञ एण्यः। उ० ३।९८। वृञ् वरणे-एण्य। स्वीकरणीयः (दधत्) धारयन् (रत्नम्) रमणीयं धनम् (दक्षम्) बलम् (पितृभ्यः) पालकानां विदुषां हिताय (पिबात्) लेटि रूपम्। पिबेत् (सोमम्) अमृतरसम् (ममदत्) लेडर्थे माद्यतेर्ण्यन्तात्, लुङि, चङि रूपम्। मदयेत्। तर्पयेत् (एनम्) अन्तर्यामिनं जगदीश्वरम् (इष्टे) यज्ञे (परिज्मा) श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। अज गतिक्षेपणयोः कनिन्, मुडागमः, अकारलोपः। परितोगन्ता। सर्वत्रगतिः पुरुषः (चित्) एव (क्रमते) वृत्तिसर्गतायनेषु क्रमः पा० ३।१।३८। इत्यात्मनेपदम्। अप्रतिबद्धो गच्छति (अस्य) परमेश्वरस्य (धर्मणि) धारणीये नियमे ॥
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