अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 22
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - वामः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
57
यत्रा॑ सुप॒र्णा अ॒मृत॑स्य भ॒क्षमनि॑मेषं वि॒दथा॑भि॒स्वर॑न्ति। ए॒ना विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य गो॒पाः स मा॒ धीरः॒ पाक॒मत्रा वि॑वेश ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । सु॒ऽप॒र्णा: । अ॒मृत॑स्य । भ॒क्षम् । अनि॑ऽमेषम् । वि॒दथा॑ । अ॒भि॒ऽस्वर॑न्ति । ए॒ना । विश्व॑स्य । भुव॑नस्य । गो॒पा: । स: । मा॒ । धीर॑: । पाक॑म् । अत्र॑ । आ । वि॒वे॒श॒ ॥१४.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भक्षमनिमेषं विदथाभिस्वरन्ति। एना विश्वस्य भुवनस्य गोपाः स मा धीरः पाकमत्रा विवेश ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र । सुऽपर्णा: । अमृतस्य । भक्षम् । अनिऽमेषम् । विदथा । अभिऽस्वरन्ति । एना । विश्वस्य । भुवनस्य । गोपा: । स: । मा । धीर: । पाकम् । अत्र । आ । विवेश ॥१४.२२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
जीवात्मा और परमात्मा के ज्ञान का उपदेश।
पदार्थ
(यत्र) जिस (विदथा) ज्ञान के भीतर (सुपर्णाः) सुन्दर पालन करनेवाले [वा सुन्दर गतिवाले, प्राणी] (अमृतस्य) अमृतपन [मोक्षसुख] के (भक्षम्) भोग को (अनिमेषम्) लगातार (अभिस्वरन्ति) सब ओर से पाते हैं। (एना) इसी विज्ञान के साथ (विश्वस्य) सब (भुवनस्य) संसार का (गोपाः) रक्षक (सः) वह (धीरः) धीर [बुद्धिमान् परमेश्वर] (पाकम्) पक्के मनवाले (मा) मुझ में (अत्र) इस [देह] के भीतर (आ) यथावत् (विवेश) पैठा है ॥२२॥
भावार्थ
जिस प्रकार योगी जन परमात्मा के विज्ञान से मोक्ष सुख भोगते हैं, वैसे ही प्रत्येक उपासक दृढबुद्धि हो मोक्ष सुख प्राप्त करे ॥२२॥ यह मन्त्र निरुक्त ३।१२। में भी व्याख्यात है ॥ (भक्षम्, एना) के स्थान पर [भागम्, इनः] पद हैं, ऋग्वेद मन्त्र २१ ॥
टिप्पणी
२२−(यत्र) यस्मिन् ज्ञाने (सुपर्णाः) म० २१। सुपालकाः प्राणिनः। शोभनकर्माणो जीवाः-द० (अमृतस्य) मोक्षस्य-द० (भक्षम्) भोगम् (अनिमेषम्) निरन्तरम् (विदथा) रुविदिभ्यां ङित्। उ० ३।११५। विद ज्ञाने-अथ। वेदेन ज्ञानेन (अभिस्वरन्ति) स्वरतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। अभिप्रयन्ति-निरु० ३।१२। सर्वतः प्राप्नुवन्ति (एना) एनेन विदथेन (विश्वस्य) समग्रस्य (भुवनस्य) संसारस्य (गोपाः) गोपायिता रक्षिता (सः) (मा) माम् (धीरः) धीमान्-निरु० ३।१२। ध्यानवान्-द० (पाकम्) पाकः पक्तव्यो भवति विपक्वप्रज्ञ आत्मा-निरु० ३।१२। परिपक्वमनस्कम् (अत्र) अस्मिन् देहे (आ) समन्तात् (विवेश) प्रविशति ॥
विषय
ज्ञान परिपक्वता व प्रभु-प्राप्ति
पदार्थ
१. (यत्र) = जब (सुपर्णा:) = [सुपलानि इन्द्रियाणि वा] उत्तम गतिवाली इन्द्रियाँ (अनिमेषम्) = बिना पलक झपकाए, अर्थात् निरन्तर दिन-रात (विदथा) = ज्ञान-प्राप्ति के दृष्टिकोण से (अमृतस्य भक्षम्) = [अथ यद् ब्रह्म तदमृतम्-तै०उ० १.२५.१०] ज्ञान के भोजन का (अभिस्वरन्ति) = लक्ष्य करके इन ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करती हैं, तब (एना) = इस ज्ञान की वाणी के उच्चारण से. अर्थात जीवन को ज्ञानप्रधान बना देने से (स:) = वह (विश्वस्य भुवनस्य गोपा:) = सारे ब्रह्माण्ड का रक्षक (धीरः) = [धियं ईरयति] बुद्धि को प्रेरणादेनेवाला प्रभु (अत्र) = यहाँ-इस जीवन में (पाक:) = [परिपक्वमनस्कम्-सा०] ज्ञान से परिपक्व मनवाले (मा) = मुझे (आविवेश) = प्रास होता है।
भावार्थ
हम दिन-रात ज्ञान की वाणियों के अपनाने का प्रयत्न करें। इसप्रकार ज्ञान से परिपक्व मनवाले बनकर हम प्रभु को प्राप्त होनेवाले होंगे।
भाषार्थ
(यत्र) जिस परमेश्वर में, (सुपर्णाः) शोभन कर्मों वाले जीवात्मा (विदथ) ज्ञानपूर्वक (अमृतस्य भक्षम्) मोक्षसुख के भोग को,– (अनिमिषम्) निमेषमात्र काल के व्यवधान के भी विना, अर्थात् सर्वदा (अभिस्वरन्ति) परमेश्वर की साक्षात् स्तुति करते हुए, प्राप्त करते हैं, (सः) वह (विश्वस्य भुवनस्य) समग्र ब्रह्माण्ड का (एना= इनः) स्वामी, (गोपाः) रक्षक (धीर) ज्ञानवान् परमेश्वर (अत्र) इस जीवन में, (पाकम् सा) मुझ पवित्र में (आ विवेश) प्रविष्ट हुआ है, मेरे हृदय में प्रविष्ट हो गया है, साक्षात् हो गया है।
टिप्पणी
[सुपर्णाः = सुपतनाः सुगमनाः "शोभन कर्मों वाले" (म० दयानन्द)। एना= इनः (ऋ० १।१६४।२१)। मन्त्र २०, २१, २२ के अर्थ ऋ० १।१६४ पर महर्षि दयानन्दकृत भाष्य के आधार पर किये हैं। धीरः=धीः (ज्ञान) +रः (वाला)। यथा मधु और मधुरः]।
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Diseases
Meaning
Where the blessed souls of noble action sing and celebrate their share of immortal joy in holy voice incessantly, therein, I pray, may the eternal constant imperishable Sovereign Ruler, protector and sustainer of the whole universe, initiate, inspire and bless me, the honest soul in preparation for the consecration.
Translation
Where the beautiful birds (ryas) cognizant (of their functions), constantly sing the glory of eternal ambrosia, there has the Lord and steadfast protector of all beings consigned me, (through) immature in wisdom. (Also Rg. I.164.21)
Translation
May in this life and world bring mature and holy knowledge to us the firm guard of the universe (God) in whom beautiful learned souls enjoy the boon of immortality always and with knowledge and faith sing the songs of his praise.
Translation
The emancipated souls, residing in God, through their knowledge ceaselessly enjoy eternal happiness. The Wise God, the keeper of the universe hath entered into me, an aspirant after salvation.
Footnote
Just as yogis have acquired salvation so should each devotee aspire for salvation with determination.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२२−(यत्र) यस्मिन् ज्ञाने (सुपर्णाः) म० २१। सुपालकाः प्राणिनः। शोभनकर्माणो जीवाः-द० (अमृतस्य) मोक्षस्य-द० (भक्षम्) भोगम् (अनिमेषम्) निरन्तरम् (विदथा) रुविदिभ्यां ङित्। उ० ३।११५। विद ज्ञाने-अथ। वेदेन ज्ञानेन (अभिस्वरन्ति) स्वरतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। अभिप्रयन्ति-निरु० ३।१२। सर्वतः प्राप्नुवन्ति (एना) एनेन विदथेन (विश्वस्य) समग्रस्य (भुवनस्य) संसारस्य (गोपाः) गोपायिता रक्षिता (सः) (मा) माम् (धीरः) धीमान्-निरु० ३।१२। ध्यानवान्-द० (पाकम्) पाकः पक्तव्यो भवति विपक्वप्रज्ञ आत्मा-निरु० ३।१२। परिपक्वमनस्कम् (अत्र) अस्मिन् देहे (आ) समन्तात् (विवेश) प्रविशति ॥
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