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यजुर्वेद अध्याय - 25

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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 43
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    71

    मा त्वा॑ तपत् प्रि॒यऽआ॒त्मापि॒यन्तं॒ मा स्वधि॑तिस्त॒न्वऽआ ति॑ष्ठिपत्ते।मा ते॑ गृ॒ध्नुर॑विश॒स्ताति॒हाय॑ छि॒द्रा गात्रा॑ण्य॒सिना॒ मिथू॑ कः॥४३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा। त्वा॒। त॒प॒त्। प्रि॒यः। आ॒त्मा। अ॒पि॒यन्त॒मित्य॑पि॒ऽयन्त॑म्। मा। स्वधि॑ति॒रिति॒ स्वऽधि॑तिः। त॒न्वः᳖। आ। ति॒ष्ठि॒प॒त्। ति॒स्थि॒प॒दिति॑ तिस्थिपत्। ते॒। मा। ते॒। गृ॒ध्नुः। अ॒वि॒श॒स्तेत्य॑विऽश॒स्ता। अ॒ति॒हायेत्य॑ति॒हाय॑। छि॒द्रा। गात्रा॑णि। अ॒सिना॑। मिथू॑। क॒रिति॑ कः ॥४३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा त्वा तपत्प्रियऽआत्मापियन्तम्मा स्वधितिस्तन्वऽआ तिष्ठिपत्ते । मा ते गृध्नुरविशस्तातिहाय छिद्रा गात्राण्यसिना मिथू कः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मा। त्वा। तपत्। प्रियः। आत्मा। अपियन्तमित्यपिऽयन्तम्। मा। स्वधितिरिति स्वऽधितिः। तन्वः। आ। तिष्ठिपत्। तिस्थिपदिति तिस्थिपत्। ते। मा। ते। गृध्नुः। अविशस्तेत्यविऽशस्ता। अतिहायेत्यतिहाय। छिद्रा। गात्राणि। असिना। मिथू। करिति कः॥४३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 43
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैरात्मादयः कथं शोधनीया इत्याह॥

    अन्वयः

    हे विद्वँस्ते प्रिय आत्माऽपियन्तं त्वा त्वामतिहाय मा तपत्, स्वधितिस्ते तन्वो मा तिष्ठिपत्, ते छिद्रा गात्राण्यविशस्ता गृध्नुर्मा तिष्ठिपदसिना मिथू मा कः॥४३॥

    पदार्थः

    (मा) निषेधे (त्वा) त्वाम् (तपत्) तपेत् (प्रियः) यः प्रीणाति कामयत आनन्दयति वा (आत्मा) स्वस्वरूपम् (अपियन्तम्) योऽप्येति तम् (मा) (स्वधितिः) वज्रः (तन्वः) शरीरस्य मध्ये (आ) (तिष्ठिपत्) समन्तात् स्थापयेत् (ते) तव (मा) (ते) तव (गृध्नुः) अभिकांक्षकः (अविशस्ता) अविच्छेदकः (अतिहाय) अत्यन्तं त्यक्त्वा (छिद्रा) छिद्राणि (गात्राणि) अङ्गानि (असिना) खड्गेन (मिथू) मिथः (कः) कुर्यात्॥४३॥

    भावार्थः

    सर्वैर्मनुष्यैः स्व स्व आत्मा शोके न निपातनीयः, कस्याप्युपरि वज्रो न निपातनीयः, कस्याप्युपकारो न विच्छेदनीयश्च॥४३॥

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    विषयः

    पुनर्मनुष्यैरात्मादयः कथं शोधनीया इत्याह ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे विद्वँस्ते प्रिय आत्माऽपियन्तं त्वा त्वामतिहाय मा तपत्स्वधितिस्ते तन्वो मा तिष्ठिपत्ते छिद्रा गात्राण्यविशस्ता गृध्नुर्मा तिष्ठिपदसिना मिथु मा कः ॥ ४३ ॥ सपदार्थान्वयः--हे विद्वन् ! ते तव प्रियः यः प्रीणाति=कामयत आनन्दयति वा आत्मा=स्वस्वरूपम्, अपियन्तं योऽप्येति तं त्वा=त्वामतिहाय अत्यन्तं त्यक्त्वा मा न तपत् तपेत् । स्वधितिः वज्रः ते तव तन्वः शरीरस्य मध्ये मान आतिष्ठिपत् समन्तात्स्थापयेत् । ते तव छिद्रा छिद्राणि गात्राणि अङ्गानि अविशस्ताअविच्छेदक: गृध्नुः अभिकाङ्क्षक: मा न अतिष्ठिपत् समन्तात्स्थापयेत्, असिना खड्गेन मिथू मिथः कः कुर्यात् ॥ २५ । ४३ ॥

    पदार्थः

    (मा) निषेधे (त्वा) त्वाम् (तपत्) तपेत् (प्रियः) यः प्रीणाति=कामयत आनन्दयति वा (आत्मा) स्वस्वरूपम् (अपियन्तम्) योऽप्येति तम् (मा) (स्वधितिः) वज्रः (तन्व:) शरीरस्य मध्ये (आ) (तिष्ठिपत्) समन्तात्स्थापयेत् (ते) तव (मा) (ते) तव (गृध्नुः) अभिकांक्षक: (अविशस्ता) अविच्छेदक: (अतिहाय) अत्यन्तं त्यक्त्वा (छिद्रा) छिद्राणि (गात्राणि) अङ्गानि (असिना) खड्गेन (मिथू) मिथः (क) कुर्यात् ॥ ४३ ॥

    भावार्थः

    सर्वैर्मनुष्यैः स्वःस्व आत्मा शोके न निपातनीयः; कस्याप्युपरि वज्रो न निपातनीयः; कस्याप्युपकारो न विच्छेदनीयः ॥ २५ । ४३ ॥

    विशेषः

    गोतमः । आत्मा=स्वस्वरूपम् । निचृत्त्रिष्टुप् | धैवतः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर मनुष्यों को आत्मादि पदार्थ कैसे शुद्ध करने चाहियें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् (ते) आप का जो (प्रियः) प्रीति वा आनन्द देने वाला वह (आत्मा) अपना निज रूप आत्मतत्त्व भी (अपियन्तम्) निश्चय से प्राप्त होते हुए (त्वा) आप को (अतिहाय) अतीव छोड़ के (मा, तपत्) मत संताप को प्राप्त हो (स्वधितिः) वज्र (ते) आप के (तन्वः) शरीर के बीच (मा, आतिष्ठिपत्) मत स्थित करावे, आप के (छिद्रा) छिन्न-भिन्न (गात्राणि) अङ्गों को (अविशस्ता) विशेष न काटने और (गृध्नुः) चाहने वाला जन (मा) मत स्थित करावे तथा (असिना) तलवार से (मिथू) परस्पर मत (कः) चेष्टा करे॥४३॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को चाहिये कि अपने-अपने आत्मा को शोक में न डालें, किसी के ऊपर वज्र न छोड़ें और किसी का उपकार किया हुआ न नष्ट किया करें॥४३॥

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    विषय

    सेना आदि द्वारा राष्ट्रप्रजा को व्यर्थ न सताने का उपदेश । उत्तम मार्गों और उत्तम व्यवस्थाओं से राष्ट्र, राज्य और राजा की दीर्घायु | उत्तम पदों पर रथ में अश्व के समान उत्तम पुरुषों की नियुक्ति ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! हे राष्ट्र ! (प्रियः आत्मा) अपने देह और आत्मा के समान प्रिय पुरुष ( अपियन्तम् ) प्रयाण करते समय (त्वा) तुझको ( मा तपत् ) सन्तप्त न करे, तुझे शोकातुर न बनाये, तुझे पीड़ित न करे । (स्वधितिः) वज्र, तलवार या शस्त्रबल भी (ते तन्वः) तेरे शरीर के भागों पर ( मा आ आतिष्ठिपत् ) अपना अधिकार न करे । अर्थात् शस्त्रबल भी तुझे व्यर्थं न सतावे । (अविशस्ता) उत्तम शासक न होकर कोई (गृध्नुः) लालची महामात्य या राजा (ते छिद्राणि) तेरे भीतर विद्यमान त्रुटियों को (अतिहाय) छोड़कर ( मिथू ) व्यर्थ, झूठमूठ निष्प्रयोजन (ते गात्राणि) तेरे अंगों, राज्यांगों को (असिना) शस्त्रबल से (मा कः) मत काटे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आत्मा देवता । निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    फिर मनुष्यों को आत्मादि पदार्थ कैसे शुद्ध करने चाहिए, इस विषय का उपदेश किया है॥

    भाषार्थ

    हे विद्वान् ! (ते) तेरा (प्रियः) कामना करने योग्य अथवा आनन्ददायक (आत्मा)आत्मा=अपनास्वरूप– (अपियन्तम्) सर्वथा प्राप्त हुए (त्वा) तुझको (अतिहाय) छोड़कर (मा, तपत्) कष्ट न दे। (स्वधितिः) वज्र (ते) तेरे (तन्व:) शरीर के मध्य में (मा, आतिष्ठिपत्) स्थापित न हो । (ते) तेरे (छिद्रा) दोष-युक्त (गात्राणि) अंगों को--(अविशस्ता) न काटने वाले (गृध्नुः) लालची पुरुष (मा, अतिष्ठिपत्) स्थापित न करे, अपितु (असिना) तलवार से (मिथू) परस्पर (क:) छेदन करे ॥ २५ । ४३ ॥

    भावार्थ

    सब मनुष्य--अपने-अपने आत्मा को शोक में न डालें; किसी के ऊपर वज्रनिपात न करें, किसी के उपकार का विच्छेद न करें ॥ २५ । ४३ ॥

    भाष्यसार

    आत्मोन्नति के साधन--मनुष्यों को आत्मा की उन्नति के लिए आवश्यक है कि शोक का त्याग करें और दूसरों की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझें । परोपकार भी आत्मा की उन्नति में साधक होता है ॥ २५ । ४३ ॥

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    विषय

    जीवन का अन्तिम दिन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार जब आचार्य विद्यार्थी का ठीक से निर्माण करता है, तब यह अपना जीवन इतना सुन्दर बिताता है कि शरीर को छोड़ते हुए इसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता । वास्तविक ज्ञान को प्राप्त करने के कारण इसे शरीर में इतनी आसक्ति नहीं होती कि वह उसे छोड़ते हुए अपनी मृत्यु समझे। आत्मतत्त्व के धारण से वह शरीर की वास्तविक स्थिति को जानता है, इस शरीर में ही पड़े रहने का उसका आग्रह नहीं होता। मन्त्र में कहते हैं कि २. (अपियन्तम्) = इस शरीर को छोड़कर जाते हुए तुझको अथवा ब्रह्म के साथ मेल करते हुए (त्वा) = तुझे प्राण (मा तपत्) = सन्तप्त न करे। तुझे प्राणों से पृथक् होने का कोई सन्ताप न हो। तू इन प्राणों से सहर्ष विदाई ले सके। ३. (स्वधितिः) = आत्मतत्त्व का धारण, आत्मतत्त्व को समझना (ते) = तुझे (तन्वः) = शरीर का (मा आतिष्ठिपत्) = स्थापित करनेवाला न बनाये, अर्थात् शरीर के जाने से तू अपने को जाता हुआ न समझे। ४. परन्तु यह सब तभी होगा जब आचार्य ने तुझे प्रकृति-विज्ञान के साथ आत्मज्ञान को देने का प्रयत्न किया होगा, इसी प्रयत्न में उसने तुझे कभी-कभी दण्ड भी दिया होगा ['पाष्य वा कशया वा तुतोद ' ] परन्तु इसके विपरीत यदि आचार्य लोभवश हुआ और उत्तमता से दोषों को दूर करनेवाला न हुआ तब तो तेरे जीवन के अन्तिम दिन का दृश्य इससे विपरीत होगा। तू मृत्यु से घबरा रहा होगा और तुझे देह से पृथक् होने में आत्मविनाश की प्रतीति हो रही होगी, अतः मन्त्र में कहते हैं कि (गृध्नुः) = धन के विषय में लोभवाला अविशस्ता उत्तम उपदेशों द्वारा दोषों का छेदन न करनेवाला, अर्थात् उत्तम उपदेश न देनेवाला कोई आचार्य (छिद्राणि अतिहाय) = दोषों को छोड़कर, अर्थात् बिना ही दोषों के (मिथू) = यों ही झूठ-मूठ गात्राणि - तेरे अङ्गों को (असिना कः) = तलवार से छिन्न न करे [ अन्यथा मा छिदत् -म० ] अर्थात् तुझे सदा वह ज्ञानादि की उन्नति के लिए उचित दण्ड देनेवाला हो। तुझसे धन लेने के लिए तुझे यूँ ही दण्डित न करे।

    भावार्थ

    भावार्थ - आचार्य से ज्ञान प्राप्त करके हम अपने स्वरूप को समझें। जीवन के अन्तिम दिन प्राणों से वियोग हमें पीड़ित करनेवाला न हो। यह होगा तब यदि अपने ब्रह्मचर्यकाल में हमें अलोभी, उचित दण्ड व ज्ञान-प्रदान से दोषों को दूर करनेवाला आचार्य प्राप्त होगा ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सर्व माणसांनी आपापल्या आत्म्याला शोकातूर करू नये. कुणावरही वज्र सोडू नये. एखाद्याने उपकार केल्यास कृतघ्न बनू नये.

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    विषय

    मनुष्यांनी आत्मा आदी पदार्थांचे शुद्धीकरण कसे करावे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वान, (ते) आपला (प्रियः) सर्वांना प्रेम आणि आनंद देणारा आणि (स्वतः प्रसन्न राहणारा) जे (आत्मा) स्वरूप आत्मतत्त्व आहे, ते (अपियन्तम्) तुम्हाला निश्‍चयाने प्राप्त राहो (तुम्ही सदैव उत्साही व क्रियाशील रहा) आत्मतत्त्वाची ती अनुभूती (त्वा) तुम्हाला (अतिज्ञव) सोडून (मा, तपत्) जाऊ नये, तुम्हांला स्वरूपाकडून कोणता ताप, संताप असूं नये. (स्वधिति). वज्र (वा तत्सम शस्त्रादी (ते) तुमच्या (तन्वः) शरीराच्या मधे (मा, तिष्ठिपत्) प्रविष्ट होऊ नये (तुमचे शरीर प्रहार, ठेच आदीपासून दूर रहावे, (अशी आमची कामना आहे) आपले (छिद्राः) छिन्न-भिन्न (गात्राणि) अंग (अविशस्त्र) कधी कापण्याच्या स्थितीत येऊ नये. कोणी (गृध्नुः) तशी इच्छा करणारा तुमचा शत्रू (मा) तशा प्रयत्नात यशस्वी होऊ नये. तसेच कोणी असिधारी शत्रू तुम्हास (असिना) तलपारीने (मिथू) अकस्मात् वा असावधान दशेत (कः) प्रहार करू नये. ॥43॥

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रत्येक मनुष्याने स्वतःच्या आत्म्यास शोक व निराशेच्या गर्तेत ढकलूं नये. कोणावर वज्र वा शास्त्रप्रहार करू नये, तसेच कोणी उपकारकर्ता असेल, तर त्याचे उपकार विसरू नये. (शास्त्र तेंव्हा त्यावर ही आपण स्वतः उपकार करून परतफेड करावी) ॥43।

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Let not thy God-loving soul torment thee, as it departs from thy body. Let not the hatchet linger in thy body. Let not a greedy, clumsy immolator, cut unduly with sword thy vulnerable limbs.

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    Meaning

    While you are on your way up in life, may your dear soul not forsake you, nor torment you. May no tempered steel fix itself in your person, nor your own power arrest you. Nor must the covetous pervert mutilate your limbs, nor tear your body asunder with the sword, for no cause or weakness whatsoever.

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    Translation

    Let not your precious body grieve you, O victory horse, for you will be healthy very soon. Let not the fear of surgical knives linger in your body. May you not be treated by greedy and unskilled surgeons, giving undue pain to your limbs with their knives. (1)

    Notes

    Apiyantam, as you come. Or, as you go to heaven (Uvata). Grdhnuḥ, greedy; लुब्ध:I

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্মনুষ্যৈরাত্মাদয়ঃ কথং শোধনীয়া ইত্যাহ ॥
    পুনঃ মনুষ্যদিগকে আত্মাদি পদার্থ কীভাবে শুদ্ধ করা উচিত এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে বিদ্বান্ (তে) আপনার যে (প্রিয়ঃ) প্রীতি বা আনন্দদায়ক সেই (আত্মা) স্বরূপ আত্মতত্ত্বও (অপিয়ন্তম্) নিশ্চয় পূর্বক প্রাপ্ত হইয়া (ত্বা) আপনাকে (অতিহায়) অত্যন্ত ত্যাগ করিয়া (মা, তপৎ) সন্তাপকে প্রাপ্ত হয় না (স্বধিতিঃ) বজ্র (তে) আপনার (তন্বঃ) শরীরের মধ্যে (মা, আতিষ্ঠিপৎ) স্থিত করাইবে না আপনার (ছিদ্রা) ছিন্ন-ভিন্ন (গাত্রাণি) অঙ্গসকলকে (অবিশস্তা) অবিচ্ছেদক এবং (গৃধুঃ) কাঙ্ক্ষিত ব্যক্তি (মা) স্থিত করাইবে না তথা (অসিনা) তলোয়ার দ্বারা (মিথূ) পরস্পর না (কঃ) চেষ্টা করিবে ॥ ৪৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–সকল মনুষ্যদিগের উচিত যে, নিজ নিজ আত্মাকে শোকে মগ্ন করিবে না, কাহারও উপর বজ্র ত্যাগ করিবে না এবং কাহারও উপকার নষ্ট করিবে না ॥ ৪৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    মা ত্বা॑ তপৎ প্রি॒য়ऽআ॒ত্মাপি॒য়ন্তং॒ মা স্বধি॑তিস্ত॒ন্ব᳕ऽআ তি॑ষ্ঠিপত্তে ।
    মা তে॑ গৃ॒ধ্নুর॑বিশ॒স্তাতি॒হায়॑ ছি॒দ্রা গাত্রা॑ণ্য॒সিনা॒ মিথূ॑ কঃ ॥ ৪৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    মা ত্বেত্যস্য গোতম ঋষিঃ । আত্মা দেবতা । নিচৃৎ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ।

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