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  • यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 15
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषयः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - ब्राह्मी बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    पुन॒र्मनः॒ पुन॒रायु॑र्म॒ऽआग॒न् पुनः॑ प्रा॒णः पुन॑रा॒त्मा मऽआग॒न् पुन॒श्चक्षुः॒ पुनः॒ श्रोत्रं॑ म॒ऽआग॑न्। वै॒श्वा॒न॒रोऽद॑ब्धस्तनू॒पाऽअ॒ग्निर्नः॑ पातु दुरि॒ताद॑व॒द्यात्॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुनः॑। मनः॑। पुनः॑। आयुः॑। मे॒। आ। अ॒ग॒न्। पुन॒रिति॒ पुनः॑। प्रा॒णः। पुनः॑। आ॒त्मा। मे॒। आ। अ॒ग॒न्। पुन॒रिति॒ पुनः॑। चक्षुः॑। पुन॒रिति॒ पुनः॑। श्रोत्र॑म्। मे॒। आ। अ॒ग॒न्। वै॒श्वा॒न॒रः। अद॑ब्धः। त॒नू॒पा इति॑ तनू॒ऽपाः। अ॒ग्निः। नः॒ पा॒तु॒। दु॒रि॒तादिति॑ दुःइ॒तात्। अ॒व॒द्यात् ॥१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनर्मनः पुनरायुर्म आगन्पुनः प्राणः पुनरात्मा म आगन्पुनश्चक्षुः पुनः श्रोत्रम्म आगन् । वैश्वानरो अदब्धस्तनूपा अग्निर्नः पातु दुरितादवद्यात् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुनः। मनः। पुनः। आयुः। मे। आ। अगन्। पुनरिति पुनः। प्राणः। पुनः। आत्मा। मे। आ। अगन्। पुनरिति पुनः। चक्षुः। पुनरिति पुनः। श्रोत्रम्। मे। आ। अगन्। वैश्वानरः। अदब्धः। तनूपा इति तनूऽपाः। अग्निः। नः पातु। दुरितादिति दुःइतात्। अवद्यात्॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 4; मन्त्र » 15
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    भाषार्थ -
    जिसके सम्बन्ध वा कृपा से (मे) मुझे (पुनः) शयन के पश्चात् जागने पर या पुनर्जन्म होने पर (मनः) विज्ञान का साधक मन तथा (आयुः) जीवन (पुनः) जन्म के पश्चात् (आ-अगन्) सब ओर से प्राप्त होता है। (मे) मेरा (प्राणः) शरीर धारण करने वाला प्राण (पुनः) प्राण बार-बार (आगन्) प्राप्त होता है। (आत्मा) सर्वत्र व्यापक सर्वान्तर्यामी परमात्मा अथवा अपना स्वभाव (पुनः) मानव देह धारण के पश्चात् (आ-अगन्) सब प्रकार से प्राप्त होता है। (मे) मुझे (चक्षुः) रूप ग्रहण करने वाला चक्षु इन्द्रिय (पुनः) फिर (आ-अगन्) प्राप्त होता है। (श्रोत्रम्) शब्द को ग्रहण करने वाला श्रोत्र इन्द्रिय (पुनः) आगे भी (आ-अगन्) प्राप्त होता है। वह (अदब्धः) हिंसा के अयोग्य (तनूपाः) शरीर और आत्मा का रक्षक (वैश्वानरः) शरीर का नेता जाठर अग्नि वा सबका नेता परमेश्वर (अग्नि:) शरीर में स्थित अग्नि वा विज्ञानस्वरूप परमेश्वर (नः) हमारी (अवद्यात्) पाप-आचरण से (दुरितात्) पाप से प्राप्त होने वाले दुःख वा दुष्ट कर्म से (पातु) रक्षा करता है वा करे । ४ । १५ ।।

    भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है । जब जीव शयन और मृत्यु को प्राप्त होते हैं तब जो कार्य को सिद्ध करने वाली मन आदि इन्द्रियाँ हैं वे नष्ट-सी होकर पुनः अर्थात् जागने पर वा जन्मान्तर में प्राप्त हो जाती हैं, और जो विद्युत्-अग्नि आदि के सम्बन्ध से तथा परमेश्वर की सत्ता और व्यवस्था से गोलक सहित होकर कार्य करने में समर्थ होती हैं। वह अच्छे प्रकार सेवन किया हुम्रा जाठराग्नि सब की रक्षा करता है तथा उपासना किया जगदीश्वर पाप कर्म से हटा कर, धर्म में लगा कर बार-बार मनुष्य जन्म प्रदान करके, दुष्ट आचरण और पापों से पृथक् करके अभ्युदय और निश्श्रेयस सुख पहुँचाता है ॥ ४ । १५ ।।

    भाष्यसार - १. अग्नि (भौतिक) – जब जीव शयन को प्राप्त हो जाता है, तब उसकी कार्य को सिद्ध करने वाली मन आदि इन्द्रियाँ नष्ट-सी हो जाती हैं, किन्तु इस भौतिक अग्नि के सम्बन्ध के कारण शयन के पश्चात् जागने पर विज्ञान का साधक मन, आयु, शरीर को धारण करने वाले प्राण, आत्मा, रूप को ग्रहण करने वाला चक्षु, शब्द को ग्रहण करने वाला श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ फिर प्राप्त हो जाती हैं। अच्छे प्रकार सेवन किया हुआ शरीर का नेता तथा रक्षक जाठराग्नि इन सब मन आदि इंद्रियों की रक्षा करता है। २. अग्नि (ईश्वर) – जब मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो जाता है तब उसकी कार्य की सिद्धि करने वाली मन आदि इन्द्रियाँ नष्ट-सी हो जाती हैं किन्तु अग्नि अर्थात् जगदीश्वर की कृपा से पुनः अर्थात् जन्मान्तर में मन, आयु, प्राण, आत्मा, चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ फिर प्राप्त हो जाती हैं। परमेश्वर की सत्ता और व्यवस्था से फिर गोलक सहित होकर कार्य करने में समर्थ होती हैं। शरीर और आत्मा का रक्षक, सबका नेता, विज्ञानस्वरूप जगदीश्वर उपासना से पाप-कर्म से हटाता है, धर्म में प्रवृत्त करता है, बार-बार मनुष्य जन्म प्रदान करता है, दुष्टाचरण और दुःखों से पृथक् करके ऐहिक और पारमार्थिक सुख प्रदान करता है। ३. अलङ्कार – इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार होने से अग्नि शब्द से भौतिक अग्नि और ईश्वर अर्थ का ग्रहण किया है ।। ४ । १५ ।।

    अन्यत्र व्याख्यात - महर्षि ने इस मन्त्र की व्याख्या ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (पुनर्जन्म-विषय) में इस प्रकार की है-- "(पुनर्मनः-पुनरात्मा) हे सर्वज्ञ ईश्वर जब-जब हम जन्म लेवें तब-तब हमको शुद्ध मन, पूर्ण आयु, आरोग्यता, प्राण, कुशलतायुक्त जीवात्मा, उत्तम चक्षु और प्राण, प्राप्त हों (वैश्वानरोऽदब्धः) जो विश्व में विराजमान ईश्वर है वह सब जन्मों में हमारे शरीरों का पालन करे (अग्निर्नः) सब पापों के नाश करने वाले आप हमको (पातु दुरितादवद्यात्) बुरे कामों और दुःखों से पुनर्जन्म में अलग रक्खें" ।।

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