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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 26

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 26/ मन्त्र 6
    सूक्त - मेधातिथिः देवता - विष्णुः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - विष्णु सूक्त

    विष्णोः॒ कर्मा॑णि पश्यत॒ यतो॑ व्र॒तानि॑ पस्प॒शे। इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विष्णो॑: । कर्मा॑णि । प॒श्य॒त॒ । यत॑: । व्र॒तानि॑ । प॒स्प॒शे । इन्द्र॑स्य । युज्य॑: । सखा॑ ॥२७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे। इन्द्रस्य युज्यः सखा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विष्णो: । कर्माणि । पश्यत । यत: । व्रतानि । पस्पशे । इन्द्रस्य । युज्य: । सखा ॥२७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 26; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (विष्णोः) सर्वव्यापक विष्णु के (कर्माणि) कर्मों [जगत् का बनाना, पालन, प्रलय आदि] को (पश्यत) देखो, (यतः) जिससे उसने (व्रतानि) व्रतों [सब के कर्त्तव्य कर्मों] को (पस्पशे) बाँधा है। (युज्यः) वह योग्य [अथवा सब से संयोग रखनेवाले दिशा, काल, आकाश आदि में रहनेवाला] परमेश्वर (इन्द्रस्य) जीव का (सखा) सखा है ॥६॥

    भावार्थ - जिस परमेश्वर ने संसार रचकर सबको नियम में बाँधा है, वही सब में रमकर सबका हितकारी है ॥६॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है-१।२२।१८; यजु०-६।४, १३।३३; और साम–० उ०-८।२।५ ॥

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