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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 84

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 84/ मन्त्र 2
    सूक्त - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-८४

    इन्द्रा या॑हि धि॒येषि॒तो विप्र॑जुतः सु॒ताव॑तः। उप॒ ब्रह्मा॑णि वा॒घतः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । आ । या॒हि॒ । धि॒या । इ॒षि॒त: । विप्र॑ऽजूत: । सु॒तऽव॑त: ॥ उप॑ । ब्रह्मा॑णि । वा॒घत॑: ॥८४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजुतः सुतावतः। उप ब्रह्माणि वाघतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र । आ । याहि । धिया । इषित: । विप्रऽजूत: । सुतऽवत: ॥ उप । ब्रह्माणि । वाघत: ॥८४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 84; मन्त्र » 2

    Meaning -
    Indra, Lord Supreme of light and life, meditated within by the pure at heart, realised by the enlightened, distilled from the Veda and the world of existence by the visionaries, come and inspire the chant of the dedicated yajakas.

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