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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 38

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 38/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - आसुरी वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - केवलपति सूक्त

    इ॒दं ख॑नामि भेष॒जं मां॑प॒श्यम॑भिरोरु॒दम्। प॑राय॒तो नि॒वर्त॑नमाय॒तः प्र॑ति॒नन्द॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । ख॒ना॒मि॒ । भे॒ष॒जम् । मा॒म्ऽप॒श्यम् । अ॒भि॒ऽरो॒रु॒दम् । प॒रा॒ऽय॒त: । नि॒ऽवर्त॑नम् । आ॒ऽय॒त: । प्र॒ति॒ऽनन्द॑नम् । ३९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं खनामि भेषजं मांपश्यमभिरोरुदम्। परायतो निवर्तनमायतः प्रतिनन्दनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । खनामि । भेषजम् । माम्ऽपश्यम् । अभिऽरोरुदम् । पराऽयत: । निऽवर्तनम् । आऽयत: । प्रतिऽनन्दनम् । ३९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 38; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [हे स्वामिन् ! मैं वधू] (मांपश्यम्) लक्ष्मी के देखनेवाले [खोजनेवाले], (अभिरोरुदम्) परस्पर संगति देनेवाले, (परायतः) दूर जानेवाले के (निवर्तनम्) लौटानेवाले, (आयतः) आनेवाले के (प्रतिनन्दनम्) स्वागत करनेवाले (इदम्) इस [प्रतिज्ञारूप] (भेषजम्) भयनिवारक औषध को (खनामि) खोदती हूँ [प्रकट करती हूँ] ॥१॥

    भावार्थ - जिस प्रकार वैद्य उत्तम ओषधि को खोद कर उपकार लेता है, इसी प्रकार वधू वर प्रतिज्ञा करके परस्पर सुख बढ़ावें ॥१॥

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