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यजुर्वेद अध्याय - 25

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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 47
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - शक्वरी स्वरः - धैवतः
    80

    अग्ने॒ त्वं नो॒ऽ अन्त॑मऽउ॒त त्रा॒ता शि॒वो भ॑वा वरू॒थ्यः।वसु॑र॒ग्निर्वसु॑श्रवा॒ऽअच्छा॑ नक्षि द्यु॒मत्त॑मꣳ र॒यिं दाः॑॥४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। त्वम्। नः॒। अन्त॑मः। उ॒त। त्रा॒ता। शि॒वः। भ॒व॒। व॒रु॒थ्यः᳖। वसुः॑। अ॒ग्निः। वसु॑श्रवा॒ इति॒ वसु॑ऽश्रवाः। अच्छ॑। न॒क्षि॒। द्यु॒मत्त॑म॒मिति॑ द्यु॒मत्ऽत॑मम्। र॒यिम्। दाः॒ ॥४७ ॥ तम्। त्वा॒। शो॒चि॒ष्ठ॒। दी॒दि॒व॒ इति॑ दीदिऽवः। सु॒म्नाय॑। नू॒नम्। ई॒म॒हे॒। सखि॑भ्य इति॒ सखिऽभ्यः। सः। नः॒। बो॒धि॒। श्रु॒धी। हव॑म्। उ॒रु॒ष्य। नः॒। अ॒घा॒य॒तः। अ॒घ॒य॒त इत्य॑घऽय॒तः। सम॑स्मात्॥४८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने त्वन्नोऽअन्तमऽउत त्राता शिवो भव वरूथ्यः । वसुरग्निर्वसुश्रवाऽअच्छा नक्षि द्युमत्तमँ रयिन्दाः । तन्त्वा शोचिष्ठ दीदिवः सुम्नाय नूनमीमहे सखिभ्यः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। त्वम्। नः। अन्तमः। उत। त्राता। शिवः। भव। वरुथ्यः। वसुः। अग्निः। वसुश्रवा इति वसुऽश्रवाः। अच्छ। नक्षि। द्युमत्तममिति द्युमत्ऽतमम्। रयिम्। दाः॥४७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 47
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनः के सत्कर्त्तव्याः सन्तीत्याह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! त्वमग्निरिव नोऽन्तमस्त्राता शिव उत वरूथ्यो वसुश्रवा वसुर्भव। यो द्युमत्तमं रयिमस्मभ्यमच्छ दाः। अस्मान्नक्षि स त्वमस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि॥४७॥

    पदार्थः

    (अग्ने) वेदविदध्यापकोपदेशक (त्वम्) (नः) अस्माकम् (अन्तमः) निकटस्थः (उत) अपि (त्राता) पालकः (शिवः) कल्याणकारी (भव) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः [अ॰६.३.१३५] इति दीर्घः। (वरूथ्यः) वरूथेषु गृहेषु साधुः (वसुः) विद्यासु वासयिता (अग्निः) पावक इव (वसुश्रवाः) वसूनि धनानि श्रवणे यस्य सः (अच्छ) अत्र निपातस्य च [अ॰६.३.१३६] इति दीर्घः। (नक्षि) प्राप्नोषि। णक्षधातोरयं प्रयोगः। (द्युमत्तमम्) अतिशयेन प्रकाशवन्तम् (रयिम्) धनम् (दाः) दद्याः॥४७॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः सर्वोपकारिणो वेदादिशास्त्रवेत्तारोऽध्यापकोपदेशका विद्वांसः सदैव सत्कर्त्तव्याः। ते च सत्कृताः सन्तः सर्वेभ्यः सदुपदेशाद्युत्तमगुणान् धनादिकं च सदा प्रयच्छेयुः। येन परस्परस्य प्रीत्युपकारेण महान् सुखलाभः स्यादिति॥४७॥

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    विषयः

    पुनः के सत्कर्त्तव्याः सन्तीत्याह ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे अग्ने त्वमग्निरिव नोऽन्तमस्त्राता शिव उत वरूथ्यो वसुश्रवा वसुर्भव। यो द्युमत्तमं रयिमस्मभ्यमच्छ दाः । अस्मान्नक्षि स त्वमस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि ॥ ४७ ॥ सपदार्थान्वयः--हे अग्ने वेदविदध्यापकोपदेशक ! त्वमग्निः पावकः इव, नः अस्माकम् अन्तमः निकटस्थः, त्राता पालकः, शिवः कल्याणकारी, उत अपि वरूथ्यः वरूथेषु=गृहेषु साधुः, वसुश्रवाः वसूनि=धनानि श्रवणे यस्य सः, वसुः विद्यासु वासयिता भव । यो द्युमत्तमम् अतिशयेन प्रकाशवन्तं रयिं धनम् अस्मभ्यमच्छ दाः दद्याः, अस्मान्नक्षि प्राप्नोषि, स त्वमस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि॥ २५ । ४७ ॥

    पदार्थः

    (अग्ने) वेदविदध्यापकोपदेशक (त्वम्) (नः) अस्माकम् (अन्तमः) निकटस्थ: (उत) अपि (त्राता) पालक: (शिवः) कल्याणकारी (भव) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः । (वरूथ्यः) वरूथेषु=गृहेषु साधुः (वसुः) विद्यासु वासयिता (अग्निः) पावक इव (वसुश्रवाः) वसूनि=धनानि श्रवणे यस्य सः (अच्छ) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नक्षि) प्राप्नोषि। णक्षधातोरयं प्रयोगः । (द्युमत्तमम्) अतिशयेन प्रकाशवन्तम् (रयिम्) धनम् (दाः) दद्या: ॥ ४७ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः सर्वोपकारिणो वेदादिशास्त्रवेत्तारोऽध्यापकोपदेशका सदैव विद्वांसः सत्कर्त्तव्याः । ते च सत्कृताः सन्तः सर्वेभ्यः सदुपदेशाद्युत्तमगुणान् धनादिकं च सदा प्रयच्छेयुः । येन परस्परस्य प्रीत्युपकारेण महान् सुखलाभः स्यादिति ॥ २५ । ४७ ॥

    भावार्थ पदार्थः

    द्युमत्तमम्=सदुपदेशाद्युत्तमगुणम् ।

    विशेषः

    गोतम: । अग्निः=वेदविद् विद्वान् । शक्वरी । धैवतः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर कौन सत्कार करने योग्य हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) वेदवेत्ता पढ़ाने और उपदेश करने हारे विद्वान्! आप (अग्निः) अग्नि के समान (नः) हम लोगों के (अन्तमः) समीपस्थ (त्राता) रक्षा करने वाले (शिवः) कल्याणकारी (उत) और (वरूथ्यः) घरों में उत्तम (वसुश्रवाः) जिन के श्रवण में बहुत धन और (वसुः) विद्याओं में वसाने हारे हो, ऐसे (भव) हूजिये जो (द्युमत्तमम्) अतीव प्रकाशवान् (रयिम्) धन हम लोगों के लिये (अच्छ, दाः) भलीभांति देओ तथा हम को (नक्षि) प्राप्त होते हो सो (त्वम्) आप हम लोगों से सत्कार पाने योग्य हो॥४७॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि सब के उपकारी वेदादि शास्त्रों के ज्ञाता, अध्यापक, उपदेशक, विद्वानों का सदैव सत्कार करें और वे सत्कार को प्राप्त हुए विद्वान् लोग भी सब के लिये उत्तम उपदेशादि अच्छे गुणों और धनादि पदार्थों को सदा देवें, जिससे परस्पर प्रीति और उपकार से बड़े-बड़े सुखों का लाभ होवे॥४७॥

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    विषय

    राजा को प्रजाप्रिय और तेजस्वी होने का उपदेश।

    भावार्थ

    इसकी व्याख्या देखो अ० ३ । ३५ ॥

    टिप्पणी

    बहुत्र 'सखिभ्यः' इत्यन्तो मन्त्रः । ‘स नो बोधि०' इत्यादि चरणद्वयं अ० ३ । २६ । इत्यस्योत्तरार्धभागः ॥

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    विषय

    फिर कौन सत्कार करने योग्य हैं, इस विषय का उपदेश किया है॥

    भाषार्थ

    हे (अग्ने) वेद के ज्ञाता अध्यापक और उपदेशक ! तू (अग्नि:) अग्नि के समान (न:) हमारे (अन्तम:) निकट रहने वाला, (त्राता) पालक, (शिवः) कल्याणकारी (उत) और (वरूथ्य:) घरों में श्रेष्ठ व्यवहार करने वाला, (वसुश्रवाः) धनों को सुनने वाला और (वसु:) विद्याओं में वास कराने वाला हो । जो तू(द्युमत्तमम्) अत्यन्त प्रकाश से युक्त (रयिम्) धन हमें (अच्छ) अच्छे प्रकार (दाः) देता है, हमें तू (नक्षि) प्राप्त होता है; सो तू हमारे लिए सत्कार के योग्य है ॥ २५ । ४७ ॥

    भावार्थ

    मनुष्य सबके उपकारक वेदादि शास्त्रों के ज्ञाता अध्यापक, उपदेशक, विद्वान् लोगों का सदैव सत्कार करें और वे सत्कार को प्राप्त होकर सबको सदुपदेश आदि उत्तम गुण और धन आदि सदा प्रदान करें। जिससे परस्पर के प्रीतिपूर्वक उपकार से महान् सुख-लाभ हो । २५ । ४७ ॥

    भाष्यसार

    कौन सत्कार के योग्य हैं--वेद के ज्ञाता अध्यापक और उपदेशक अग्नि के समान मनुष्यों के समीप रहें, सब के पालक, कल्याणकारी, घरों में श्रेष्ठ व्यवहार करने वाले, धनों को सुनने वाले, विद्याओं में वास कराने वाले हों। सब मनुष्य उनका सदा सत्कार करें । वे सत्कार को प्राप्त होकर सबको सदुपदेश आदि एवं उत्तम गुण और धन आदि सदा प्रदान करें। इस प्रकार परस्पर प्रीतिपूर्वक उपकार से महान् सुख को प्राप्त करें ॥ २५ । ४७ ॥

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    विषय

    'गोतम' की प्रार्थना

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार अपने लोक को स्वर्ग बनाने की कामनावाला प्रभु से प्रार्थना करता है - हे (अग्ने) = हमारी सब उन्नतियों के साधक प्रभो ! (त्वम्) = आप (नः) = हमारे (अन्तमः) = अधिक-से-अधिक समीप हो (उत) = और (त्राता) = हमें रोगों व वासनाओं से रक्षित करनेवाले हो। इस प्रकार (शिवः भव) = आप हमारे लिए कल्याणकारी होते हो। (वरूथ्यः) = [वरूथ आच्छादन] आप हमारे उत्तम आच्छादन व गृह हो अथवा आप ही हमें उत्तम धन देनेवाले हो [वरूथ=wealth]। २. (वसुः) = आपकी कृपा से हमारा निवास उत्तम होता है, (अग्निः) = आप हमारी सब उन्नतियों को सिद्ध करते हैं। वसुश्रवा आप ही निवास के लिए आवश्यक धन व ज्ञान देनेवाले हैं। ३. (अच्छ नक्षि) = आप हमारी ओर आते हैं [नक्ष गतौ ] यह कितनी सौभाग्य की बात है कि [You knock at our door] आप हमारे दरवाज़े को थपथपाते हैं और यदि हम उस ब्रह्ममुहूर्त में सोये ही नहीं रह जाते, अपितु उठकर दरवाज़ा खोलते हैं तो आप (द्युमत्तमं रयिं दाः) = हमें अत्यन्त दीप्तियुक्त धन देते हैं, अर्थात् आपकी कृपा से हमें वह धन प्राप्त होता है, जिस धन के साथ ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञान का निवास है। हे (शोचिष्ठ) = हमारे हृदयों को अधिक-से-अधिक शुचि बनानेवाले ! (दीदिव:) = हमारे मस्तिष्कों को ज्ञान से दीप्त करनेवाले प्रभो! (तं त्वा) = उस आपको (नूनम्) = निश्चय से (सुम्नाय) = सुख के लिए अथवा (सुम्न) = Hymn स्तोत्रों के लिए ईमहे याचना करते हैं। हम यह चाहते हैं कि हमारा जीवन सदा आपके स्तवन से युक्त हो, और साथ ही (सखिभ्यः) = समान ज्ञानवाले मित्रों के लिए पार्थना करते हैं, आपकी कृपा से हमें ज्ञानी मित्र मिलते रहे, जिससे हम इस संसार - यात्रा में कभी फिसल न जाएँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे समीपतम मित्र हैं। प्रभु हमारे समीप आते हैं और यदि हम प्रभु के स्वागत के लिए उद्यत होते हैं तो ज्योतिर्मय धन को प्राप्त करनेवाले बनते हैं। हम प्रभुस्तवन की वृत्तिवाले बनें और ज्ञानी मित्रों को प्राप्त करें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी सर्वांवर उपकार करणारे वेद शास्राचे ज्ञाते, अध्यापक, उपदेशक, विद्वान यांचा सदैव सन्मान करावा व विद्वानांनीही सर्वांना उत्तम उपदेश करून चांगले गुण व ज्ञानरूपी धन इत्यादी पदार्थ सदा द्यावेत. ज्यामुळे परस्परात प्रेम वाढेल व उपकार घडेल व महान सुख प्राप्त होईल.

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    विषय

    कोणाचा सत्कार करावा अथवा कोण सत्कार करण्यास पात्र आहे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अग्ने) वेदविद, वेदोपदेशक विद्वान, आपण (अग्निः) अग्नीप्रमाण (नः) आम्हा (सामाजिकजनांचे) (अन्तमः) समीपस्थ सहायक, (त्राता) रक्षक (शिवः) कल्याणकृत् आहात. आपण आम्हाला (वरूथ्यः) उत्तम घरांमधे (वसुश्रवाः) स्थिर निवास आणि स्थायी धन देऊन (वसुः) विद्याक्षेत्रात स्थापित करणारे (भव) व्हा. आपण आम्हाला (द्युत्तमम्) अती पवित्र (व शुद्धमाार्गने मिळविलेले असल्यामुळे प्रतिष्ठित अशी (रयिम्) धनसंपदा (अच्छा, दाः) चांगल्याप्रकारे ?? व्हा. असे आपण (नक्षि) प्राप्त होता, म्हणून (त्वम्) आमच्या तर्फे सत्कारास पात्र आहात. ॥47॥

    भावार्थ

    भावार्थ - सर्व उपकारक, वेदादिशास्त्रवेत्ताजन, अध्यापक, उपदेशक विद्वानांना सर्व लोकांनी अवश्य सत्कार केला पाहिजे. सत्कार स्वीकारलेल्या त्या विद्वानांचेही कर्तव्य आहे की त्यानी उत्तम उपदेश द्यावा. सद्गुण धारण करावेत आणि गरजवंतांना धनादी पदार्थ द्यावेत. या (आदान-प्रदान व्यवस्थेमुळे) एकमेकाविषयी प्रीती निर्माण होऊन एकमेकावर ते सर्व उपकार करतील. अशाप्रकारे सर्वांना सुखलाभ होईल. ॥47॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O teacher and preacher, with mastery over the Vedas, become near us our protectors, welfares, givers of knowledge and wealth in our homes. Give us wealth most splendidly renowned. Come nigh unto us, so that we may express reverence unto ye.

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    Meaning

    Agni, light of life, closest friend and saviour, be good to us, be the very spirit of our home. Pure and immaculate, warmth and vitality of life, rest and haven of all, universal creator and giver of wealth, come and bless us with the most brilliant knowledge and wealth of life.

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    Translation

    O adorable Lord, be our nearest friend, a protector, benefactor and a gracious friend. O adorable Lord, giver of dwellings and dispenser of food, be near us and bestow upon us wealth splendidly renowned. (1) O most bright and resplendent adorable Lord, we earnestly solicit you for happiness of ourselves and our friends. (2)

    Notes

    Same as Yv. III. 25 and first half of III. 26.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ কে সৎকর্ত্তব্যাঃ সন্তীত্যাহ ॥
    পুনঃ কে সৎকার করিবার যোগ্য, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (অগ্নে) বেদবেত্তা অধ্যাপনা ও উপদেশকারী বিদ্বান্ আপনি (অগ্নিঃ) অগ্নির সমান (নঃ) আমাদিগের (অন্তমঃ) সমীপস্থ (ত্রাতা) রক্ষক (শিবঃ) কল্যাণকারী (উত) এবং (বরূথ্যঃ) গৃহগুলিতে উত্তম (বসুশ্রবাঃ) যাহার শ্রবণে বহু ধন এবং (বসুঃ) বিদ্যাসকলে বাসকারী এমন (ভব) হউন যাহা (দ্যুমত্তমম্) অতীব প্রকাশবান্ (রয়িম্) ধন আমাদিগের জন্য (অচ্ছ, দাঃ) ভালমত প্রদান করুন তথা আমাদেরকে (নক্ষি) প্রাপ্ত হউন, সুতরাং (ত্বম্) আপনি আমাদিগের সৎকার পাওয়ার যোগ্য ॥ ৪৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের উচিত যে, সকলের উপকারী বেদাদি শাস্ত্রের জ্ঞাতা অধ্যাপক উপদেশক বিদ্বান্দিগের সদা সৎকার করিবে এবং সেই সব সৎকার প্রাপ্ত বিদ্বান্ লোকও সকলের জন্য উত্তম উপদেশাদি ভাল ভাল গুণ ও ধনাদি পদার্থগুলিকে সর্বদা দিবে যাহাতে পরস্পর প্রীতি ও উপকার দ্বারা মহান সুখ লাভ হয় ॥ ৪৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অগ্নে॒ ত্বং নো॒ऽ অন্ত॑মऽউ॒ত ত্রা॒তা শি॒বো ভ॑বা বরূ॒থ্যঃ᳖ ।
    বসু॑র॒গ্নির্বসু॑শ্রবা॒ऽঅচ্ছা॑ নক্ষি দ্যু॒মত্ত॑মꣳ র॒য়িং দাঃ॑ ॥ ৪৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অগ্নে ত্বমিত্যস্য গোতম ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । শক্বরী ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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