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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - वामः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त
    174

    अ॒स्य वा॒मस्य॑ पलि॒तस्य॒ होतु॒स्तस्य॒ भ्राता॑ मध्य॒मो अ॒स्त्यश्नः॑। तृ॒तीयो॒ भ्राता॑ घृ॒तपृ॑ष्ठो अ॒स्यात्रा॑पश्यं वि॒श्पतिं॑ स॒प्तपु॑त्रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य । वा॒मस्य॑ । प॒लि॒तस्य॑ । होतु॑: । तस्य॑ । भ्राता॑ । म॒ध्य॒म: । अ॒स्ति॒ । अश्न॑: । तृ॒तीय॑: । भ्राता॑ । घृ॒तऽपृ॑ष्ठ: । अ॒स्य॒ । अत्र॑ । अ॒प॒श्य॒म् । वि॒श्पति॑म् । स॒प्तऽपु॑त्रम् ॥१४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्य वामस्य पलितस्य होतुस्तस्य भ्राता मध्यमो अस्त्यश्नः। तृतीयो भ्राता घृतपृष्ठो अस्यात्रापश्यं विश्पतिं सप्तपुत्रम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य । वामस्य । पलितस्य । होतु: । तस्य । भ्राता । मध्यम: । अस्ति । अश्न: । तृतीय: । भ्राता । घृतऽपृष्ठ: । अस्य । अत्र । अपश्यम् । विश्पतिम् । सप्तऽपुत्रम् ॥१४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।

    पदार्थ

    (अस्य) इस [जगत्] के (वामस्य) प्रशंसनीय, (पलितस्य) पालनकर्ता, (होतुः) तृप्ति करनेवाले (तस्य) उस [सूर्य] का (मध्यमः) मध्यवर्ती (भ्राता) भ्राता [भाई समान हितकारी] (अश्नः) [व्यापक] बिजुली (अस्ति) है। (अस्य) इस [सूर्य] का (तृतीयः) तीसरा (भ्राता) भ्राता (घृतपृष्ठः) घृतों [प्रकाश करनेवाले घी, काष्ठ आदि] से स्पर्श किया हुआ [पार्थिव अग्नि है], (अत्र) इस [सूर्य] में (सप्तपुत्रम्) सात [इन्द्रियों−त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] को शुद्ध करनेवाले (विश्पतिम्) प्रजाओं के पालनकर्ता [जगदीश्वर] को (अपश्यम्) मैंने देखा है ॥१॥

    भावार्थ

    संसार में सूर्य के तेजोरूप अंश बिजुली और अग्नि हैं और तीनों भाई के समान परस्पर भरण करते हैं, जिससे अनेक लोकों की स्थिति है। विज्ञानी पुरुष साक्षात् करते हैं। वह परमात्मा अन्तर्यामी रूप से विराजकर उस सूर्य को भी अपनी शक्ति में रखता है ॥१॥ १−यह मन्त्र निरुक्त ४।२६। में व्याख्यात है ॥ २−मन्त्र १-२२ ऋग्वेद मण्डल १ सूक्त १६४ के मन्त्र १-˜२२ कहीं-कहीं आगे-पीछे और कुछ पाठभेद से हैं। मन्त्र १-४ ऋग्वेद में १-४ हैं ॥

    टिप्पणी

    १−(अस्य) दृश्यमानस्य जगतः (वामस्य) प्रशस्यस्य-निघ० ३।८। (पलितस्य) फलेरितजादेश्च पः। उ० ५।३४। फल निष्पत्तौ यद्वा ञिफला विशरणे−इतच्, फस्य पः। यद्वा पल गतौ पालने च−इतच्। पालयितुः-निरु० ४।२६। (होतुः) तर्पकस्य। दातुः (तस्य) आदित्यस्य (भ्राता) अ० ४।४।५। भ्रातेव हितकारी (मध्यमः) मध्यवर्ती (अश्नः) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। अशू व्याप्तौ अश भोजने वा-न प्रत्ययः। अशनः। व्यापनः। अशनिः। विद्युत्। (तृतीयः) (भ्राता) (घृतपृष्ठः) पृष्ठं स्पृशतेः संस्पृष्टमङ्गैः-निरु० ४।३। घृतैः प्रकाशसाधनैः स्पृष्टः। (अस्य) सूर्यस्य (अत्र) सूर्ये (अपश्यम्) अद्राक्षम् (विश्पतिम्) विशां प्रजानां पालकम् (सप्तपुत्रम्) पुनातीति पुत्रः। सप्तानां त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धीनां शोधकम् ॥

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    विषय

    वाम-अश्न-घृतपृष्ठ-प्रभु-जीव-प्रकृति

    पदार्थ

    १. (अस्य) = इस (वामस्य) = सुन्दर-ही-सुन्दर, सब मलिनताओं से रहित, (पलितस्य) = सब जीवों का पालन करनेवाले, (होतुः) = सब आवश्यक पदार्थों के प्रदाता (तस्य) = उस प्रभु का (भ्राता) = भ्राता (मध्यम:) = मध्य में रहनेवाला जीव है जोकि (अश्न:) = खानेवाला है। जीव के एक ओर प्रकृति है, दूसरी ओर प्रभु। इन दोनों के मध्य में है जीव। यह न तो प्रभु के समान पूर्ण चेतन है और न ही प्रकृति के समान एकदम जड़। प्रभु पूर्ण तृप्त होने से नहीं खाते, प्रकृति जड़ होने से भूख का अनुभव नहीं करती। जीव ही खाता है। २. (अस्य) = इस प्रभु का (तृतीयः भ्राता) = तीसरा भाई यह प्रकृति है जोकि (घृतपृष्ठ:) = चमकते हुए पृष्ठवाली है। इसकी यह चमक ही जीव को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। मैं (अत्र) = यहाँ-प्रकृति में भोगासक्त न होकर (विश्पतिम्) = सब प्रजाओं के पालक (सप्तपुत्रम्) = सात लोकों के रूप में सात पुत्रों को जन्म देनेवाले प्रभु को (अपश्यम्) = देखता हूँ।'भूः, भूवः, स्वः, महः, जनः, तपः व सत्यम्' नामक सात लोक ही प्रभु के सात पुत्र हैं।

    भावार्थ

    प्रभु सुन्दर, पालक व दाता हैं, जीव प्रकृति व प्रभु के मध्य में स्थित हुआ हुआ सब भोगों को भोगता है, प्रकृति से बना हुआ संसार सोने की भौति चमकीला है। यहाँ हमें प्रभु का दर्शन करने का प्रयत्न करना चाहिए।

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    भाषार्थ

    (वामस्य) सम्भजनीय अर्थात् सेवनीय, (पलितस्य) पालन कर्त्ता, (होतुः) वर्षा प्रदाता तथा शक्ति प्रदाता (अस्य) इस प्रत्यक्ष दृष्ट तथा (तस्य) उस दूरस्थ सूर्य का (भ्राता) भाई या भर्तव्य (अस्ति) है (मध्यमः) अन्तरिक्ष लोक में रहने वाला (अश्नः) मेघ, वायु, या विद्युत्। (अस्य) इस सूर्य का (तृतीयः) तीसरा (भ्राता) भाई या भर्तव्य है (घृतपृष्ठः) यज्ञियाग्नि, जिस की पीठ पर घृताहुतियां पड़ती हैं। (अत्र) इस में (अपश्यम्) मैं ने देखा है (विश्पतिम् सप्तपुत्रम्) सातपुत्रों वाले, प्रजाओं के पति को।

    टिप्पणी

    [वामस्य = वन षण संभक्तौ भ्वादिः। पलितस्य= पालयितुः भ्राता= भर्तव्यः (निरुक्त ४।४।२६)। अश्नः मेघनाम (निघं० १।१०)। सूर्य, मेघ [वायु या विद्युत्] तथा पार्थिवाग्नि ये तीन भाई-भाई हैं, एक पिता परमेश्वर और एक माता अदिति से उत्पन्न हुए हैं। तथा सूर्य द्वारा भर्तव्य है मेघ; मेघ का भरण-पोषण सूर्य रश्मियों द्वारा होता है। पार्थिवाग्नि का भरण पोषण भी सूर्य की रश्मियां ही करती हैं। वृक्ष पैदा होते हैं। सौराग्नि द्वारा। यही अग्नि, काष्ठ जलाते समय प्रकट होती है। “अत्र अपश्यम्" द्वारा उपासक कहता है कि "मैंने पार्थिवाग्नि में विश्पति का दर्शन किया है", यह विश्पति है "परमेश्वराग्नि”, जो कि यज्ञियाग्नि में प्रविष्ट है। यथा "अग्नावग्निश्चरति प्रविष्ट ऋषीणां पुत्र अभिशस्तिपा उ" (अथर्व ० ४।३९।९)। इस प्रविष्ट हुए अग्नि के अर्थात् विश्पति के ७ पुत्र हैं, ७ भुवन१]। [१. यथा "ब्राह्मस्त्रिभूमिको लोकः प्राजापत्यस्ततो महान्। माहेन्द्रश्च स्वरित्युक्तो दिवि तारा मुनि प्रजाः। योग (३।३६, व्यास-भाष्य)। अथवा भूः भुवः स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम्।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cure of Diseases

    Meaning

    Of this splendid, blazing and ancient high priest of solar yajna, which gives light and energy and takes the waters and essences of earth and sky, the second, younger and middling brother is Vayu, wind and electricity, abiding in the middle region of the sky, the energy voracious and present every where. The third and youngest brother is Agni, fire, which is sprinkled with ghrta and water. Here in the sun I see the sustainer of people and progenitor of seven light-children together in the spectrum. (Sapta-putram may also be interpreted as the father of seven planets, i.e., Mars, Mercury, Jupiter, Venus and Saturn preceded by Rahu and Ketu, Dragon’s Head and Dragon’s Tail.)

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    Subject

    Adityah - adhyatmam

    Translation

    The all-pervading air is the middle brother of this Sun, the benign priest, who is worthy of being propitiated and who is protector of all; and the butter-fed fire, his third brother. Of them, I behold the Sun, who has seven sons and is the lord of all subjects.(Also Rg. I.164.1)

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    Translation

    This all pervading air extending itself in the atmospheric region is the second associate or co-operant of the sun which is the source of evaporation and moistening and protection and to which our all appraisements and appreciations are due. The third associate of this is the fire which carries ghee on its back, the yajra and ritual ceremonies. I, the scientist explore and examine the multifarious functions of the sun which has in it the seven rays.

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    Translation

    The second brother of this lovely, sustaining,: satisfying Sun is the voracious lightning. The third brother is the fire whose back is balmed with butter. Here have I seen God, the Lord of His subjects and the Purifier of seven organs.

    Footnote

    Seven organs: Skin, Eye, Ear, Tongue, Nose, Mind, Intellect. The verses in this hymn occur also in the Rigveda, Mandal 1, Sukta 164.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अस्य) दृश्यमानस्य जगतः (वामस्य) प्रशस्यस्य-निघ० ३।८। (पलितस्य) फलेरितजादेश्च पः। उ० ५।३४। फल निष्पत्तौ यद्वा ञिफला विशरणे−इतच्, फस्य पः। यद्वा पल गतौ पालने च−इतच्। पालयितुः-निरु० ४।२६। (होतुः) तर्पकस्य। दातुः (तस्य) आदित्यस्य (भ्राता) अ० ४।४।५। भ्रातेव हितकारी (मध्यमः) मध्यवर्ती (अश्नः) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। अशू व्याप्तौ अश भोजने वा-न प्रत्ययः। अशनः। व्यापनः। अशनिः। विद्युत्। (तृतीयः) (भ्राता) (घृतपृष्ठः) पृष्ठं स्पृशतेः संस्पृष्टमङ्गैः-निरु० ४।३। घृतैः प्रकाशसाधनैः स्पृष्टः। (अस्य) सूर्यस्य (अत्र) सूर्ये (अपश्यम्) अद्राक्षम् (विश्पतिम्) विशां प्रजानां पालकम् (सप्तपुत्रम्) पुनातीति पुत्रः। सप्तानां त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धीनां शोधकम् ॥

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