Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 25

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 27
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    75

    यद्ध॑वि॒ष्यमृतु॒शो दे॑व॒यानं॒ त्रिर्मानु॑षाः॒ पर्यश्वं॒ नय॑न्ति।अत्रा॑ पू॒ष्णः प्र॑थ॒मो भा॒गऽए॑ति य॒ज्ञं दे॒वेभ्यः॑ प्रतिवे॒दय॑न्न॒जः॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। ह॒वि॒ष्य᳖म्। ऋ॒तु॒श इत्यृ॑तु॒ऽशः। दे॒व॒यान॒मिति॑ देव॒ऽयान॑म्। त्रिः। मानु॑षाः। परि॑। अश्व॑म्। नय॑न्ति। अत्र॑। पू॒ष्णः। प्र॒थ॒मः। भा॒गः। ए॒ति॒। य॒ज्ञम्। दे॒वेभ्यः॑। प्र॒ति॒वे॒दय॒न्निति॑ प्रतिऽवे॒दय॑न्। अ॒जः ॥२७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्धविष्यमृतुशो देवयानन्त्रिर्मानुषाः पर्यश्वन्नयन्ति । अत्रा पूष्णः प्रथमो भाग एति यज्ञन्देवेभ्यः प्रतिवेदयन्नजः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। हविष्यम्। ऋतुश इत्यृतुऽशः। देवयानमिति देवऽयानम्। त्रिः। मानुषाः। परि। अश्वम्। नयन्ति। अत्र। पूष्णः। प्रथमः। भागः। एति। यज्ञम्। देवेभ्यः। प्रतिवेदयन्निति प्रतिऽवेदयन्। अजः॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 27
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनः केन के किं कुर्वन्तीत्याह॥

    अन्वयः

    यद्ये मानुषा ऋतुशो हविष्यं देवयानमश्वं त्रिः परिनयन्ति योऽत्र पूष्णः प्रथमो भागो देवेभ्यो यज्ञं प्रतिवेदयन्नज एति स सदा रक्षणीयः॥२७॥

    पदार्थः

    (यत्) ये (हविष्यम्) हविर्भ्यो हितम् (ऋतुशः) ऋत्वर्हम् (देवयानम्) देवानां प्रापणसाधनम् (त्रिः) त्रिवारम् (मानुषाः) (परि) सर्वतः (अश्वम्) आशुगामिनम् (नयन्ति) प्राप्नुवन्ति (अत्र) अस्मिन्। अत्र ऋचि तुनुघ॰ [अ॰६.३.१३३] इति दीर्घत्वम्। (पूष्णः) पुष्टेः (प्रथमः) आदिमः (भागः) सेवनीयः (एति) प्राप्नोति (यज्ञम्) (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (प्रतिवेदयन्) विज्ञापयन् (अजः) पशुविशेषः॥२७॥

    भावार्थः

    ये प्रत्यृत्वाहारविहारान् कुर्वन्त्यश्वाजादिपशुभ्यः संगतानि कार्याणि कुर्वन्ति, तेऽत्यन्तं सुखं लभन्ते॥२७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    पुनः केन के किं कुर्वन्तीत्याह ॥

    सपदार्थान्वयः

    यद् ये मानुषा ऋतुशो हविष्यं देवयानमश्वं त्रिः परिनयन्ति योऽत्र पूष्णः प्रथमो भागो देवेभ्यो यज्ञं प्रतिवेदयन्नज एति स सदा रक्षणीयः ॥ २७ ॥ सपदार्थान्वयः-- यद्=ये मानुषा ऋतुशः ऋत्वर्हं हविष्यं हविर्भ्यो हितं देवयानं देवानां प्रापणसाधनम् अश्वम् आशुगामिनं त्रिः त्रिवारं परिनयन्ति सर्वतः प्राप्नुवन्ति, योऽत्र अस्मिन् पूष्णः पुष्टेः प्रथमः आदिमः भागः सेवनीयः, देवेभ्यः विद्वद्भ्यः यज्ञं प्रतिवेदयन् विज्ञापयन् अजः पशुविशेष:, एति प्राप्नोति; स सदा रक्षणीयः॥ २५ । २७ ॥

    पदार्थः

    (यत्) ये (हविष्यम्) हविर्भ्यो हितम् (ऋतुशः) ऋत्वर्हम् (देवयानम्) देवानां प्रापणसाधनम् (त्रिः) त्रिवारम् (मानुषा:) (परि) सर्वत: (अश्वम्) आशुगामिनम् (नयन्ति) प्राप्नुवन्ति (अत्र) अस्मिन् । अत्र ऋचितुनुघ० इति दीर्घत्वम् । (पूष्णः) पुष्टे: (प्रथमः) आदिम: (भागः) सेवनीयः (एति) प्राप्नोति (यज्ञम्) (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (प्रतिवेदयन्) विज्ञापयन् (अजः) पशुविशेषः ॥ २७ ॥

    भावार्थः

    ये प्रत्यृत्वाहारविहारान् कुर्वन्ति;अश्वाजादिपशुभ्य: संगतानि कार्याणि कुर्वन्ति; तेऽत्यन्तं सुखं लभन्ते ॥ २५ । २७ ॥

    विशेषः

    प्रजापतिः । यज्ञः=अश्वादीनामुपयोगः।त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर किससे कौन क्या करते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (यत्) जो (मानुषाः) मनुष्य (ऋतुशः) ऋतु-ऋतु के योग्य (हविष्यम्) होम में चढ़ाने के पदार्थों के लिये हितकारी (देवयानम्) दिव्य गुण वाले विद्वानों की प्राप्ति कराने हारे (अश्वम्) शीघ्रगामी प्राणी की (त्रिः) तीन वार (परि, नयन्ति) सब ओर पहुंचाते हैं वा जो (अत्र) इस संसार में (पूष्णः) पुष्टिसम्बन्धी (प्रथमः) प्रथम (भागः) सेवने योग्य (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (यज्ञम्) सत्कार को (प्रतिवेदयन्) जनाता हुआ (अजः) विशेष पशु बकरा (एति) प्राप्त होता है, वह सदा रक्षा करने योग्य है॥२६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य ऋतु-ऋतु के प्रति उनके गुणों के अनुकूल आहार विहारों को करते तथा घोड़ा और बकरा आदि पशुओं से संगत हुए कामों को करते हैं, वे अत्यन्त सुख को पाते हैं॥२७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रधान वीरपुरुषों के कर्तव्य । पूषा के विश्वदेव्य भाग, छाग और उनका अश्व के साथ आगे चलने का रहस्य ।

    भावार्थ

    ( यत् ) जब ( हविष्यम् ) अन्न के समान श्रेष्ठ हवि के रूप में स्वीकार करने योग्य ( देवयानम् ) देवों, विद्वानों को प्राप्त करने योग्य ( अश्वम् ) अश्व के समान बलवान् राष्ट्र के भोक्ता राष्ट्रपति को (मानुषाः) मनुष्य लोग (ऋतुंशः) ऋतु-ऋतु में भिन्न-भिन्न अवसरों में (त्रिः) वर्ष में तीन बार (परि नयन्ति ) सर्वत्र ले जाते हैं उसको भ्रमण कराते हैं तब (अत्र) इस राष्ट्र में (पूष्णः) पोषक, पृथ्वी का (प्रथमः भागः) सबसे अधिक श्रेष्ठ, सेवनीय (अज) सबका प्रेरक विद्वान् (देवेभ्यः) समस्त विद्वानों के हित के लिये ( यज्ञम् ) प्रजापालक, सबके संयोजक राजा को ( प्रतिवेदयन् ) विज्ञापित करता हुआ (एति) प्राप्त होता है । हितकारी राजा प्रजाहितार्थ राष्ट्र में तीन बार दौरा करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यज्ञः । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर किससे कौन क्या करते हैं, इस विषय का उपदेश किया है॥

    भाषार्थ

    (यत्) जो मनुष्य (ऋतुश:) ऋतु अनुसार (हविष्यम्) हवि के लिए हितकारी उत्तम पदार्थ तथा (देवयानम्) देवों को देशान्तर में पहुँचाने वाले (अश्वम्) आशुगामी घोड़े को (त्रिः) तीन बार (परिनयन्ति) सब ओर ले जाते हैं; जो (अत्र) यहाँ (पूष्णः) पुष्टि का (प्रथमः) प्रथम (भागः) सेवन करने योग्य पदार्थ (देवेभ्यः) विद्वानों के लिए (यज्ञम्) यज्ञ को (प्रतिवेदयन्) जनाने वाला (अजः) बकरा (एति) प्राप्त होता है, वह सदा रक्षा करने योग्य है ॥ २५ । २७ ॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य ऋतु अनुसार आहार-विहार करते हैं; घोड़े और बकरे आदि पशुओं से संगत कार्य करते हैं; वे अत्यन्त सुख को प्राप्त करते हैं॥ २५ । २७ ॥

    प्रमाणार्थ

    (अत्र) यहाँ 'ऋचि तुनुघ०' (६ | ३ | १३३) से संहिता में दीर्घ है [अत्रा]।

    भाष्यसार

    किससे कौन क्या करते हैं—मनुष्य ऋतु अनुसार हवि के लिए हितकारीपदार्थों का आहार-विहार करें। पुष्टि के लिए प्रथम सेवनीय तथा विद्वानों के लिए यज्ञ को सिद्ध करनेवाले बकरे को प्राप्त करें। तात्पर्य यह है कि घोड़े और बकरे आदि पशुओं से उचित कार्य करें तथा उनकी सदा रक्षा करके सुख को प्राप्त करें ॥ २५ । २७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सहयज्ञ प्रजाओं का सर्जन

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब (हविष्यम्) = [ हविषि उत्तमम्] जीव दानपूर्वक अदन में उत्तम होता है, अर्थात् दान देकर यज्ञशेष खाने की वृत्ति होती है तब २. (ऋतुशः) = ऋतु ऋतु के अनुसार (देवयानम्) = देवताओं के मार्ग से चलता है, अर्थात् ऋतुचर्या का ध्यान करते हुए सत्य को अपनाता है तथा ३. (मानुषाः) = [मत्वा कर्माणि सीव्यन्ति ] विचारपूर्वक कर्मों को करनेवाले (अश्वम्) = उस सर्वव्यापक प्रभु को [अश् व्याप्तौ] (त्रिः) = प्रातः, मध्याह्न व सायं समय (परिनयन्ति) = अपने विचारों में प्राप्त कराते हैं, अर्थात् उस सर्वव्यापक प्रभु का ध्यान करते हैं। ४. (अत्र) = ऐसा होने पर (पूष्णः) = पूषा का (प्रथमो भाग:) = सर्वोत्तम भाग एति इन्हें प्राप्त होता है, अर्थात् इनको उत्तम पोषक तत्त्व प्राप्त होते हैं। इनका शरीर उत्तम पुष्टिवाला होता है और ५. (अजः) = कभी भी जन्म न लेनेवाला वह प्रभु अथवा सब प्रेरणाओं को प्राप्त करानेवाला वह प्रभु (देवेभ्यः) = इन देववृत्तिवाले पुरुषों के लिए (यज्ञम् प्रतिवेदयन्) = यज्ञों को प्राप्त कराता है। यह यज्ञ उनके लिए सब इष्टों को सिद्ध करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम हवि के प्रयोग में उत्तम हों, देवयान मार्ग से चलें। सदा प्रभु का स्मरण करें, शरीर को सुपुष्ट करें, प्रभु से दिये गये यज्ञ को अपनाएँ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    जी माणसे ऋतुंचे गुणधर्म जाणून त्यानुसार आहार-विहार करतात व घोडे, बकरे इत्यादी पशू बाळगून कार्य करतात ते अत्यंत सुख प्राप्त करतात.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    missing

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (यत्) जे (मानुषाः) लोक (ऋतुशः) ज्या त्या ऋतूला अनुकूल अशा (हविष्यम्) होमसाठी उपयुक्त पदार्थ (वाहून नेतात) आणि (देवयानम्) दिव्यगुणधारी विद्वानांपर्यंत (आम्हाला आपल्या पाठीवर बसवून नेतात) असे (अश्‍वम्) शीघ्रगामी प्राणी घोडे (त्रिः) तीनवेळा (पीर, नयन्ति) सर्वत्र सर्व दिशांकडे नेतात, (ते सदा सर्वदा रक्षणीय वा पालनीय आहेत) तसेच (अत्र) या संसारात (पूष्णः) पोषण करणार्‍या (आम्हाला ज्ञान व उपदिशाद्वारे समृद्ध करणारे) आणि (प्रथमः) (भागः) सर्वप्रथम ज्यांचा सत्कारप्राप्तीचा अधिकार आहे अशा (देवेभ्यः) विद्वांना (यऋम्) सत्कार करण्यासाठी व (प्रतिवेदयन्) आमच्या मनातील आदरभाव व्यक्त करण्यासाठी जो (अजः) विशेष पशू बकरा (एति) प्राप्त होतो, तो सर्वांनी सदा रक्षण करावे, (बकरा पाळावा, विद्वानांच्या सत्कार करण्याची ही एक पद्धत आहे) ॥27॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे लोक ऋतूप्रमाणे अनुकूल आहार-विहार करतात, त्या त्या ऋतूचे गुण व लाभ ओळखून त्याचा फायदा घेतात तसेच घोडा, बकरा आदी पशूंचे पालन-रक्षणादी कार्यें करतात, ते अत्यंत सुखी होतात. ॥27॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Thoughtful persons strengthen this excellent embodied soul, at times in three different stages, Soul enters this body, the foremost part of the Earth, for doing noble deeds for the sake of spiritual enjoyment.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    When three orders of people take the man at the head of national yajna round the national vedi (the land) according to the seasons and circumstances of the country, then the man of immortal spirit, prime agent of the divinities of progress and development, Pushan, speaking in loud accents, takes the yajna forward for all the noble citizens.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The persons, in charge of the honour-awarding ceremony, conducted at the proper season, send forth the royal horse, who is taken thrice round the arena and whilst the royal horse moves, the novice horse representing the Commander, marches on in the front, as if he is being trained for leadership. He moves in the first line, and as he moves, he, as if, goes on announcing to the learned audience the commencement of the royal sacrifice. (1)

    Notes

    Atrā, ,here. (ऋचि तुनुघेति दीर्घ:, Pāṇini, VI, 3. 132). Ajaḥ refers to the same goat. It refers to the immolation of the moon as it goes round the earth.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ কেন কে কিং কুর্বন্তীত্যাহ ॥
    পুনঃ কাহার দ্বারা কে কী করে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–(য়ৎ) যে (মানুষাঃ) মনুষ্য (ঋতুশঃ) ঋতু ঋতুর যোগ্য (হবিষ্যম্) হোমে আহুতি দিবার পদার্থসমূহের জন্য হিতকারী (দেবয়ানম্) দিব্য গুণযুক্ত বিদ্বান্দিগের প্রাপ্ত করিবার সাধক (অশ্বম্) শীঘ্রগামী প্রাণীকে (ত্রিঃ) তিনবার (পরি, নয়ন্তি) সকল দিকে লইয়া যায় অথবা যাহা (অত্র) এই সংসারে (পূষ্ণঃ) পুষ্টিসম্পর্কীয় (প্রথমঃ) প্রথম (ভাগঃ) সেবনীয় (দেবেভ্যঃ) বিদ্বান্দিগের জন্য (য়জ্ঞম্) সৎকারকে (প্রতিবেদয়ন্) জানাইয়া (অজঃ) বিশেষ পশু অজ (এতি) প্রাপ্ত হয় সে সর্বদা রক্ষা করিবার যোগ্য ॥ ২৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যে সব মনুষ্য ঋতু ঋতুর প্রতি উহাদের গুণগুলির অনুকূল আহার-বিহার করে তথা অশ্ব ও অজাদি পশুদের সহিত সংগতি রাখিয়া কর্ম্ম করে তাহারা অত্যন্ত সুখ লাভ করে ॥ ২৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়দ্ধ॑বি॒ষ্য᳖মৃতু॒শো দে॑ব॒য়ানং॒ ত্রির্মানু॑ষাঃ॒ পর্য়॑শ্বং॒ নয়॑ন্তি ।
    অত্রা॑ পূ॒ষ্ণঃ প্র॑থ॒মো ভা॒গऽএ॑তি য়॒জ্ঞং দে॒বেভ্যঃ॑ প্রতিবে॒দয়॑ন্ন॒জঃ ॥ ২৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়দ্ধবিষ্যমিত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top