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यजुर्वेद अध्याय - 25

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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 10
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - हिरण्यगर्भो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    231

    हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ऽआसीत्। स दा॑धार पृथि॒वीं द्यामु॒तेमां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भ इति॑ हिरण्यऽग॒र्भः। सम्। अ॒व॒र्त्त॒त॒। अग्रे॑। भू॒तस्य॑। जा॒तः। पतिः॑। एकः॑। आ॒सी॒त्। सः। दा॒धा॒र॒। पृ॒थि॒वीम्। द्याम्। उ॒त। इ॒माम्। कस्मै॑। दे॒वाय॑। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒ ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकऽआसीत् । स दाधार पृथिवीन्द्यामुतेमाङ्कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यगर्भ इति हिरण्यऽगर्भः। सम्। अवर्त्तत। अग्रे। भूतस्य। जातः। पतिः। एकः। आसीत्। सः। दाधार। पृथिवीम्। द्याम्। उत। इमाम्। कस्मै। देवाय। हविषा। विधेम॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 10
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ परमात्मा कीदृशोऽस्तीत्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यथा वयं यो हिरण्यगर्भो जातो जातस्य भूतस्यैकोऽग्रे पतिरासीत् सर्वप्रकाशेऽवर्त्तत स पृथिवीमुत द्यां संदाधार। य इमां सृष्टिं कृतवाँस्तस्मै कस्मै देवाय परमेश्वराय हविषा विधेम तथा यूयमपि विधत्त॥१०॥

    पदार्थः

    (हिरण्यगर्भः) हिरण्यानि सूर्यादितेजांसि गर्भे यस्य स परमात्मा (सम्) (अवर्त्तत) वर्त्तमान आसीत् (अग्रे) भूम्यादिसृष्टेः प्राक् (भूतस्य) उत्पन्नस्य (जातः) प्रादूर्भूतस्य। अत्र षष्ठ्यर्थे प्रथमा। (पतिः) पालकः (एकः) असहायः (आसीत्) अस्ति (सः) (दाधार) धरति (पृथिवीम्) आकर्षणेन भूमिम् (द्याम्) प्रकाशम् (उत) अपि (इमाम्) सृष्टिम् (कस्मै) सुखकारकाय (देवाय) द्योतमानाय (हविषा) होतव्येन पदार्थेन (विधेम) परिचरेम॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः! येन परमेश्वरेण सूर्यादि सर्वं जगन्निर्मितं स्वसामर्थ्येन धृतं च तस्यैवोपासनां कुरुत॥१०॥

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    विषयः

    अथ परमात्मा कीदृशोऽस्तीत्याह ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे मनुष्या यथा वयं यो हिरण्यगर्भो जातो जातस्य भूतस्यैकोऽग्रे पतिरासीत्सर्वप्रकाशोऽवर्त्तत स पृथिवीमुत द्यां सदाधार । य इमां सृष्टिं कृतवाँस्तस्मै कस्मै देवाय परमेश्वराय हविषा विधेम तथा यूयमपि विधत्त ॥ १० ॥ सपदार्थान्वयः--हे मनुष्याः ! यथा वयं--यो हिरण्यगर्भः हिरण्यानि=सूर्यादितेजांसि गर्भे यस्य स परमात्मा जातो=जातस्य प्रादुर्भूतस्य भूतस्य उत्पन्नस्य एकः असहायः अग्रे भूम्यादिसृष्टे: प्राक् पतिः पालकः आसीत् अस्ति, सर्वप्रकाशोऽवर्त्तत वर्त्तमान आसीत्, स पृथिवीम् आकर्षणेन भूमिम् उत अपि द्यां प्रकाशं सदाधार धरति । ये इमां=सृष्टिं कृतवाँस्तस्मै कस्मै सुखकारकाय देवाय=परमेश्वराय द्योतमानाय हविषा होतव्येन पदार्थेन विधेम परिचरेम; तथा यूयमपि विधत्त॥२५।१०॥

    पदार्थः

    (हिरण्यगर्भः) हिरण्यानि=सूर्यादितेजांसि गर्भे यस्य स परमात्मा (सम्) (अवर्त्तत) वर्तमान आसीत् (अग्रे) भूम्यादिसृष्टे: प्राक् (भूतस्य) उत्पन्नस्य (जातः) प्रादुर्भूतस्य । अत्र षष्ठ्यर्थे प्रथमा । (पतिः) पालक: (एक:) असहाय: (आसीत्) अस्ति (सः) (दाधार) धरति (पृथिवीम्) आकर्षणेन भूमिम् (द्याम्) प्रकाशम (उत) अपि (इमाम्) सृष्टिम् (कस्मै) सुखकारकाय (देवाय) द्योतमानाय (हविषा) होतव्येन पदार्थेन (विधेम) परिचरेम ॥ १० ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्याः ! येन परमेश्वरेण सूर्यादिसर्वं जगन्निर्मितं स्वसामर्थ्येन धृतं च, तस्यैवोपासनांकुरुत ॥ २५ । १० ॥

    विशेषः

    प्रजापतिः । हिरण्यगर्भः=परमात्मा। त्रिष्टुप् | धैवतः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब परमात्मा कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जैसे हम लोग जो (हिरण्यगर्भः) सूर्यादि तेज वाले पदार्थ जिसके भीतर हैं, वह परमात्मा (जातः) प्रादुर्भूत और (भूतस्य) उत्पन्न हुए जगत् का (एकः) असहाय एक (अग्रे) भूमि आदि सृष्टि से पहिले भी (पतिः) पालन करने हारा (आसीत्) है और सब का प्रकाश करने वाला (अवर्त्तत) वर्त्तमान हुआ (सः) वह (पृथिवीम्) अपनी आकर्षण शक्ति से पृथिवी (उत) और (द्याम्) प्रकाश को (सम् दाधार) अच्छे प्रकार धारण करता है तथा जो (इमाम्) इस सृष्टि को बनाता हुआ अर्थात् जिसने सृष्टि की उस (कस्मै) सुख करने हारे (देवाय) प्रकाशमान परमात्मा के लिये (हविषा) होम करने योग्य पदार्थ से (विधेम) सेवन का विधान करें, वैसे तुम लोग भी सेवन का विधान करो॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जिस परमात्मा ने अपने सामर्थ्य से सूर्य आदि समस्त जगत् को बनाया और धारण किया है, उसी की उपासना किया करो॥१०॥

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    विषय

    प्रजापति का वर्णन।परमेश्वर की उपासना ।

    भावार्थ

    व्याख्या ( १० ) की देखो अ० २३ । १मन्त्र मे ॥

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    विषय

    अब परमात्मा कैसा है, इस विषय का उपदेश किया जाता है॥

    भाषार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे तुम--जो (हिरण्यगर्भः) हिरण्य=सूर्य आदि तेजोमय पदार्थ जिसके गर्भ में हैं, वह परमात्मा (जातः) प्रकट एवं (भूतस्य) उत्पन्न जगत् का (एक:) एक (अग्रे) भूमि आदि सृष्टि से पूर्व (पतिः) पालक (आसीत्) है, एवं सबका प्रकाशक (अवर्त्तत) विद्यमान था; (सः) वह (पृथिवीम्) आकर्षण से भूमि को (उत)और (द्याम्) प्रकाश को (दाधार) धारण कर रहा है। जिसने (इमाम्) इस सृष्टि को बनाया है उस (कस्मै) सुखकारक (देवाय) प्रकाशमान परमेश्वर के लिए (हविषा) होम योग्य पदार्थ से (विधेम) परिचर्या=सेवा करते हैं; वैसे तुम भी करो ॥१० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलंकार है। हे मनुष्यो ! जिस परमेश्वर ने सूर्य आदि सब जगत् को बनाया और अपने सामर्थ्य से धारण किया है उसकी ही उपासना करो ॥ १० ॥

    भाष्यसार

    परमात्मा कैसा है—जो परमात्मा सूर्य आदि तेजस्वी पदार्थों को अपने गर्भ में रखने वाला है, इस उत्पन्न जगत् का भूमि आदि की सृष्टि से पूर्व भी पति=पालक है, सब पदार्थों का प्रकाशक है, वही इस भूमि को तथा द्यौ=(प्रकाश) को आकर्षण शक्ति से धारण कर रहा है। जिस परमेश्वर ने इस सृष्टि अर्थात् सूर्य आदि सब जगत् को रचा है और अपने सामर्थ्य से धारण किया है उस सुखस्वरूप, प्रकाशमान परमेश्वर की सब मनुष्य होम के योग्य पदार्थों से सेवा करें; उसी कीउपासना करें। २. अलङ्कार– इस मन्त्र में उपमा-वाचक 'इव' आदि पद लुप्त है अतः वाचकलुप्तोपमा अलंकार है। उपमा यह है कि विद्वानों के समान सब मनुष्य सृष्टि कर्त्ता परमात्मा की उपासना करें ॥ २५ । १० ॥

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    विषय

    उपासना

    पदार्थ

    १. (हिरण्यगर्भः) = 'हिरण्यं वै ज्योतिः' सम्पूर्ण ज्योति जिनके गर्भ में हैं, वे प्रभु अथवा आदित्य आदि ज्योतिर्मय पिण्डों को गर्भ में धारण करनेवाले प्रभु अग्रे इस सृष्टि के बनने से पहले ही (समवर्त्तत) = थे। वे प्रभु कभी सृष्ट नहीं हुए, बने नहीं । वे स्वयम्भू हैं, खुदा हैं। २. (जातः) = सदा से प्रादुर्भूत हुए वे प्रभु (भूतस्य) = इस सृष्टि के मौलिक कारणभूत 'पृथिवी, जल, तेज, वायु व आकाश' नामक पञ्च भूतों के तथा प्राणिमात्र के (एकः पतिः) = मुख्य तथा अकेले ही रक्षक (आसीत्) = हैं। इन सबका रक्षण प्रभु पर ही आश्रित है। इस रक्षणरूप कार्य में वे प्रभु किसी अन्य की सहायता की अपेक्षा नहीं करते। ३. (सः) = वे प्रभु ही (पृथिवीम्) = इस विस्तृत अन्तरिक्षलोक को (द्याम्) = द्युलोक को (उत) = और (इमम्) = इस पृथिवी को (दाधार) = धारण कर रहे हैं। इस लोकत्रयी को धारण करने के कारण ही वे 'त्रिविक्रम' कहलाते हैं । ४. सबका धारण करने के कारण कस्मै उस आनन्दस्वरूप देवाय सब सुखों को देनेवाले के लिए हविषा दानपूर्वक अदन के द्वारा (विधेम) = हम पूजा करते हैं। उस सब-कुछ देनेवाले प्रभु की अर्चना देकर खाने से ही तो हो सकती है। यह देकर खानेवाला व्यक्ति सदा यज्ञशेष का सेवक व्यक्ति प्रजा की रक्षा करनेवाला होने से 'प्रजापति' कहलाता है । यही इस मन्त्र का ऋषि है।

    भावार्थ

    भावार्थ-वे हिरण्यगर्भ प्रभु सदा से हैं, सबके अद्वितीय रक्षक हैं- त्रिलोकी का धारण कर रहे हैं। हम उस आनन्दस्वरूप, सर्वप्रद व ज्योतिर्मय प्रभु की ही उपासना करें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! ज्या परमेश्वराने आपल्या सामर्थ्याने सूर्य इत्यादी संपूर्ण जगाला उत्पन्न केलेले आहे व धारण केलेले आहे त्याचीच उपासना करा.

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    विषय

    आता तो परमेश्‍वर कसा आहे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, (हिरण्यगर्भः) सूर्यादी सर्व तेजोमय पदार्थ ज्यात अंतर्भूत आहेत, तो परमात्मा (जातः) विद्यमान वा जन्मलेल्या आणि (भूतस्य) उत्पन्न झालेल्या सर्व जगाचा (एकः) एकमेव आणि स्वयंसमर्थ असा स्वामी असून (अग्ने) भूमी आदी लोकांच्या रचने पूर्वी सृष्टीपूर्वी (पतिः) त्या सृष्टीचा पालक (आसीत्) होता व आहे. (सः) तोच (पृथिवीम्) आपल्या आकर्षण शक्तीने पृथवीचे (उत) आणि (द्याम्) प्रकाश-लोकाचे (सम्, दाधार) उत्तमप्रकारे धारण करतो. तोच (इमाम्) या सृष्टीचा निर्मात्याला (कस्मै) जो सर्वथा सुख देणारा आहे, त्या (देवाय) तेजोमय ज्योतिर्मय परमेश्‍वराचा, हे मनुष्यानो, ज्याप्रमाणे आम्ही (ज्येष्ठ उपासक विद्वान)(हविषा) होम करण्यास योग्य अशा पदार्थांनी (विधेम) विधान वा आयोजन करतो, त्याप्रमाणे तुम्हीही त्याची हवीद्वारे उपासना करा. ॥ भक्तिभावाने त्याची उपासना करा)॥10॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. हे मनुष्यानो, ज्या परमेश्‍वराने या सूर्य आदी समस्त पदार्थांची आणि सृष्टीची रचना आपल्या अनंत सामर्थ्याने केली आहे, आणि जो एकटाच सर्व सृष्टीला धारण करीत आहे, तुम्ही त्याचीच उपासना करा अन्य कोणाची नको ॥10॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    God, the possessor of resplendent planets, existed before the creation of the world. He is the One Lord of all created beings. He sustains the Earth, the Sun and the created world. May we worship with devotion, Him, the Illuminator and Giver of pleasure.

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    Meaning

    The Great Golden Womb of the brilliant forms of existence, sole lord of the universe, existed by Himself long before the world was born. He it is who holds this earth and Heaven. To Him we offer our homage and worship in libations of praise in words and deeds in truth.

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    Translation

    Before all, the Lord having all the bright constellations in His womb, existed everywhere. He was the only Lord of everything born. He holds this earth as well as the heaven. To that great God we offer our oblations. (1)

    Notes

    Hiranyagarbhaḥ, one that holds all the bright con stellations in His womb. Also, an egg, that holds gold coloured matter within it. Hence the imagination, that in the beginning there was a cosmic egg, that held whole of this universe within it (Brahmānḍa).

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ পরমাত্মা কীদৃশোऽস্তীত্যাহ ॥
    এখন পরমাত্মা কেমন এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন আমরা যে (হিরণ্যগর্ভঃ) সূর্য্যাদি তেজ যুক্ত পদার্থ যাহার ভিতর সে পরমাত্মা (জাতঃ) প্রাদুর্ভূত এবং (ভূতস্য) উৎপন্ন জগতের (একঃ) সহায়হীন এক (অগ্রে) ভূমি আদি সৃষ্টি হইতে প্রথমেও (পতিঃ) পালক (আসীৎ) এবং সকলের প্রকাশক (অবর্ত্তত) বর্ত্তমান (সঃ) সে (পৃথিবীম্) নিজ আকর্ষণ শক্তি বলে পৃথিবী (উত) এবং (দ্যাম) প্রকাশকে (সম্ দাধার) উত্তম প্রকার ধারণ করে তথা যে (ইমাম্) এই সৃষ্টিকে নির্মাণ করিয়া অর্থাৎ যিনি সৃষ্টি করিয়াছেন সেই (কস্মৈ) সুখদায়ক (দেবায়) প্রকাশমান পরমাত্মার জন্য (হবিষা) হোম করিবার যোগ্য পদার্থ দ্বারা (বিধেম) সেবনের বিধান করে সেইরূপ তোমরাও সেবনের বিধান কর ॥ ১০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ! যে পরমাত্মা নিজ সামর্থ্য বলে সূর্য্যাদি সমস্ত জগৎ নির্মাণ করিয়াছেন এবং ধারণ করিয়াছেন তাহারই উপাসনা করিতে থাক ॥ ১০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    হি॒র॒ণ্য॒গ॒র্ভঃ সম॑বর্ত্ত॒তাগ্রে॑ ভূ॒তস্য॑ জা॒তঃ পতি॒রেক॑ऽআসীৎ ।
    স দা॑ধার পৃথি॒বীং দ্যামু॒তেমাং কস্মৈ॑ দে॒বায়॑ হ॒বিষা॑ বিধেম ॥ ১০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    হিরণ্যগর্ভ ইত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । হিরণ্যগর্ভো দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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