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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 26

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
    सूक्त - मेधातिथिः देवता - विष्णुः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - विष्णु सूक्त

    विष्णो॒र्नु कं॒ प्रा वो॑चं वी॒र्याणि॒ यः पार्थि॑वानि विम॒मे रजां॑सि। यो अस्क॑भाय॒दुत्त॑रं स॒धस्थं॑ विचक्रमा॒णस्त्रे॒धोरु॑गा॒यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विष्णो॑: । नु । क॒म् । प्र । वो॒च॒म् । वी॒र्या᳡णि । य: । पार्थि॑वानि । वि॒ऽम॒मे । रजां॑सि । य: । अस्क॑भायत् । उत्ऽत॑रम् । स॒धऽस्थ॑म् । वि॒ऽच॒क्र॒मा॒ण: । त्रे॒धा । उ॒रु॒ऽगा॒य: ॥२७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विष्णोर्नु कं प्रा वोचं वीर्याणि यः पार्थिवानि विममे रजांसि। यो अस्कभायदुत्तरं सधस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विष्णो: । नु । कम् । प्र । वोचम् । वीर्याणि । य: । पार्थिवानि । विऽममे । रजांसि । य: । अस्कभायत् । उत्ऽतरम् । सधऽस्थम् । विऽचक्रमाण: । त्रेधा । उरुऽगाय: ॥२७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 26; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (विष्णोः) विष्णु व्यापक परमेश्वर के (वीर्याणि) पराक्रमों को (नु) शीघ्र (कम्) सुख से (प्र) अच्छे प्रकार (वोचम्) मैं कहूँ, (यः) जिसने (पार्थिवानि) भूमिस्थ और अन्तरिक्षस्थ (रजांसि) लोकों को (विममे) अनेक प्रकार रचा है, (यः) जिस (उरुगायः) बड़े उपदेशक प्रभु ने (उत्तरम्) सब अवयवों के अन्त (सधस्थम्) साथ में रहनेवाले कारण को (विचक्रमाणः) चलाते हुए (त्रेधा) तीन प्रकार से [उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय रूप से] [उन लोकों को] (अस्कभायत्) थाँभा है ॥१॥

    भावार्थ - जो परमेश्वर परमाणुओं में संयोग-वियोग शक्ति देकर अनेक लोकों को बनाकर उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय रूप से धारण करता है, उसकी भक्ति सब मनुष्य सदा किया करें ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-१।१५४।१। और यजुर्वेद में ५।१८ ॥

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