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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 34/ मन्त्र 2
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त

    या गृत्स्य॑स्त्रिपञ्चा॒शीः श॒तं कृ॑त्या॒कृत॑श्च॒ ये। सर्वा॑न्विनक्तु॒ तेज॑सोऽर॒सान् ज॑ङ्गि॒डस्क॑रत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याः। गृत्स्यः॑। त्रि॒ऽप॒ञ्चा॒शीः। श॒तम्। कृ॒त्या॒ऽकृतः॑। च॒। ये। सर्वा॑न्। वि॒न॒क्तु॒। तेज॑सः। अ॒र॒सान्। ज॒ङ्गि॒डः। क॒र॒त् ॥३४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या गृत्स्यस्त्रिपञ्चाशीः शतं कृत्याकृतश्च ये। सर्वान्विनक्तु तेजसोऽरसान् जङ्गिडस्करत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याः। गृत्स्यः। त्रिऽपञ्चाशीः। शतम्। कृत्याऽकृतः। च। ये। सर्वान्। विनक्तु। तेजसः। अरसान्। जङ्गिडः। करत् ॥३४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 2

    Meaning -
    Hundred and fifty’s are the deadly diseases, and hundreds are the mysterious evil ones. All these, may Jangida turn to saplessness, deprive them of their virulence, and stop their growth immediately.

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