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यजुर्वेद अध्याय - 25

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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 30
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    76

    उप॒ प्रागा॑त् सु॒मन्मे॑ऽधायि॒ मन्म॑ दे॒वाना॒माशा॒ऽउप॑ वी॒तपृ॑ष्ठः। अन्वे॑नं॒ विप्रा॒ऽऋष॑यो मदन्ति दे॒वानां॑ पु॒ष्टे च॑कृमा सु॒बन्धु॑म्॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑। प्र। अ॒गा॒त्। सु॒मदि॑ति॑ सु॒ऽमत्। मे॒। अ॒धा॒यि॒। मन्म॑। दे॒वाना॑म्। आशाः॑। उप॑। वी॒तपृ॑ष्ठ॒ इति॑ वी॒तऽपृ॑ष्ठः। अनु॑। ए॒न॒म्। विप्राः॑। ऋष॑यः। म॒द॒न्ति॒। दे॒वाना॑म्। पु॒ष्टे। च॒कृ॒म॒। सु॒बन्धु॒मिति॑ सु॒ऽबन्धु॑म् ॥३० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप प्रागात्सुमन्मे धायि मन्म देवानामा शाऽउप वीतपृष्ठः । अन्वेनँविप्राऽऋषयो मदन्ति देवानाम्पुष्टे चकृमा सुबन्धुम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उप। प्र। अगात्। सुमदिति सुऽमत्। मे। अधायि। मन्म। देवानाम्। आशाः। उप। वीतपृष्ठ इति वीतऽपृष्ठः। अनु। एनम्। विप्राः। ऋषयः। मदन्ति। देवानाम्। पुष्टे। चकृम। सुबन्धुमिति सुऽबन्धुम्॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 30
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनः के केषां सकाशात् किं गृह्णीयुरित्याह॥

    अन्वयः

    येन सुमत्स्वयं देवानां वीतपृष्ठो यज्ञोऽधायि येनैतेषां मे च मन्माशाश्चोपप्रागाद्, यमेनमनुदेवानां पुष्टे ऋषयो विप्रा उपमदन्ति, तं सुबन्धुं वयं चकृम॥३०॥

    पदार्थः

    (उप) सामीप्ये (प्र) (अगात्) प्राप्नुयात् (सुमत्) स्वयम् (मे) मम (अधायि) ध्रियते (मन्म) विज्ञानम् (देवानाम्) विदुषाम् (आशाः) दिशः (उप) (वीतपृष्ठः) वीतं व्याप्तं पृष्ठं यस्य सः (अनु) (एनम्) (विप्राः) मेधाविनः (ऋषयः) मन्त्रार्थविदः (मदन्ति) कामयन्ते (देवानाम्) विदुषाम् (पुष्टे) पुष्टे जने (चकृम) कुर्याम। अत्र संहितायाम् [अ॰६.३.११४] इति दीर्घः। (सुबन्धुम्) शोभना बन्धवो भ्रातरो यस्य तम्॥३०॥

    भावार्थः

    ये विदुषां सकाशाद् विज्ञानं प्राप्यर्षयो भवन्ति, ते सर्वान् विज्ञानदानेन पोषयन्ति, येऽन्योन्यस्योन्नतिं विधाय सिद्धकामा भवन्ति, ते जगद्धितैषिणो जायन्ते॥३०॥

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    विषयः

    पुनः के केषां सकाशात् किं गृह्णीयुरित्याह ॥

    सपदार्थान्वयः

    येन सुमत्स्वयं, देवानाम् वीतपृष्ठो यज्ञोऽधायि येनैतेषां मे च मन्माशाश्चोपप्रागाद्यमेनमनुदेवानां पुष्टे ऋषयो विप्रा उपमदन्ति तं सुबन्धुं वयं चकृम ॥३०॥ सपदार्थान्वयः--येन सुमत्=स्वयं,देवानां विदुषां वीतपृष्ठः=यज्ञः वीतं=व्याप्तं पृष्ठं यस्य सः, अधायि ध्रियते; येनैतेषां मे मम च मन्म विज्ञानम्, आशाः दिशः चोपप्रागात् समीपं प्राप्नुयात्; यमेनमनु देवानां विदुषां पुष्टे पुष्टे जने ऋषयः मन्त्रार्थविदः विप्राः मेधाविनः उपमदन्ति समीपं कामयन्ते, तं सुबन्धुं शोभना बन्धवो=भ्रातरो यस्य तं वयं चकृम कुर्याम ॥ २५ । ३० ॥

    पदार्थः

    (उप) सामीप्ये (प्र) (अगात्) प्राप्नुयात् (सुमत्) स्वयम् (मे) मम (अधायि) ध्रियते (मन्म) विज्ञानम् (देवानाम्) विदुषाम् (आशाः) दिश: (उप) (वीतपृष्ठः) वीतं=व्याप्तं पृष्ठं यस्य सः (अनु) (एनम्) (विप्राः) मेधाविनः (ऋषयः) मन्त्रार्थविदः (मदन्ति) कामयन्ते (देवानाम्) विदुषाम् (पुष्टे) पुष्टे जने (चकृम) कुर्याम अत्र संहितायामिति दीर्घः । (सुबन्धुम्) शोभना बन्धवो=भ्रातरो यस्य तम् ॥ ३० ॥

    भावार्थः

    ये विदुषां सकाशाद् विज्ञानं प्राप्य, ऋषयो भवन्ति ते सर्वान् विज्ञानदानेन पोषयन्ति।येऽन्योऽन्यस्योन्नतिं विधाय सिद्धकामा भवन्ति; ते जगद्धितैषिणो जायन्ते ॥ २५ । ३० ॥

    विशेषः

    गोतमः । विद्वांसः=ऋषयः। त्रिष्टुप् ।धैवतः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर कौन किनसे क्या लेवें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    जिसने (सुमत्) आप ही (देवानाम्) विद्वानों का (वीतपृष्ठः) जिस का पिछला भाग व्याप्त वह उत्तम व्यवहार (अधायि) धारण किया वा जिससे इनके और (मे) मेरे (मन्म) विज्ञान को तथा (आशाः) दिशा-दिशान्तरों को (उप, प्र, अगात्) प्राप्त हो वा जिस (एनम्) इस प्रत्यक्ष व्यवहार के (अनु) अनुकूल (देवानाम्) विद्वानों के बीच (पुष्टे) पुष्ट बलवान् जन के निमित्त (ऋषयः) मन्त्रों का अर्थ जानने वाले (विप्राः) धीरबुद्धि पुरुष (उप, मदन्ति) समीप होकर आनन्द को प्राप्त होते हैं, उस (सुबन्धुम्) सुन्दर भाइयों वाले जन को हम लोग (चकृम) उत्पन्न करें॥३०॥

    भावार्थ

    जो विद्वानों के समीप से उत्तम ज्ञान को पाके ऋषि होते हैं, वे सब को विज्ञान देने से पुष्ट करते हैं, जो परस्पर एक-दूसरे की उन्नति कर परिपूर्ण काम वाले होते हैं, वे जगत् के हितैषी होते हैं॥३०॥

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    विषय

    उत्तम कार्यकर्त्ताओं की कार्य में नियुक्ति ।

    भावार्थ

    जो पुरुष (मे) मुझ प्रजाजन के हित के लिये (वीत पृष्टः) पीठ पर उपवीत धारण किये दीक्षित से तुल्य, सुसज्ज, विशाल हृष्ट पुष्ट पीठ वाला, सबको आश्रय देने में समर्थ, अश्व के समान बलवान् (सुमंत्) स्वयं ( उप प्र अगात् ) अनायास ही प्राप्त है और (येन) जो (देवानाम् ) विद्वानों और शासकों के मन की (आशा) कामनाओं और दिशावासी प्रजाजनों को भी (उप अधायि ) धारण-पोषण करता है ( एनम् अनु ) उसको देखकर (विप्राः) विद्वान्, मेधावी (ऋषयः) ज्ञानी, मन्त्रद्रष्टा ऋषि भी (मदन्ति) प्रसन्न होते हैं । और (पुष्टे) हृष्ट पुष्ट धन से समृद्ध प्रजाजन के बीच उसको ही हम ( देवानाम् ) विद्वानों और विजयशील सैनिकों के ( सुबन्धुम् ) उत्तम बन्धु और उत्तम प्रबन्धकर्त्ता (चकृम) नियत करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विद्वांसः । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    फिर कौन किनसे क्या ग्रहण करें, इस विषय का उपदेश किया है॥

    भाषार्थ

    जो (सुमत्) स्वयं (देवानाम्) विद्वानों के (वीतपृष्ठः) यज्ञ को (अधायि) धारण करता है; जो इन विद्वानों तथा (मे) मेरे (मन्म) विज्ञान को और (दिश:) दिशाओं को (उपप्रागात्) प्राप्त करता है; (एनम्, अनु) इसके पश्चात् (देवानाम्) विद्वानों के (पुष्टे) पुष्ट होने पर (ऋषयः) मन्त्रार्थ के ज्ञाता (विप्राः) मेधावी लोग जिसकी (उपमदन्ति) कामना करते हैं; उसे हम (सुबन्धुम्) उत्तम बन्धु (चकृम) बनावें ॥ २५।३०॥

    भावार्थ

    जो विद्वानों से विज्ञान को प्राप्त करके ऋषि बनते हैं; वे सब को विज्ञान-दान से पुष्ट करते हैं।जो परस्पर की उन्नति करके कामनाओं को सिद्ध करते हैं; वे जगत् के हितैषी होते हैं ॥ ३०॥

    प्रमाणार्थ

    (चकृम) यहाँ 'संहितायाम्’ अधिकार में दीर्घ है [चकृमा]॥

    भाष्यसार

    कौन किससे क्या ग्रहण करें--मनुष्य विद्वानों के यज्ञ को स्वयं धारण करें, विद्वानों से विज्ञान को ग्रहण करें; विद्वानों की दिशाओं को प्राप्त करें अर्थात् उनके समीप रहें; विद्वानों के संग से विज्ञान को प्राप्त करके पुष्ट हों, मन्त्रार्थ के ज्ञाता ऋषि एवं मेधावी विद्वान् बनें तथा विज्ञानदान से सबको पुष्ट करें। उक्त विद्वानों को मनुष्य अपना बन्धु बनावें। इस प्रकार परस्पर उन्नति करके कामनाओं को सिद्ध करें तथा जगत् के हितैषी हों॥ २५ । ३०॥

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    विषय

    उप प्रागात्

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार यदि हम [ क ] अङ्ग-प्रत्यङ्ग को सुडौल बनाते हैं [ख] मस्तिष्क का सुन्दर तक्षण करते हैं तथा [ग] ज्ञान का परिपाक करते हैं और इस कार्य में रुकते नहीं तो (उपप्रागात्) = वह प्रभु हमारे समीप आते हैं। हम पर्वत की ओर चलते जाते हैं तो पर्वत हमारे समीप हो जाता है, इसी प्रकार यहाँ साधना करने से प्रभु हमारे समीप हो जाते हैं। समीप क्या? प्रभु का मेरे अन्दर निवास होता है। २. इस प्रभु के निवास से (सुमत्) = स्वयं ही [ सुमत् = स्वयं नि० ] (मे) = मुझमें (मन्म) = [ मननम्] ज्ञान (अधायि) = निहित होता है। प्रभु ज्ञानस्वरूप हैं। प्रभु का मुझमें निवास हुआ तो मेरे अन्दर ही ज्ञान का स्रोत उमड़ पड़ता है। ३. उस समय मेरी (आशा:) = आशा व इच्छा भी (देवानाम्) = देवों की हो जाती है। देवों की कामनाएँ अध्यात्मता का पुट लिये होती हैं। ४. (उप) = उस प्रभु के समीप रहकर मैं (वीतपृष्ठः) = कान्तपृष्ठवाला बनता हूँ। मेरी पीठ पाप के बोझों से नहीं लद जाती। मेरी पीठ पर पाप का कलंक नहीं होता। ५. (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा लोग तथा (विप्राः) = विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले ज्ञानी लोग (एनम्) = इस समीप प्राप्त प्रभु के (अनुमदन्ति) = आनन्द से आनन्दित होते है, अर्थात् प्रभु को प्राप्त करके वे उस अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव करते हैं, जो अनुपम है। ६. (देवानाम् पुष्टे) = दिव्य गुणों के पोषण के निमित्त हम उस प्रभु को (सुबन्धुम्) = उत्तम बन्धु (चकृम) = करते हैं। प्रभु के साथ बना हुआ हमारा बन्धुत्व हममें दिव्य गुणों के निरन्तर विकास का कारण बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ-प्रभु हमें प्राप्त होते हैं तो हमारे अन्त: ज्ञान का स्रोत उमड़ पड़ता है। हम एक अनुपम आनन्द अनुभव करते हैं, प्रभु का यह उपासन हमारी दैवी प्रवृत्ति को बढ़ाता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे विद्वानांकडून उत्तम ज्ञान प्राप्त करून ऋषी बनतात ते विशेष ज्ञानाने सर्वांना कणखर व पुष्ट बनवितात. जे परस्पर उन्नती करून परिपूर्ण काम करतात ते जगाचे हितकर्ते असतात.

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    विषय

    कोणी कोणापासून काय घ्यावे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - ज्याने (सुमत्) स्वतः) (देवनाम्) विद्वानांचा (वीतपृष्ठः) मागील भाग व्याप्त म्हणजे त्यांचे अनुकरण) केले. त्यांच्याप्रमाणे उत्तम कर्मे (अधामि) केली वा अनुगमन केले, त्यांचे आणि माझे (यन्म) विज्ञान, विशेष ज्ञान (आशाः) दिग्दिशांतरांपर्यंत (उप, प्र, अगात्) प्राप्त व्हावे, (अशी माझी कामना आहे) (एनम्) अशाच प्रकारचा विशेष कर्म व आचरणाद्वारे (अनु) सर्वांशी अनुकूल राहून (देवानाम्) आम्ही विद्वानांमधे (पुष्टे) पुष्ट व बलिष्ठ जन निर्माण करण्याकरिता तसेच (ऋषयः) मंत्राचा अर्थ जाणणारे (विप्राः) धीर बुद्धिमान पुरूष (उप, मदन्ति) त्या ऋषीच्या जवळ राहून आनंद मिळवतात, आम्ही देखील ऋषीजवळ राहून आनंद मिळवावे तसेच (सुबन्धुम्) सुंदर सुशील बंधू असलेल्या मनुष्याचे (परिवारातले सर्व भाऊ-बहिण) सुशील राहतील व होतील असे प्रयत्न (चकृम) आम्ही केले पाहिजेत. ॥30॥

    भावार्थ

    भावार्थ -जे लोक विद्वानांजवळ बसून उत्तम ज्ञान प्राप्त करून ऋषी म्हणजे मननशील, विचारक होतात, ते इतर सर्वांना ज्ञान व विशेष ज्ञान देतात. जे कोणी एकमेकांस पूरक राहून त्यांची व स्वतःची उन्नती साधतात, ते जगांचे हितैषी ठरतात. ॥30॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    He, who, competent to afford shelter to all, himself comes to me for my welfare, and who fulfils the desires of the learned, is the source of delight on sight to the learned and sages. May we produce amongst the learned such a strong man, having beautiful brothers.

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    Meaning

    May the man of broad yajnic potential, the man able to realise the hopes of the learned, come to us spontaneously and bear the wisdom of knowledge for us, so that the visionaries and intellectuals may rejoice with him and we may create a community of brotherhood among the brilliant scholars.

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    Translation

    Whilst the horse arrives at the place of honour, the chanting of the Vedic hymns begins. And there is rejoicing by singers and sages alike. The horse, roped to the post, is admired by the distinguished elites. (1)

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ কে কেষাং সকাশাৎ কিং গৃহ্ণীয়ুরিত্যাহ ॥
    পুনঃ কে কাহার নিকট হইতে কী গ্রহণ করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–যিনি (সুমৎ) স্বয়ং (দেবানাম্) বিদ্বান্দিগের (বীতপৃষ্ঠঃ) যাঁহার পশ্চাৎ অংশ ব্যাপ্ত সেই উত্তম ব্যবহার (অধায়ি) ধারণ করিয়াছে অথবা যদ্দ্বারা ইহাদের এবং (মে) আমার (মন্ম) বিজ্ঞানকে তথা (আশাঃ) দিক্-দিগন্তরকে (উপ, প্র, জগাৎ) প্রাপ্ত হউক অথবা যাহা (এনম্) এই প্রত্যক্ষ ব্যবহারের (অনু) অনুকূল (দেবানাম্) বিদ্বান্দিগের মধ্যে (পুষ্টে) পুষ্ট বলবান্ ব্যক্তির নিমিত্ত (ঋষয়ঃ) মন্ত্রের অর্থজ্ঞাতা সকল (বিপ্রাঃ) ধীরবুদ্ধি পুরুষ (উপ, মদন্তি) সমীপ হইয়া আনন্দ প্রাপ্ত হইয়া থাকেন সেই (সুবন্ধুম্) সুন্দর শোভনীয় ভ্রাতাদিগকে আমরা (চকৃম্) উৎপন্ন করি ॥ ৩০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যাহারা বিদ্বান্দিগের নিকট হইতে উত্তম জ্ঞান লাভ করিয়া ঋষি হয় তাহারা সকলকে বিজ্ঞান দিয়া পুষ্ট করে, যাহারা পরস্পর একে-অপরের উন্নতি করিয়া পরিপূর্ণ কর্ম্মযুক্ত হইয়া থাকে তাহারা জগৎ হিতৈষী হইয়া থাকে ॥ ৩০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    উপ॒ প্রাগা॑ৎ সু॒মন্মে॑ऽধায়ি॒ মন্ম॑ দে॒বানা॒মাশা॒ऽউপ॑ বী॒তপৃ॑ষ্ঠঃ ।
    অন্বে॑নং॒ বিপ্রা॒ऽঋষ॑য়ো মদন্তি দে॒বানাং॑ পু॒ষ্টে চ॑কৃমা সু॒বন্ধু॑ম্ ॥ ৩০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    উপ প্রাগাদিত্যস্য গোতম ঋষিঃ । বিদ্বাংসো দেবতাঃ । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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