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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 88
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    इन्द्राया॑हि धि॒येषि॒तो विप्र॑जूतः सु॒ताव॑तः। उप॒ ब्रह्मा॑णि वा॒घतः॑॥८८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑। आ। या॒हि॒। धि॒या। इ॒षि॒तः। विप्र॑जूत॒ इति॒ विप्र॑ऽजूतः। सु॒ताव॑तः। सु॒तव॑त॒ इति॑ सु॒तऽव॑तः। उप॑। ब्रह्मा॑णि। वा॒घतः॑ ॥८८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूतः सुतावतः । उप ब्रह्माणि वाघतः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र। आ। याहि। धिया। इषितः। विप्रजूत इति विप्रऽजूतः। सुतावतः। सुतवत इति सुतऽवतः। उप। ब्रह्माणि। वाघतः॥८८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 88
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    भावार्थ - विद्वान लोकांनी जिज्ञासू लोकांबरोबर संघटन करून विद्यारूपी संपत्तीचा निधी स्थापन करावा.

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