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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सविता छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सविता सूक्त
    48

    उ॒र्ध्वा यस्या॒मति॒र्भा अदि॑द्युत॒त्सवी॑मनि। हिर॑ण्यपाणिरमिमीत सु॒क्रतुः॑ कृ॒पात्स्वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्वा: । यस्य॑ । अ॒मति॑: । भा: । अदि॑द्युतत् । सवी॑मनि । हिर॑ण्यऽपाणि: । अ॒मि॒मी॒त॒ । सु॒ऽक्रतु॑: । कृ॒पात् । स्व᳡: ॥१५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उर्ध्वा यस्यामतिर्भा अदिद्युतत्सवीमनि। हिरण्यपाणिरमिमीत सुक्रतुः कृपात्स्वः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्वा: । यस्य । अमति: । भा: । अदिद्युतत् । सवीमनि । हिरण्यऽपाणि: । अमिमीत । सुऽक्रतु: । कृपात् । स्व: ॥१५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यस्य) जिसकी (ऊर्ध्वा) ऊँची, (अमतिः) व्यापनेवाली (माः) चमक (सवीमनि) सृष्टि के बीच (अदिद्युतत्) चमकी हुई है। (हिरण्यपाणिः) अन्धकार वा दरिद्रता हरनेवाले सूर्य आदि सुवर्ण आदि तेजों के व्यवहारवाले, (सुक्रतुः) उत्तम बुद्धि वा कर्मवाले उस ईश्वर ने (कृपात्) अपने सामर्थ्य से (स्वः) स्वर्ग अर्थात् मोक्ष सुख (अमिमीत) रचा है ॥२॥

    भावार्थ

    उस जगदीश्वर की अनन्तशक्ति का विचार करके मनुष्य मोक्ष आनन्द के लिये सदा प्रयत्न करें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(ऊर्ध्वा) उत्कृष्टा (यस्य) सवितुः। परमेश्वरस्य (अमतिः) अमेरतिः। उ० ४।५९। अम गतौ-अति। व्यापनशीला (भाः) दीप्तिः (अदिद्युतत्) द्युत दीप्तौ स्वार्थे णिजन्ताच् चङि, रूपम् अद्युतत्। अदीपि (सवीमनि) जनिमृङ्भ्यामिमनिन्। उ० ४।१४९। इति षूङ् प्राणिप्रसवे-इमनिन्, वा दीर्घः। सवीमनि प्रसवे-निरु०, ६।७। सृष्टौ (हिरण्यपाणिः) हिरण्यानि अन्धकारस्य दारिद्र्यस्य वा हरणशीलानि सूर्यादीनि सुवर्णादीनि वा पाणौ व्यवहारे यस्य सः (अमिमीत) अ० ५।१२।११। निर्मितवान् (सुक्रतुः) शोभना क्रतुः प्रज्ञाः, कर्म वा यस्य सः (कृपात्) कृपू सामर्थ्ये-क। स्वसामर्थ्यात् (स्वः) स्वर्गं मोक्षसुखम् ॥

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    विषय

    अमतिः भाः

    पदार्थ

    १. (यस्य) = जिसकी (अमतिः) = [अमनशीला-व्यापनशीला]-चारों और व्याप्त होनेवाली (भा:) = दीप्ति (ऊर्ध्वा) = उत्कृष्ट होती हुई (अदिद्युतत्) = सम्पूर्ण विश्व को द्योतित करती है। २. (सवीमनि) = उस प्रभु की अनुज्ञा में ही (हिरण्यपाणि:) = हितरमणीय किरणरूप हाथोंवाला (सुक्रतुः) = उत्तम शक्तिवाला सूर्य (कृपात्) = अपने सामर्थ्य से (स्वः अमिमीत) = प्रकाश का निर्माण करता है।

    भावार्थ

    प्रभु की ज्योति से सारा विश्व धोतित होता है। प्रभु की अनुज्ञा में ही सूर्य प्रकाश का निर्माण करता है। यह सूर्य किरणरूप हाथों में सब प्राणदायी तत्वों को लिये हुए हम सबका हित करने में प्रवृत्त है।

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    भाषार्थ

    (यस्य) जिस की (सवीमनि) प्रेरणा में (अमतिः) व्यापन शीला (भाः) दीप्ति (ऊर्ध्वा) ऊपर की ओर (अदिद्युतत्) चमक रही है, (हिरण्यपाणिः) सुवर्णमय हाथों वाले सूर्य के सदृश जो मानो तिज हाथों द्वारा हिरण्य आदि प्रदान कर रहा है, (सुक्रतुः) उस सुकर्मा परमेश्वर ने (कृपांत्) कृपा से (स्वः) स्वर्गीय सुख (अमिमीत) निर्माण किया है।

    टिप्पणी

    [सवीमनि=षू प्रेरणे। अमतिः= व्यापनशीला (सायण)। अभिप्राय यह कि जो परमेश्वर ऊर्ध्व दिशा में सूर्य, तारागण आदि को प्रदीप्त कर रहा है, वह ही सुवर्ण आदि धन प्रदान कर हमें सुखी कर रहा है। "कृपात्"१; "कृपा" कृप् सामर्थ्य क्विप् (सायण)। अथवा "कृप् + कः + पञ्चम्येकवचन"। यथा "इगुपधज्ञा प्रीकिरः कः" (अष्टा० ३।१।१३५)।] [१. सायणभाष्य में "कृपात्" के स्थान में “कृपा" पाठ है। कृपात्= संभवतः कृप + पञ्चम्येकवचन।]

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    विषय

    ईश्वर की उपासना।

    भावार्थ

    (यस्य) जिस परमदेव की (मतिः) अपरिमित आत्मशक्तिमयी (भाः) कान्ति (सवीमनि) उसके चलाये इस जगत् में (ऊर्ध्वा) सब से ऊंची, सब पर अधिष्ठात्री होकर (अदिद्युतत्) प्रकाशमान है वह (हिरण्य-पाणिः) सब को प्रकाश देने वाला, या प्रकाशमान पिण्डों, सूर्य आदि लोकों को भी अपने हाथ में रखने वाला, (सु क्रतुः) सब से उत्तम ज्ञानवान्, शिल्पी (कृपात्) अपने सामर्थ्य से ही (स्वः) इस सूर्य स्वरूप नक्षत्र संसार को (अमिमित) बनाता है।

    टिप्पणी

    सर्वैर्मन्तव्यम् इति सायणः। मन्नयांग्यमिति महीधरः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। सविता। १, २ अनुष्टुप् छन्दः। ३ त्रिष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Worship

    Meaning

    Sublime is the light of his glory, beyond comprehension, which shines in adoration of his Order. Golden-handed, noblest creator, he alone with his love and grace creates the heaven of supreme bliss.

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    Translation

    Whose immeasurable glow rises upwards, and shines in His creation (impulsion) - He, the golden-handed (hiranya-pani) and skilled in selfless deeds, fashions the world of bliss (for us).

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.15.2AS PER THE BOOK

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    Translation

    He who possesses sublime splendor and whose subduing and all-pervading effulgence is distinctly manifest in the creation and who is the most active force of all wordly activities, makes the luminous world his might, the matter.

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    Translation

    I adore God, Whose lofty effulgent Self is divulged in the created world Who has fixed the bright Sun and Moon in their orbits, Who is the Wisest Actor, Whose mercy grants us salvation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(ऊर्ध्वा) उत्कृष्टा (यस्य) सवितुः। परमेश्वरस्य (अमतिः) अमेरतिः। उ० ४।५९। अम गतौ-अति। व्यापनशीला (भाः) दीप्तिः (अदिद्युतत्) द्युत दीप्तौ स्वार्थे णिजन्ताच् चङि, रूपम् अद्युतत्। अदीपि (सवीमनि) जनिमृङ्भ्यामिमनिन्। उ० ४।१४९। इति षूङ् प्राणिप्रसवे-इमनिन्, वा दीर्घः। सवीमनि प्रसवे-निरु०, ६।७। सृष्टौ (हिरण्यपाणिः) हिरण्यानि अन्धकारस्य दारिद्र्यस्य वा हरणशीलानि सूर्यादीनि सुवर्णादीनि वा पाणौ व्यवहारे यस्य सः (अमिमीत) अ० ५।१२।११। निर्मितवान् (सुक्रतुः) शोभना क्रतुः प्रज्ञाः, कर्म वा यस्य सः (कृपात्) कृपू सामर्थ्ये-क। स्वसामर्थ्यात् (स्वः) स्वर्गं मोक्षसुखम् ॥

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