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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 44
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    न वाऽउ॑ऽए॒तान्म्रि॑यसे॒ न रि॑ष्यसि दे॒वाँ२ऽइदे॑षि प॒थिभिः॑ सु॒गेभिः॑।हरी॑ ते॒ युञ्जा॒ पृष॑तीऽअभूता॒मुपा॑स्थाद् वा॒जी धु॒रि रास॑भस्य॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न। वै। ऊँ॒ इत्यूँ॑। ए॒तत्। म्रि॒य॒से॒। न। रि॒ष्य॒सि॒। दे॒वान्। इत्। ए॒षि। प॒थिऽभिः॑। सु॒गेभिः॑। हरी॒ इति॒ हरी॑। ते॒। युञ्जा॑। पृष॑ती॒ इति॒ पृष॑ती। अ॒भू॒ता॒म्। उप॑। अ॒स्था॒त्। वा॒जी। धु॒रि। रास॑भस्य ॥४४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न वाऽउ एतन्म्रियसे न रिष्यसि देवाँऽइदेषि पथिभिः सुगेभिः । हरी ते युञ्जा पृषतीऽअभूतामुपास्थाद्वाजी धुरि रासभस्य ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    न। वै। ऊँ इत्यूँ। एतत्। म्रियसे। न। रिष्यसि। देवान्। इत्। एषि। पथिऽभिः। सुगेभिः। हरी इति हरी। ते। युञ्जा। पृषती इति पृषती। अभूताम्। उप। अस्थात्। वाजी। धुरि। रासभस्य॥४४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 44
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    भावार्थ - जसे वायू, जल, अग्नी यांच्यासंबंधी विद्या शिकून त्यांना रथात (यानात) प्रयुक्त करून मार्ग आक्रमिता येतो तसे मरण व हिंसा यांचे भय सोडून आत्मज्ञानाने आपल्या नित्य स्वरूपाला जाणून दिव्य सुख प्राप्त करावे.

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