यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 44
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - आत्मा देवता
छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
79
न वाऽउ॑ऽए॒तान्म्रि॑यसे॒ न रि॑ष्यसि दे॒वाँ२ऽइदे॑षि प॒थिभिः॑ सु॒गेभिः॑।हरी॑ ते॒ युञ्जा॒ पृष॑तीऽअभूता॒मुपा॑स्थाद् वा॒जी धु॒रि रास॑भस्य॥४४॥
स्वर सहित पद पाठन। वै। ऊँ॒ इत्यूँ॑। ए॒तत्। म्रि॒य॒से॒। न। रि॒ष्य॒सि॒। दे॒वान्। इत्। ए॒षि। प॒थिऽभिः॑। सु॒गेभिः॑। हरी॒ इति॒ हरी॑। ते॒। युञ्जा॑। पृष॑ती॒ इति॒ पृष॑ती। अ॒भू॒ता॒म्। उप॑। अ॒स्था॒त्। वा॒जी। धु॒रि। रास॑भस्य ॥४४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न वाऽउ एतन्म्रियसे न रिष्यसि देवाँऽइदेषि पथिभिः सुगेभिः । हरी ते युञ्जा पृषतीऽअभूतामुपास्थाद्वाजी धुरि रासभस्य ॥
स्वर रहित पद पाठ
न। वै। ऊँ इत्यूँ। एतत्। म्रियसे। न। रिष्यसि। देवान्। इत्। एषि। पथिऽभिः। सुगेभिः। हरी इति हरी। ते। युञ्जा। पृषती इति पृषती। अभूताम्। उप। अस्थात्। वाजी। धुरि। रासभस्य॥४४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कीदृशानि यानानि कर्त्तव्यानीत्याह॥
अन्वयः
हे विद्वन्! यद्येतद्विज्ञानं प्राप्नोषि तर्हि न त्वं म्रियसे न वै रिष्यसि सुगेभिः पथिभिर्देवानिदेषि यदि ते पृषती युञ्जा हरी अभूतामु तर्हि वाजी रासभस्य धुर्य्यपास्थात्॥४४॥
पदार्थः
(न) निषेधे (वै) निश्चयेन (उ) इति वितर्के (एतत्) विज्ञानं प्राप्य (म्रियसे) (न) (रिष्यसि) हन्सि (देवान्) विदुषः (इत्) एव (एषि) (पथिभिः) मार्गैः (सुगेभिः) सुष्ठु गच्छन्ति येषु तैः (हरी) हरणशीलौ (ते) तव (युञ्जा) योजकौ (पृषती) स्थूलौ (अभूताम्) भवेताम् (उप) (अस्थात्) उपतिष्ठेत् (वाजी) वेगवान् (धुरि) धारणे (रासभस्य) अश्वसम्बन्धस्य॥४४॥
भावार्थः
यथा विद्यया संयुक्तैर्वायुजलाग्निभिर्युक्ते रथे स्थित्वा मार्गान् सुखेन गच्छन्ति, तथैवात्मज्ञानेन स्वस्वरूपं नित्यं बुध्वा मरणहिंसात्रासं विहाय दिव्यानि सुखानि प्राप्नुयुः॥४४॥
सपदार्थान्वयः
हे विद्वन् यद्येतद्विज्ञानं प्राप्नोषि तर्हि न त्वं म्रियसे न वै रिष्यसि सुगेभिः पथिभिर्देवानिदेषि यदि ते पृषती युञ्जा हरी अभूतामु तर्हि वाजी रासभस्य धुर्य्युपास्थात् ॥ ४४ ॥ सपदार्थान्वयः--हे विद्वन् ! यद्येतद् विज्ञानं प्राप्नोषि तर्हि न त्वं म्रियसे, न वै निश्चयेन रिष्यसि हन्सि, सुगेभिः सुष्ठु गच्छन्ति येषु तैः पथिभिः मार्गै: देवान् विदुषः इत् एव एषि यदि ते तव पृषती स्थूलौ युञ्जा योजकौ हरी हरणशीलौ अभूतां भवेताम्, उ=तर्हि वाजी वेगवान् रासभस्य अश्वसम्बन्धस्य धुरि धारणे उपास्थात् उपतिष्ठेत् ॥ २५ । ४४ ॥
पदार्थः
(न) निषेधे (वै) निश्चयेन (उ) इति वितर्के (एतत्) विज्ञानं प्राप्य (म्रियसे) न) (रिष्यसि) हन्सि (देवान्) विदुषः (इत्) एव (एषि) (पथिभिः) मार्गै: (सुगेभिः) सुष्ठु गच्छन्ति येषु तैः (हरी) हरणशीलौ (ते) तव (युञ्जा) योजकौ (पृषती) स्थूलौ (अभूताम्) भवेताम् (उप) (अस्थात्) उपतिष्ठेत् (वाजी) वेगवान् (धुरि) धारणे (रासभस्य) अश्वसम्बन्धस्य ॥ ४४ ॥
भावार्थः
यथा विद्यया संयुक्तैर्वायुजलाग्निभिर्युक्ते रथे मार्गान् सुखेन गच्छन्ति; तथैव--आत्मज्ञानेन स्वस्वरूपं नित्यं बुद्ध्वा, मरणहिंसात्रासं विहाय, दिव्यानि सुखानि प्राप्नुयुः ॥ २५ । ४४ ॥
विशेषः
गोतमः । आत्मा=स्वस्वरूपम्| स्वराट्पङ्क्तिः । पञ्चमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर मनुष्यों को कैसे रथ-निर्माण करने चाहियें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वान्! यदि (एतत्) इस पूर्वोक्त विज्ञान को पाते हो तो (न) न तुम (म्रियसे) मरते (न) न (वै) ही (रिष्यसि) मारते हो, किन्तु (सुगेभिः) सुगम (पथिभिः) मार्गों से (देवान्) विद्वानों (इत्) ही को (एषि) प्राप्त होते हो, यदि (ते) आप के (पृषती) स्थूल शरीरयुक्त (युञ्जा) योग करने हारे घोड़े (हरी) पहुंचाने वाले (अभूताम्) हों (उ) तो (वाजी) वेगवान् एक घोड़ा (रासभस्य) अश्वजाति से सम्बन्ध रखने वाले खिच्चर की (धुरि) धारणा के निमित्त (उप, अस्थात्) उपस्थित हो॥४४॥
भावार्थ
जैसे विद्या से अच्छे प्रकार जिनका प्रयोग किया, उन पवन जल और अग्नि से युक्त रथ में स्थिर होके मार्गों को सुख से जाते हैं, वैसे ही आत्मज्ञान से अपने स्वरूप को नित्य जान के मरण और हिंसा के डर को छोड़ दिव्य सुखों को प्राप्त हों॥४४॥
भावार्थ
हे राष्ट्रवासीजन ! ( एतत् ) इस प्रकार सुव्यवस्था से तू (न वा म्रियसे) कभी मृत्यु को प्राप्त न हो। ( न रिष्यसि ) तू कभी पीड़ित न हो, (सुगेभिः पथभिः) उत्तम गमन करने योग्य मार्गों, राजनियम और मर्यादाओं से ( देवान् ) इस उत्तम- उत्तम राजा प्रजा के परस्पर व्यवहारों, श्रेष्ठ गुणों और उन्नत प्रजाओं और विद्वानों को (एषि) प्राप्त हो । (ते) तेरे सञ्चालक (पृषती हरी) रथ में हृष्ट पुष्ट घोड़ों के समान खूब दृढ़ राज्य के सञ्चालन में कुशल पुरुष (युञ्जा) नियुक्त ( अभूताम् ) हों और (रासभस्य) मार्गोपदेश करने वाले महामन्त्री के (धुरि ) पद पर (वाजी) ज्ञानैश्वर्यवान् पुरुष (उप अस्थात् ) स्थित हो, स्थापित किया जाय ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आत्मा देवता । भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
फिर मनुष्यों को कैसे रथ निर्माण करने चाहिए, इस विषय का उपदेश किया है॥
भाषार्थ
हे विद्वान् ! यदि तू (एतत्) इस विज्ञान को प्राप्त करता है तो तू (न) नहीं (म्रियसे) मरता है; और (न) नहीं (वै) निश्चय से (रिष्यसि) हिंसित होता है; अपितु (सुगेभिः) सुगम (पथिभिः) मार्गों से (देवान्) विद्वानों को (इत्) ही (एषि) प्राप्त करता है। यदि (ते) तेरे(पृषती) स्थूल (युञ्जा) रथ में जुड़ने वाले (हरी) दो घोड़े (अभूताम्) हों; (उ) तो (वाजी) वेगवान् घोड़ा (रासभस्य) अश्व जाति से सम्बन्ध रखने वाला खच्चर (धुरि) रथ आदि के धारण करने में (उपास्थात्) उपस्थित हो॥ २५ । ४४ ॥
भावार्थ
जैसे विद्या-संयुक्त वायु, जल और अग्नि और अग्नि से युक्त रथ में लोग मार्गों को सुख से तय करते हैं; वैसे ही आत्म-ज्ञान से अपने स्वरूप (आत्मा) को नित्य जान कर मृत्यु एवं हिंसा के त्रास=भय को छोड़ कर, दिव्य सुखों को प्राप्त करें॥ २५ । ४४ ॥
भाष्यसार
मनुष्य कैसे यान बनावें--मनुष्य विद्या के द्वारा वायु, जल और अग्नि से युक्त रथों का निर्माण करें। उनमें बैठ कर मार्गों को सुख से तय करें। इसी प्रकार विद्वान् लोग विज्ञान=आत्मज्ञान से अपने स्वरूप को नित्य जानें तथा मृत्यु और हिंसा के त्रास से पृथक् रहें। विद्वानों के पास स्थूल=हृष्ट-पुष्ट, रथ में जुड़ने वाले घोड़े हों। वेगवान् घोड़े तथा खच्चर को भी रथ आदि में संयुक्त करें ॥ २५ । ४४ ॥
विषय
मर्त्यलोक से देवलोक में
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार 'अगृध्नु तथा विशस्ता' अलोभी व दोषों से दूर करनेवाले आचार्य के मिलने पर विद्यार्थी का जीवन इतना सुन्दर बनता है कि इस शरीर के छोड़ने पर उसे अगला शरीर मिलता है तो अधिक उत्तम ही मिलता है, अतः वह मृत्यु के दिन अपने को ही इस रूप में प्रेरणा देता है कि तू (वा उ) = निश्चय से (एतत्) = यह (न म्रियसे) = मर थोड़े ही रहा है। यह शरीर से अलग होने की प्रक्रिया तेरी मृत्यु नहीं है, क्योंकि उत्तम शिक्षित होकर तू (सुगेभिः पथिभिः) = सरल मार्गों से, छल-छिद्र व कुटिलता के मार्गों से दूर रहकर चलता हुआ (इत्) = निश्चय से (देवान् एषि) = देवों के ज्ञान को प्राप्त होता है, अर्थात् इस मर्त्यलोक में जन्म न लेकर देवलोक में जन्म लेता है। २. यह देवलोक को प्राप्त होना तेरा निश्चित ही है, क्योंकि (ते) = तेरे (हरी) = ये ज्ञानेन्द्रिय पञ्चक व कर्मेन्द्रिय पञ्चकरूप घोड़े (युञ्जा) = सदा योगयुक्त होने का प्रयत्न करते रहे और अतएव (पृषती) = [पृष् to sprinkle] अपने में ज्ञान व शक्ति का सेचन करनेवाले तथा [ पृष् to give ] ज्ञान का प्रसार करनेवाले (अभूताम्) = हुए और ३. यह भी इसलिए हुआ कि (रासभस्य धुरि) = [रास् शब्दे ] शब्दों द्वारा ज्ञान देनेवाले अध्यापकों ने अग्रभाग में, मुख्यस्थान में वाजी शक्तिशाली, त्याग की वृत्तिवाला, ज्ञानी व क्रियाशील आचार्य (उपास्थात्) = तुझे प्राप्त हुआ [(वाज) = शक्ति, त्याग, ज्ञान, क्रिया]। इस प्रकार के आचार्य के प्राप्त होने का ही यह परिणाम है कि तेरा जीवन बड़ा सुन्दर बना, तेरी इन्द्रियाँ विषयों में न भटकीं, अतः अब तुझे उत्तम देवलोक ही प्राप्त होगा। शरीर से पृथक् होने में कोई घाटे का सौदा नहीं। यह मृत्यु है ही नहीं। यह तो निचली श्रेणी से ऊपर जाने के समान है। मर्त्यलोक से देवलोक में जाना है, उन्नति है, नकि अवनति, Promotion है नाकि Demotion, अत: यह तो हर्ष का विषय है, नकि दुःख । मृत्यु सुख हैं
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञानी पुरुष शरीर को छोड़ता हुआ इस प्रकार आत्मप्रेरणा देता है कि "तू मर थोड़े ही रहा है, तू ह्रास को नहीं प्राप्त हो रहा। सरल मार्ग से जीवन बिताकर तू देवलोक को प्राप्त करेगा। तेरी इन्द्रियाँ योगयुक्त तथा अपने में ज्ञान व शक्ति का सेचन करनेवाली बनें और यह सब इस कारण कि तुझे शब्दज्ञान देनेवाले उपाध्यायों का अग्रणी आचार्य बड़ा ज्ञानी, त्यागी व शक्तिशाली प्राप्त हुआ। उस आचार्य की कृपा से तेरा जीवन सुन्दर बना और परिणामत: तुझे देवलोक प्राप्त होने लगा है।
मराठी (2)
भावार्थ
जसे वायू, जल, अग्नी यांच्यासंबंधी विद्या शिकून त्यांना रथात (यानात) प्रयुक्त करून मार्ग आक्रमिता येतो तसे मरण व हिंसा यांचे भय सोडून आत्मज्ञानाने आपल्या नित्य स्वरूपाला जाणून दिव्य सुख प्राप्त करावे.
विषय
मनुष्यांनी कशा प्रकारचे रथांचे निर्माण करावे, यावषियी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे विद्वान, जर आपण (एत्त) या वर वर्णित विशेष ज्ञान प्राप्त करू शकाल (अश्वपालन, यज्ञ, शरीरस्थास्थ्य नियमपालनाविषयी जागरूक रहाल) तर आपण कधी (न) (म्रियसे) मारणार नही याउलट आपण (सुगेभिः) (पथिभिः) सुगम माार्गवर चालत (देवान्) विद्वज्जनापर्यंत (इत्) अवश्यमेव (एषि) प्राप्त व्हाल. (अश्वपालन करून अश्वावर स्वार होऊन इतर स्थानातील ज्ञानवृद्धापर्यंत सुगम रस्त्याने वा स्थावर आरूढ होऊन जाऊ शकाल) (ते) (आपण पाळलेले) आपले (पृषती) ते धष्ट-पुष्ट शरीराचे (युञ्जा) (रथात) जुंपलेले घोडे (हरी) आपणाला गंतव्य ठिकाणापर्यंत नेणारे (अभूताम्) होतील अन्यथा (उ) (वाजी) वेगवान गोडा (रासभस्य) अश्वजातीशी संबंधित पशू म्हणजे खेचराच्या (धुरि) धारण वा पालन करर्यासारखे (उप, अस्यात्) होऊन जाईल (पुष्ट अवयवात अश्वदेखील दुर्बळ व प्राणी खेचरासारखा होईल) ॥4॥
भावार्थ
भावार्थ - वायू, जल आणि अग्नी, यांच्याद्वारे रथाची निर्मिती व संचालन, हे योग्य रीती व नियम-विज्ञानादी प्रमाणे तयार करून विद्वान वैज्ञानिक मार्गक्रमण सुगम व सुखकर करतात, तसेच विद्वान (योगी) आत्मज्ञान प्राप्त करून स्वस्वरूप ओळखतात आणि त्याद्वारे मरण आणि हंसा आदींचे भय दूर सारून दिव्य सुख अनुभवतात. ॥44॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Soul deist not, nor is it injured. Performing noble acts it attains to godhead. May thy powerful Pran and Apan be yoked through Yoga. May a learned person take up the duty of preaching.
Meaning
This way, with this knowledge, you will not die, nor suffer wrong. Instead, you would rise to the state of the immortals by the straight paths of the divinities. Yoke your strong horses to the chariot, and let the fast horse be close to the bearer of the burden.
Translation
O horse, injured you may be, but we will not allow you to die. No more tortures for you, for you have served us nobly in an auspicious cause. You will be fit again to join the battles with redoubled valour, speed of the deer and the roar of the horse-chariot wheels. (1)
Notes
Harī, speedy carriers. Two horses of Indra; हई इंद्रस्य इति यास्कः । Prṣati, deer; मरुतां वाहनभूतौ; carriers of the Maruts. Also, spotted mares. Rāsabhasya, of an ass, that draws the chariot of the Asvins.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্মনুষ্যৈঃ কীদৃশানি য়ানানি কর্ত্তব্যানীত্যাহ ॥
পুনঃ মনুষ্যদের কেমন রথ নির্মাণ করা দরকার, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ– হে বিদ্বান্! যদি (এতৎ) এই পূর্বোক্ত বিজ্ঞানকে প্রাপ্ত কর তাহা হইলে (ন) না তুমি (ম্রিয়সে) মর (ন) না (বৈ) ই (রিষ্যতি) মার কিন্তু (সুগেভিঃ) সুগম (পথিভিঃ) মার্গ দ্বারা (দেবান্) বিদ্বান্গণ (ইৎ) ইকে (এষি) প্রাপ্ত হও যদি (তে) আপনার (পৃষতী) স্থূল শরীরযুক্ত (য়ুঞ্জা) যোগ করিবার অশ্ব (হরী) উপস্থিতকারী (অভূতাম্) হয় (উ) (বাজী) বেগবান্ এক অশ্ব (রাসভস্য) অশ্বজাতির সহিত সম্পর্ক রক্ষাকারী খচ্চরের (ধুরি) ধারণার নিমিত্ত (উপ, অস্থাৎ) উপস্থিত হয় ॥ ৪৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ– যেমন বিদ্যা দ্বারা উত্তম প্রকার যাহার প্রয়োগ করা হইয়াছে সেই পবন, জল ও অগ্নি দ্বারা যুক্ত রথে স্থিত হইয়া মার্গকে সুখপূর্বক গমন করে সেইরূপ আত্মজ্ঞান দ্বারা নিজের স্বরূপকে নিত্য জানিয়া মরণ ও হিংসার ভয়কে বর্জন করিয়া দিব্য সুখগুলি প্রাপ্ত হও ॥ ৪৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ন বাऽউ॑ऽএ॒তান্ম্রি॑য়সে॒ ন রি॑ষ্যসি দে॒বাঁ২ऽইদে॑ষি প॒থিভিঃ॑ সু॒গেভিঃ॑ ।
হরী॑ তে॒ য়ুঞ্জা॒ পৃষ॑তীऽঅভূতা॒মুপা॑স্থাদ্ বা॒জী ধু॒রি রাস॑ভস্য ॥ ৪৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ন বা ইত্যস্য গোতম ঋষিঃ । আত্মা দেবতা । স্বরাট্ পঙ্ক্তি ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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