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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    यत्पुरु॑षेण ह॒विषा॑ य॒ज्ञं दे॒वा अत॑न्वत। अ॑स्ति॒ नु तस्मा॒दोजी॑यो॒ यद्वि॒हव्ये॑नेजि॒रे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । पुरु॑षेण । ह॒विषा॑ । य॒ज्ञम् ।दे॒वा: । अत॑न्वत । अस्ति॑ । नु । तस्मा॑त् । ओजी॑य: । यत् । वि॒ऽहव्ये॑न । ई॒जि॒रे ॥५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्पुरुषेण हविषा यज्ञं देवा अतन्वत। अस्ति नु तस्मादोजीयो यद्विहव्येनेजिरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । पुरुषेण । हविषा । यज्ञम् ।देवा: । अतन्वत । अस्ति । नु । तस्मात् । ओजीय: । यत् । विऽहव्येन । ईजिरे ॥५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 5; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (यत्) जब (देवाः) विद्वानों ने (पुरुषेण) अपने अग्रगामी आत्मा के साथ (हविषा) देने और लेने योग्य व्यवहार से (यज्ञम्) पूजनीय ब्रह्म को (अतन्वत) फैलाया। वह ब्रह्म (नु) अव (तस्मात्) उस [आत्मा] से (ओजीयः) अधिक बलवान् (अस्ति=आसीत्) हुआ, (यत्) जिस [ब्रह्म] की उन्होंने (विहव्येन) विशेष देने योग्य व्यवहार से (ईजिरे) पूजा था ॥४॥

    भावार्थ - विद्वान् योगी महात्माओं ने यह साक्षात् किया है कि इस जीवात्मा से अधिक ओजस्वी शक्तिविशेष परमेश्वर सब ब्रह्माण्ड को चला रहा है ॥४॥ इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध ऋग्वेद में है-म० १०।६६।७। और-यजु० ३१।१४।

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