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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सविता छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सविता सूक्त
    52

    सावी॒र्हि दे॑व प्रथ॒माय॑ पि॒त्रे व॒र्ष्माण॑मस्मै वरि॒माण॑मस्मै। अथा॒स्मभ्यं॑ सवित॒र्वार्या॑णि दि॒वोदि॑व॒ आ सु॑वा॒ भूरि॑ प॒श्वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सावी॑: । हि ।दे॒व॒ । प्र॒थ॒माय॑ । पि॒त्रे । व॒र्ष्माण॑म् । अ॒स्मै॒ । व॒रि॒माण॑म् । अ॒स्मै॒ । अथ॑ । अ॒स्मभ्य॑म् । स॒वि॒त॒: । वार्या॑णि । दि॒व:ऽदि॑व: । आ । सु॒व॒ । भूरि॑ । प॒श्व: ॥१५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सावीर्हि देव प्रथमाय पित्रे वर्ष्माणमस्मै वरिमाणमस्मै। अथास्मभ्यं सवितर्वार्याणि दिवोदिव आ सुवा भूरि पश्वः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सावी: । हि ।देव । प्रथमाय । पित्रे । वर्ष्माणम् । अस्मै । वरिमाणम् । अस्मै । अथ । अस्मभ्यम् । सवित: । वार्याणि । दिव:ऽदिव: । आ । सुव । भूरि । पश्व: ॥१५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (देव) हे प्रकाशस्वरूप परमेश्वर ! तूने (हि) ही (प्रथमाय) हम से पहिले वर्तमान (पित्रे) पालन करनेवाले (अस्मै) इस [पुरुष] को और (अस्मै) इस [दूसरे पुरुष] को (वर्ष्माणम्) उच्च स्थान और (वरिमाणम्) फैलाव वा उत्तमपन (सावीः) दिया है। (अथ) सो (सवितः) हे सर्वप्रेरक परमेश्वर ! (अस्मभ्यम्) हमें (दिवोदिवः) सब दिनों (वार्याणि) उत्तम विज्ञान और धन और (भूरि) बहुत (पश्वः) मनुष्य, गौ, घोड़ा, हाथी आदि (आ सुव) भेजता रहे ॥३॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार परमेश्वर ने हमसे पहिले उपकारी महात्माओं को उच्च पदवी दी है, वैसे ही परमेश्वर की आशा मान कर हम भी सुख के भागी होवें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(सावीः) षू प्रेरणे-लुङ्, अडभावः। प्रेरितवानसि (हि) निश्चयेन (देव) हे प्रकाशस्वरूप परमेश्वर (प्रथमाय) अस्मत्प्रथमभवाय (पित्रे) पालकाय। उपकारिणे पुरुषाय (वर्ष्माणम्) अ० ३।४।२। उन्नतस्थानम् (अस्मै) एकस्मै पुरुषाय (वरिमाणम्) अ० ४।६।२। उरु यद्वा वर-इमनिच्। उरुत्वं विस्तारम्। वरत्वं श्रेष्ठत्वम् (अस्मै) अन्यस्मै (अथ) तस्मात् (अस्मभ्यम्) (सवितः) हे सर्वप्रेरक (वार्याणि) वरणीयानि विज्ञानानि धनानि वा (दिवोदिवः) दिवसान् दिवसान् (आसुव) अभिमुखं प्रेरय (भूरि) बहूनि (पश्वः) छान्दसं रूपम्। अ० १।३०।३। पशून्। मनुष्यादिजीवान्। पशवो व्यक्तवाचश्चाव्यक्तवाचश्च-निरु० ११।२९ ॥

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    विषय

    प्रथमाय पित्रे वणिमस्मै वरिमाणमस्मै

    पदार्थ

    १.हे (देव) = सब-कुछ देनेवाले प्रभो! (हि) = निश्चय से आपने ही (प्रथमाय) = सबसे प्रथम होनेवाली (पित्रे) = आनेवाली सन्तानों के पिता के लिए (सावी:) = सब-कुछ प्रेरित किया है। (अस्मै वर्ष्माणम्) =  इसके लिए देह को, तथा (अस्मै) = इसके लिए (वरिमाणम्) = पुत्र-पौत्रादि लक्षणयुक्त उरुत्व [विस्तार] को आपने ही प्राप्त कराया है। प्रत्येक सृष्टि के प्रारम्भ में प्रभु के कुछ मानसपुत्र होते हैं [यद्भावा मानसा जाताः] इन्हें प्रभु ही शरीर प्राप्त कराते हैं, और सन्तानों को जन्म देने की शक्ति भी प्राप्त कराते हैं [एषां लोक इमाः प्रजाः]।२. (अथ) = अब (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए हे (सवितः) = सबके प्रेरक प्रभो! (वार्याणि) = वरणीय वस्तुओं को तथा (भूरि पश्व:) = भरण के साधनभूत बहुत पशुओं को (दिव:दिव:) = प्रतिदिन (आसुव) = प्रेरित कीजिए।

    भावार्थ

    प्रभु ही सृष्टि के प्रारम्भ में प्रथम मनुष्य को शरीर व सन्तान-जनन शक्ति प्रदान कराते हैं। वर्तमान में भी ये प्रभु हमें सदा वरणीय वस्तुओं व भरण के साधनभूत बहुत पशुओं को प्राप्त कराएँ।

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    भाषार्थ

    (देव) हे परमेश्वर देव! (अस्मै) इस (प्रथमाय) मुख्य (पित्रे) पिता के लिये, (अस्मै) इस पिता के लिये (वर्ष्माणम्) सुखचर्षी तथा स्नेही (वरिमाणम्) तथा श्रेष्ठ पुत्र (सावीः) प्रेरित अर्थात प्रदान कर। (अथ) तदनन्तर (अस्मभ्यम्) हमें (सवितः) हे प्रेरक (देव) देव! (दिवोदिवः) प्रतिदिन (वार्याणि) वरणीय फल तथा (भूरि= भूरीन्) प्रभूत (पश्वः) पशु (आशुव हि) निश्चय से प्रदान कर।

    टिप्पणी

    [अस्मै अस्मै= इस इस मुख्य पिता के लिये अर्थात् प्रत्येक गृह में जो जो मुख्य पिता हैं, उन्हें। वर्ष्माणम्= सुखवर्षी या स्नेही (वर्ष स्नेहने भ्वादिः)। गृहस्थ में जो-जो मुखिया हैं, उन में से प्रत्येक को सुखवर्षी तथा स्नेही पुत्र के प्रदान की प्रार्थना की गई है। तदनन्तर ही अन्य गृहवासियों को श्रेष्ठ प्रतिफल मिल सकते हैं। उन पुत्रों के पालन-पोषण के लिये गौ आदि प्रभूत पशुओं की प्राप्ति भी प्राप्ति की गई है। वरिमा= Excellance, superiority (आप्टे)।]

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    विषय

    ईश्वर की उपासना।

    भावार्थ

    हे (देव) परमात्मन् ! प्रकाशस्वरूप देव ! तू (प्रथमाय) सब से प्रथम, सर्वश्रेष्ठ (पित्रे) पिता अर्थात् सब प्राणों के पालक जीवात्मा के लिये ही (सावीः) ये सब पदार्थ उत्पन्न करता है। और (अस्मै) इस जीव के लिये तू ही (वर्ष्माणम्) वर्ण, देह या भोग सामर्थ्य और (अस्मै) इस जीव के लिये ही तू (वरिमाणम्) सब पदार्थों से अधिक श्रेष्ठता भी प्रदान करता है। (अथ) इसी प्रकार तू (अस्मभ्यं) हम जीवों के लिये हे (सवितः) सर्वोत्पादक प्रभो ! (वार्याणि) सब अभिलाषा करने योग्य उत्तम पदार्थ धन और (भूरि) बहुत से (पश्वः) पशुसमूह वा इन्द्रियगण (दिव: दिवः) दिनों दिन (आ सुव) प्रदान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। सविता। १, २ अनुष्टुप् छन्दः। ३ त्रिष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Worship

    Meaning

    Self-refulgent divine Savita is the creator of the first and prime father generator of life, the sun, and also the creator of the refulgent body and vast space of heaven for it and for this humanity. May the divine creator create for us cherished gifts of life and ample cattle wealth day by day.

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    Translation

    O Lord, you have granted this foremost of the elders, a high place for him, a wise expenses for him; now, O impeller Lord (savita); may you grant all sorts of desirable things, abundance of cattle to us day in and day out. (divo-divah)

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.15.3AS PER THE BOOK

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    Translation

    O mighty Creator of the universe, Thou makest for the grand sun high celestial place, and for it stretch exceedingly expansive space. O All-creating Lord; please grant us day by day the knowledge and wealth of science and the plenty of cattle’s.

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    Translation

    O God, as thou createst all objects for the grand soul, the guardian of Vital life-breaths, and endowest-it with body and sublimity, so unto us, O God, send treasures and abundant cattle day by day!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(सावीः) षू प्रेरणे-लुङ्, अडभावः। प्रेरितवानसि (हि) निश्चयेन (देव) हे प्रकाशस्वरूप परमेश्वर (प्रथमाय) अस्मत्प्रथमभवाय (पित्रे) पालकाय। उपकारिणे पुरुषाय (वर्ष्माणम्) अ० ३।४।२। उन्नतस्थानम् (अस्मै) एकस्मै पुरुषाय (वरिमाणम्) अ० ४।६।२। उरु यद्वा वर-इमनिच्। उरुत्वं विस्तारम्। वरत्वं श्रेष्ठत्वम् (अस्मै) अन्यस्मै (अथ) तस्मात् (अस्मभ्यम्) (सवितः) हे सर्वप्रेरक (वार्याणि) वरणीयानि विज्ञानानि धनानि वा (दिवोदिवः) दिवसान् दिवसान् (आसुव) अभिमुखं प्रेरय (भूरि) बहूनि (पश्वः) छान्दसं रूपम्। अ० १।३०।३। पशून्। मनुष्यादिजीवान्। पशवो व्यक्तवाचश्चाव्यक्तवाचश्च-निरु० ११।२९ ॥

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