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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वामः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    अ॒स्य वा॒मस्य॑ पलि॒तस्य॒ होतु॒स्तस्य॒ भ्राता॑ मध्य॒मो अ॒स्त्यश्नः॑। तृ॒तीयो॒ भ्राता॑ घृ॒तपृ॑ष्ठो अ॒स्यात्रा॑पश्यं वि॒श्पतिं॑ स॒प्तपु॑त्रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य । वा॒मस्य॑ । प॒लि॒तस्य॑ । होतु॑: । तस्य॑ । भ्राता॑ । म॒ध्य॒म: । अ॒स्ति॒ । अश्न॑: । तृ॒तीय॑: । भ्राता॑ । घृ॒तऽपृ॑ष्ठ: । अ॒स्य॒ । अत्र॑ । अ॒प॒श्य॒म् । वि॒श्पति॑म् । स॒प्तऽपु॑त्रम् ॥१४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्य वामस्य पलितस्य होतुस्तस्य भ्राता मध्यमो अस्त्यश्नः। तृतीयो भ्राता घृतपृष्ठो अस्यात्रापश्यं विश्पतिं सप्तपुत्रम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य । वामस्य । पलितस्य । होतु: । तस्य । भ्राता । मध्यम: । अस्ति । अश्न: । तृतीय: । भ्राता । घृतऽपृष्ठ: । अस्य । अत्र । अपश्यम् । विश्पतिम् । सप्तऽपुत्रम् ॥१४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 9; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (अस्य) इस [जगत्] के (वामस्य) प्रशंसनीय, (पलितस्य) पालनकर्ता, (होतुः) तृप्ति करनेवाले (तस्य) उस [सूर्य] का (मध्यमः) मध्यवर्ती (भ्राता) भ्राता [भाई समान हितकारी] (अश्नः) [व्यापक] बिजुली (अस्ति) है। (अस्य) इस [सूर्य] का (तृतीयः) तीसरा (भ्राता) भ्राता (घृतपृष्ठः) घृतों [प्रकाश करनेवाले घी, काष्ठ आदि] से स्पर्श किया हुआ [पार्थिव अग्नि है], (अत्र) इस [सूर्य] में (सप्तपुत्रम्) सात [इन्द्रियों−त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] को शुद्ध करनेवाले (विश्पतिम्) प्रजाओं के पालनकर्ता [जगदीश्वर] को (अपश्यम्) मैंने देखा है ॥१॥

    भावार्थ - संसार में सूर्य के तेजोरूप अंश बिजुली और अग्नि हैं और तीनों भाई के समान परस्पर भरण करते हैं, जिससे अनेक लोकों की स्थिति है। विज्ञानी पुरुष साक्षात् करते हैं। वह परमात्मा अन्तर्यामी रूप से विराजकर उस सूर्य को भी अपनी शक्ति में रखता है ॥१॥ १−यह मन्त्र निरुक्त ४।२६। में व्याख्यात है ॥ २−मन्त्र १-२२ ऋग्वेद मण्डल १ सूक्त १६४ के मन्त्र १-˜२२ कहीं-कहीं आगे-पीछे और कुछ पाठभेद से हैं। मन्त्र १-४ ऋग्वेद में १-४ हैं ॥

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