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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 33

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 33/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृगुः देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दर्भ सूक्त

    घृ॒तादुल्लु॑प्तो॒ मधु॑मा॒न्पय॑स्वान्भूमिदृं॒होऽच्यु॑तश्च्यावयि॒ष्णुः। नु॒दन्त्स॒पत्ना॒नध॑रांश्च कृ॒ण्वन्दर्भा रो॑ह मह॒तामि॑न्द्रि॒येण॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तात्। उत्ऽलु॑प्तः। मधु॑ऽमान्। पय॑स्वान्। भू॒मि॒ऽदृं॒हः। अच्यु॑तः। च्या॒व॒यि॒ष्णुः। नु॒दन्। स॒ऽपत्ना॑न्। अध॑रान्। च॒। कृ॒ण्वन्। दर्भ॑। आ। रो॒ह॒। म॒ह॒ताम्। इ॒न्द्रि॒येण॑ ॥३३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतादुल्लुप्तो मधुमान्पयस्वान्भूमिदृंहोऽच्युतश्च्यावयिष्णुः। नुदन्त्सपत्नानधरांश्च कृण्वन्दर्भा रोह महतामिन्द्रियेण ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घृतात्। उत्ऽलुप्तः। मधुऽमान्। पयस्वान्। भूमिऽदृंहः। अच्युतः। च्यावयिष्णुः। नुदन्। सऽपत्नान्। अधरान्। च। कृण्वन्। दर्भ। आ। रोह। महताम्। इन्द्रियेण ॥३३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 33; मन्त्र » 2

    Meaning -
    Like fire and light raised from ghrta, bearing sweets of joy as honey, abundant with delicious food and drink, firm as earth, unshakable shaker, throwing off adversaries and razing them down, may Darbha, destroyer of negativities for rehabilitation of positivities, arise in our consciousness along with the sense, mind and power of the Great.

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