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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 97

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 97/ मन्त्र 7
    सूक्त - अथर्वा देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - त्रिपदा साम्नी भुरिग्जगती सूक्तम् - यज्ञ सूक्त

    वष॑ड्ढु॒तेभ्यो॒ वष॒डहु॑तेभ्यः। देवा॑ गातुविदो गा॒तुं वि॒त्त्वा गा॒तुमि॑त ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वष॑ट् । हु॒तेभ्य॑: । वष॑ट् । अहु॑तेभ्य: । देवा॑: । गा॒तु॒ऽवि॒द॒: । गा॒तुम् । वि॒त्त्वा । गा॒तुम् । इ॒त॒ ॥१०२.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वषड्ढुतेभ्यो वषडहुतेभ्यः। देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वषट् । हुतेभ्य: । वषट् । अहुतेभ्य: । देवा: । गातुऽविद: । गातुम् । वित्त्वा । गातुम् । इत ॥१०२.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 97; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    (हुतेभ्यः) दिये हुए [माता-पिता आदि से पाये हुए] पदार्थों के लिये (वषट्) भक्ति [हो], (अहुतेभ्यः) न दिये हुए [स्वयं प्राप्त किये हुए] पदार्थों के लिये (वषट्) भक्ति [हो]। (गातुविदः) हे पृथिवी के जाननेवालो ! (देवाः) हे विजय चाहनेवाले वीरो ! (गातुम्) मार्ग को (वित्त्वा) पाकर (गातुम्) पृथिवी को (इत) प्राप्त हो ॥७॥

    भावार्थ - मनुष्य माता-पिता आदि से पाये हुए और अपने पुरुषार्थ से प्राप्त किये हुए पदार्थों से यथावत् उपकार लेवें। और पृथिवी के गुणों को परीक्षण द्वारा जानकर और उपकार लेकर सुखी होवें ॥७॥ इस मन्त्र का उत्तरभाग यजुर्वेद में है−८।२१ ॥

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