Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 55
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    5

    समि॑द्धोऽअ॒ग्निर॑श्विना त॒प्तो घ॒र्मो वि॒राट् सु॒तः। दु॒हे धे॒नुः सर॑स्वती॒ सोम॑ꣳ शु॒क्रमि॒हेन्द्रि॒यम्॥५५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    समि॑द्ध॒ इति॒ सम्ऽइ॑द्धः। अ॒ग्निः। अ॒श्वि॒ना॒। त॒प्तः। घ॒र्मः। वि॒राडिति॑ वि॒ऽराट्। सु॒तः। दु॒हे। धे॒नुः। सर॑स्वती। सोम॑म्। शु॒क्रम्। इ॒ह। इ॒न्द्रि॒यम् ॥५५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिद्धोऽअग्निरश्विना तप्तो घर्मा विराट्सुतः । दुहे धेनुः सरस्वती सोमँ शुक्रमिहेन्द्रियम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    समिद्ध इति सम्ऽइद्धः। अग्निः। अश्विना। तप्तः। घर्मः। विराडिति विऽराट्। सुतः। दुहे। धेनुः। सरस्वती। सोमम्। शुक्रम्। इह। इन्द्रियम्॥५५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 55
    Acknowledgment

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. या जगात समान गुण, कर्म, स्वभावाच्या स्री-पुरुषांनी सूर्याप्रमाणे प्रकाशमान व्हावे व पुरुषार्थी व धर्मयुक्त बनून ऐश्वर्य मिळवावे.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top