यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 13
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - परमात्मा देवता
छन्दः - निचृत त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
237
यऽआ॑त्म॒दा ब॑ल॒दा यस्य॒ विश्व॑ऽउ॒पास॑ते प्र॒शिषं॒ यस्य॑ दे॒वाः।यस्य॑ छा॒याऽमृतं॒ यस्य॑ मृ॒त्युः कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम॥१३॥
स्वर सहित पद पाठयः। आ॒त्म॒दा। इत्या॑त्म॒ऽदाः। ब॒ल॒दा इति॑ बल॒ऽदाः। यस्य॑। विश्वे॑। उ॒पास॑त॒ इत्यु॑प॒ऽआस॑ते। प्र॒शिष॒मिति॑ प्र॒ऽशिष॑म्। यस्य॑। दे॒वाः। यस्य॑। छा॒या। अ॒मृत॑म्। यस्य॑। मृ॒त्युः। कस्मै॑। दे॒वाय॑। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒ ॥१३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यऽआत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषँयस्य देवाः । यस्य छायामृतँयस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥
स्वर रहित पद पाठ
यः। आत्मदा। इत्यात्मऽदाः। बलदा इति बलऽदाः। यस्य। विश्वे। उपासत इत्युपऽआसते। प्रशिषमिति प्रऽशिषम्। यस्य। देवाः। यस्य। छाया। अमृतम्। यस्य। मृत्युः। कस्मै। देवाय। हविषा। विधेम॥१३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (3)
विषयः
पुनरुपासित ईश्वरः किं ददातीत्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! य आत्मदा बलदा यस्य प्रशिषं विश्वे देवा उपासते, यस्य सकाशात् सर्वे व्यवहारा जायन्ते, यस्यच्छायाऽमृतं यस्याज्ञाभङ्गो मृत्युस्तस्मै कस्मै देवाय वयं हविषा विधेम॥१३॥
पदार्थः
(यः) (आत्मदाः) य आत्मानं ददाति सः (बलदाः) यो बलं ददाति सः (यस्य) (विश्वे) (उपासते) (प्रशिषम्) प्रशासनम् (यस्य) (देवाः) विद्वांसः (यस्य) (छाया) आश्रयः (अमृतम्) (यस्य) (मृत्युः) (कस्मै) (देवाय) (हविषा) (विधेम)॥१३॥
भावार्थः
हे मनुष्याः! यस्य जगदीश्वरस्य प्रशासने कृतायां मर्यादायां सूर्यादयो लोका नियमेन वर्त्तन्ते, सूर्येण विना वर्षा आयुः क्षयश्च न जायते, स येन निर्मितस्तस्यैवोपासनां सर्वे मिलित्वा कुर्वन्तु॥१३॥
विषयः
ईश्वरविषयः
व्याख्यानम्
( य आत्मदाः ) य आत्मदा विद्याविज्ञानप्रदः, ( बलदाः ) यः शरीरेन्द्रियप्राणात्ममनसां पुष्ट्युत्साहपराक्रमदृढत्वप्रदः, ( यस्य विश्वे उपासते प्रशिषं यस्य देवाः ) यं विश्वेदेवाः सर्वे विद्वांस उपासते यस्यानुशासनं च मन्यन्ते, ( यस्य छायाऽमृतम् ) यस्याश्रय एव मोक्षोऽस्ति, यस्याच्छायाऽकृपाऽनाश्रयो मृत्युर्जन्ममरणकारकोऽस्ति, ( कस्मै देवाय हविषा विधेम ) तस्मै कस्मै प्रजापतये ‘प्रजापतिर्वै कस्तस्मै हविषा विधेमेति’। [ श॰ब्रा॰७.३.१.२० ] सुखस्वरूपाय ब्रह्मणे देवाय प्रेमभक्तिरूपेण हविषा वयं विधेम, सततं तस्यैवोपासनं कुर्वीमहि।
विषयः
पुनरुपासित ईश्वरः किं ददातीत्याह॥
सपदार्थान्वयः
हे मनुष्या य आत्मदा बलदा यस्य प्रशिषं विश्वे देवा उपासते यस्य सकाशात्सर्वे व्यवहारा जायन्ते यस्य च्छायाऽमृतं यस्याज्ञाभङ्गो मृत्युस्तस्मै कस्मै देवाय वयं हविषा विधेम ॥ १३ ॥ सपदार्थान्वयः--हे मनुष्याः ! य आत्मदाः य आत्मानं ददाति सः, बलदाः यो बलं ददाति सः, यस्य प्रशिषं प्रशासनं विश्वे देवा: विद्वांसः उपासते; यस्य सकाशात्सर्वे व्यवहारा जायन्ते, यस्य च्छाया आश्रयः अमृतं, यस्याज्ञाभङ्गो मृत्युस्तस्मै कस्मै देवाय वयं हविषा विधेम॥ २५|१३॥
पदार्थः
(यः) (आत्मदा) य आत्मानं ददाति सः (बलदाः) यो बलं ददाति सः (यस्य) (विश्वे) (उपासते) (प्रशिषम्) प्रशासनम् (यस्य) (देवा:) विद्वांसः (यस्य) (छाया) आश्रयः (अमृतम्) (यस्य) (मृत्युः) (कस्मै) (देवाय) (हविषा) (विधेम) ॥ १३ ॥
भावार्थः
हे मनुष्याः ! यस्य जगदीश्वरस्य प्रशासने कृतायां मर्यादायां सूर्यादयो लोका नियमेन वर्त्तन्ते, येन सूर्येण विना वर्षा आयुःक्षयश्च न जायते, स येन निर्मितस्तस्यैवोपासनां सर्वे मिलित्वा कुर्वन्तु ॥ २५ । १३ ॥
भावार्थ पदार्थः
देवाः=सूर्यादयो लोकाः। प्रशिषम्=कृतां मर्यादाम् । उपासते=नियमेन वर्त्तन्ते । अमृतम्=वर्षा । मृत्युः=आयुःक्षयः ।
विशेषः
प्रजापतिः । परमात्मा=स्पष्टम् । निचृत्त्रिष्टुप् | धैवतः ॥
हिन्दी (6)
विषय
फिर उपासना किया ईश्वर क्या देता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! (यः) जो (आत्मदाः) आत्मा को देने और (बलदाः) बल देने वाला (यस्य) जिस की (प्रशिषम्) उत्तम शिक्षा को (विश्वे) समस्त (देवाः) विद्वान् लोग (उपासते) सेवते (यस्य) जिसके समीप से सब व्यवहार उत्पन्न होते (यस्य) जिस का (छाया) आश्रय (अमृतम्) अमृतस्वरूप और (यस्य) जिसकी आज्ञा का भंग (मृत्युः) मरण के तुल्य है, उस (कस्मै) सुखरूप (देवाय) स्तुति के योग्य परमात्मा के लिये हम लोग (हविषा) होमने के पदार्थ से (विधेम) सेवा का विधान करें॥१३॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! जिस जगदीश्वर की उत्तम शिक्षा में की हुई मर्यादा में सूर्य आदि लोक नियम के साथ वर्त्तमान हैं, जिस सूर्य के विना जल की वर्षा और अवस्था का नाश नहीं होता, वह सवितृमण्डल जिसने बनाया है, उसी की उपासना सब मिलकर करें॥१३॥
विषय
ईश्वरविषयः
व्याख्यान
( य आत्मदाः ) जो जगदीश्वर अपनी कृपा से ही अपने आत्मा का विज्ञान देनेवाला है, [बलदाः] जो शरीर, इन्द्रिय, प्राण, आत्मा और मन की पुष्टि, उत्साह, पराक्रम और दृढ़ता का देनेवाला है ( यस्य विश्वे उपासते प्रशिषं यस्य देवाः ) जिसकी उपासना सब विद्वान् लोग करते आये हैं, और जिसका अनुशासन जो वेदोक्त शिक्षा है, उसको अत्यन्त मान्य से सब शिष्ट लोग स्वीकार करते हैं, ( यस्य छायाऽमृतम् ) जिसका आश्रय करना ही मोक्षसुख का कारण है और जिसकी अकृपा ही जन्ममरणरूप दुःखों को देनेवाली है, अर्थात् ईश्वर और उसका उपदेश जो सत्यविद्या सत्यधर्म और सत्यमोक्ष हैं उनको नहीं मानना, और जो वेद से विरुद्ध होके अपनी कपोलकल्पना अर्थात् दुष्ट इच्छा से बुरे कामों में वर्त्तता है, उस पर ईश्वर की अकृपा होती है, वही सब दुःखों का कारण है, और जिसकी आज्ञापालन ही सब सुखों का मूल है, ( कस्मै देवाय हविषा विधेम ) जो सुखस्वरूप और सब प्रजा का पति है, उस परमेश्वर देव की प्राप्ति के लिये सत्य प्रेमभक्तिरूप सामग्री से हम लोग नित्य भजन करें, जिससे हम लोगों को किसी प्रकार का दुःख कभी न हो।
विषय
स्तुतिविषयः
व्याखान
हे मनुष्यो। (यः) जो परमात्मा अपने लोगों को (आत्मदाः) आत्मा का देनेवाला तथा आत्मज्ञानादि का दाता है, जीवप्राणदाता तथा (बलदाः) त्रिविध बल – एक मानस विज्ञानबल, द्वितीय इन्द्रियबल, अर्थात् श्रोत्रादि की स्वस्थता, तेजोवृद्धि, तृतीय शरीरबल नाम नैरोग्य, महापुष्टि, दृढ़ाङ्गता और वीर्यादि वृद्धि - इन तीनों बलों का जो दाता है, जिसके (प्रशिषम्) अनुशासन [शिक्षा-मर्यादा] को (देवाः) विद्वान् लोग यथावत् मानते हैं, सब प्राणी-अप्राणीजड़-चेतन, विद्वान् वा मूर्ख उस परमात्मा के नियमों का कोई कभी उल्लङ्घन नहीं कर सकता, जैसेकि कान से सुनना, आँख से देखना, इसको उलटा कोई नहीं कर सकता। (यस्य) जिसकी (छाया) आश्रय ही (अमृतम्) विज्ञानी लोगों का मोक्ष कहाता है तथा जिसकी अछाया [अकृपा] दुष्टजनों के लिए बारम्बार मरण और जन्मरूप महाक्लेशदायक है। हे सज्जन मित्रो ! वही एक परमसुखदायक पिता है। आओ (कस्मै देवाय हविषा विधेम) अपने सब जने मिलके उससे प्रेम, उसमें विश्वास और उसकी भक्ति करें, कभी उसको छोड़के अन्य को उपास्य न मानें । वह अपने को अत्यन्त सुख देगा, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं ॥ ४८ ॥
टिपण्णी
१. जीवप्राणदाता - जीवन और प्राण देनेवाला है।
विषय
प्रजापति का वर्णन । परमेश्वर की उपासना।
भावार्थ
(यः) जो परमेश्वर (आत्मदाः) आत्मा, चेतन जीव को प्राणियों के शरीर में प्रदान करता है और जो (बलदाः) जीवों को जीने और बाधक कारणों को दूर करने का बल प्रदान करता है अथवा (यः) ! जो (आत्मदाः) समस्त विश्व को अपना ऐश्वर्य प्रदान करता है (यस्य), जिसके ( प्रशिषम् ) उत्कृष्ट शासन को (विश्वे देवा:) समस्त सामान्य जन और विद्वान् गण एवं छोटे बड़े सूर्य आदि लोक भी (उपासते ) शरण के समान प्राप्त करते हैं और उसके शासनकारी स्वरूप की उपासना या ध्यान करते हैं । (यस्य): जिसकी (छाया) आश्रय लेना (अमृतम् ) अमृत स्वरूप, अभय और मृत्यु पर विजय है । और (यस्य) जिसके शासन का भङ्ग करना ही (मृत्युः) मृत्यु है । (कस्मै देवाय हविषा विधेम ) उस सुख- स्वरूप प्रजापालक सब सुखों के दाता परमेश्वर की हम ज्ञान स्तुति द्वारा उपासना करें । राजा के पक्ष में- बह (आत्मदाः) अपने आपको राष्ट्र में सौंपता और राष्ट्र शरीर में आत्मा के समान ऐश्वर्य को भोगता है, (बलदा) राष्ट्र में बल प्रदान करता है । समस्त सामान्य जन और (देवाः) विजिगीषु राजा भी उस शासन का आश्रय लेते हैं जिसकी (च्छाया) छत्रछाया अभय के समान है जिसकी आज्ञा भङ्ग करना, करने वालों के लिये मृत्यु है उसकी हम अन्न आदि द्वारा सेवा करें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परमात्मा । निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
फिर उपासना किया ईश्वर क्या देता है, इस विषय का उपदेश किया है॥
भाषार्थ
हे मनुष्यो ! (यः) जो (आत्मदाः) आत्मा का दाता तथा (बलदाः) बल का दाता है और (यस्य) जिसके (प्रशिषम्) प्रशासन की (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (उपासते) उपासना करते हैं; एवं जिसके सान्निध्य से सब व्यवहार उत्पन्न होते हैं; (यस्य) जिसका (छाया)आश्रय (अमृतम्) अमृत है; और (यस्य) जिसकी आज्ञा का भंग करना (मृत्युः) मृत्यु है; (तस्मै) उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) देव की हम लोग (हविषा) होम योग्य पदार्थ से (विधेम) सेवा करते हैं ॥ २५ । १३ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जिस जगदीश्वर के प्रशासन में बनी हुई मर्यादा में सूर्य आदि लोक नियम से चलते हैं; जिस सूर्य के विना वर्षा और आयु का क्षय नहीं होता; वह सूर्य जिसने बनाया है, उसकी ही उपासना सब लोग मिल कर करें ॥ २५ । १३ ॥
भाष्यसार
उपासित ईश्वर क्या देता है—जो ईश्वर उपासना करने से आत्मज्ञान प्रदान करता है, शरीर और आत्मा के बल को बढ़ाता है। उसके प्रशासन की सब विद्वान् लोग उपासना करते हैं। सब व्यवहार उसी से उत्पन्न होते हैं। उसका आश्रय (उपासना) अमृत है। उसकी आज्ञा का भंग करना मृत्यु है । अतः उस सुख स्वरूप, सब के प्रकाशक परमात्मा की सकल उत्तम सामग्री से हम लोग उपासना करें ॥ २५ । १३ ॥
अन्यत्र व्याख्यात
--(क) (यः) जो (आत्मदा) आत्मज्ञान का दाता (बलदाः) शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा, (यस्य) जिसकी (विश्वे) सब (देवा:) विद्वान् लोग (उपासते) उपासना करते हैं और (यस्य) जिसका (प्रशिषम्) प्रत्यक्ष सत्य स्वरूप शासन और न्याय अर्थात् शिक्षा को मानते हैं (यस्य) जिसका (छाया) आश्रय ही (अमृतम्) मोक्ष सुखदायक है (यस्य) जिसका न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही (मृत्युः) मृत्यु आदि दुःख का हेतु है, हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए (हविषा) आत्मा और अन्त:करण से (विधेम) भक्ति अर्थात् उसी की आज्ञा-पालन करने में तत्पर रहें। (संस्कारविधि०, ईश्वरस्तुति प्रार्थनोपासना०) (ख) (य आत्मदा०) जो जगदीश्वर अपनी कृपा से ही आत्मा को विज्ञान देने वाला है, जो सब विद्या और सत्य सुखों की प्राप्ति कराने वाला है, जिसकी उपासना सब विद्वान् लोग करते आये हैं और जिसका अनुशासन जो वेदोक्त शिक्षा है, उसको अत्यन्त मान्य से सब शिष्ट लोग स्वीकार करते हैं, जिसका आश्रय करना ही मोक्ष सुख का कारण है और जिसकी अकृपा ही जन्म-मरणस्वरूप दु:खों को देने वाली है अर्थात् ईश्वर और उसका उपदेश जो सत्य विद्या, सत्य धर्म और सत्य मोक्ष है, उनको नहीं मानना और जो वेद से विरुद्ध हो के अपनी कपोल कल्पना अर्थात् दुष्ट इच्छा से बुरे कामों में वर्तता है, उस पर ईश्वर की अकृपा होती है, वही सब दुःखों का कारण है और जिसकी आज्ञा पालन ही सब सुखों का मूल है। (कस्मै०) जो सुखस्वरूप और सब प्रजा का पति है, उस परमेश्वर देव की प्राप्ति के लिए सत्यप्रेम भक्ति रूप सामग्री से हम लोग नित्य भजन करें। जिससे हम लोगों को किसी प्रकार का दुःख कभी न हो । (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ईश्वरप्रार्थनाविषयः) (ग) हे मनुष्यो! जो परमात्मा अपने लोगों को 'आत्मदा' आत्मा का देने वाला तथा आत्मज्ञानादि का दाता है जीवप्राणदाता, तथा 'बलदा' त्रिविध बल–एक मानस विज्ञानबल, द्वितीय इन्द्रिय बल अर्थात् श्रोत्रादि की स्वस्थता तेजोवृद्धि, तृतीय शरीरबल महापुष्टि दृढाङ्गता और वीर्यादि वृद्धि--इन तीनों बलों का जो दाता है, जिसके 'प्रशिषम्' अनुशासन (शिक्षा मर्यादा) को यथावत् विद्वान् लोग मानते हैं। सब प्राणी और अप्राणी, जड़ चेतन, विद्वान् वा मूर्ख उस परमात्मा के नियमों का कोई कभीउल्लंघन नहीं कर सकता, जैसे कि कान से सुनना, आँख से देखना इसको उलटा कोई नहीं कर सकता । जिसकी छाया=आश्रय ही अमृत विज्ञानी लोगों का मोक्ष कहाता है, तथा जिसकी अछाया (अकृपा) दुष्ट जनों के लिए बारम्बार मरण और जन्म रूप महाक्लेशदायक है । हे सज्जन मित्रो! वही एक परमसुखदायक पिता है। आओ अपने सब मिल के प्रेम, विश्वास और भक्ति करें, कभी उसको छोड़ के अन्य को उपास्य न मानें । वह अपने को अत्यन्त सुख देगा इसमें कुछ सन्देह नहीं। (आर्याभिविनय, २।४८) ॥
विषय
अमृतम्
पदार्थ
१. प्रभु वे हैं (यः) = जिन्होंने कि (आत्मदाः) = ' आत्मानं ददाति इति - द० ' जीवहित के लिए अपने को दे डाला है, अर्थात् वे प्रभु निरन्तर जीवों के हित में तत्पर हैं- उनकी अपनी आवश्यकता शून्य है। स्वयं वे पूर्ण हैं, अतः उन्हें अपने लिए कुछ भी करना नहीं है । २. (बलदाः) = वे बल देनेवाले हैं। जीवहित को सिद्ध करने के लिए वे जीव को सामर्थ्य प्राप्त कराते हैं। इस सामर्थ्य से सम्पन्न होकर जीव ने अपनी उन्नति सिद्ध करनी है। ३. वस्तुतः (विश्वे) = संसार में प्रविष्ट सभी प्राणी यस्य उपासते जिसकी उपासना करते हैं। कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जो कष्ट पड़ने पर प्रभु का स्मरण न करे। सुख में भी अविकृत वृत्तिवाले लोग प्रभु का कीर्तन करते ही हैं, दुःख आने पर दुःखापहरण के लिए प्रभु कीर्तन चलता है । ४. परन्तु (देवाः) = देव लोग यस्य प्रशिषं उपासते जिसकी आज्ञा की उपासना करते हैं। वे प्रभु के गुणगान में ही सारा समय समाप्त न करके उसके आदेश के अनुसार 'पठन, पाठन व प्रचार' के कार्य में लगकर ही उसकी पूजा करते हैं। (स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य) ५. (यस्य छाया) = जिस प्रभु का किया हुआ छेदन-भेदन [ छोड़ देने] अर्थात् अंगविकार भूकम्पादि दण्ड (अमृतम्) = जीव की अमरता के लिए है। (यस्य मृत्युः) = [अमृत] प्रभु द्वारा प्राप्त कराई गई यह मृत्यु भी अमरता के लिए है। ये सब इसलिए ही प्रभु से दी जाती हैं। कि हम विषयों व वासनाओं के पीछे मरते न फिरें। इनके पीछे भागते रहकर हम अपने को मार ही लेंगे, अतः प्रभु कृपा करके ऐसी व्यवस्था कर देते हैं कि हम विषयवासनाओं में जा फँसने से बच जाते हैं। ६. इस (कस्मै) = आनन्दस्वरूप (देवाय) = ज्योतिर्मय सर्वज्ञ प्रभु के लिए (हविषा) = यज्ञशेष के सेवन के द्वारा विधेम हम पूजा करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु पूर्ण व आप्तकाम हैं। उन्हें अपने लिए कुछ नहीं करना उन्होंने अपने को जीवहित के लिए दे डाला है। उनके सब कार्य जीव को उन्नति-साधन प्राप्त करने के लिए हैं। वे जीव को सामर्थ्य प्राप्त कराते हैं। सामान्य लोग इस प्रभु का गुणगान करते हैं तो समझदार प्रभु के आदेशों के अनुसार कार्य करने का ध्यान करते हैं। प्रभु से दिये गये दण्ड व मृत्यु भी जीव की अमरता के लिए साधन बनते हैं। इस प्रभु का पूजन त्यागपूर्वक उपभोग से ही सम्भव है।
मराठी (4)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जो आत्मज्ञान देणारा, शरीर व आत्म्याला बळ देणारा, ज्याच्या व्यवस्थेने सूर्य वगैरे नियमाने चालतात. वृष्टी होते. ते सूर्यमंडळ ज्याने बनविले आहे व विद्वान लोक ज्याची उपासना करतात, त्याचा आश्रय घेतात. ज्याचा आज्ञाभंग म्हणजे मृत्यूसमान आहे त्याच परमेश्वराची सर्वांनी उपासना करावी.
विषय
उपासना केल्यामुळे ईश्वर उपासकाला काय देतो, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (यः) जो परमेश्वर (आत्मदाः) आत्म्याला (आत्मिकबळ) देणारा असून (बलदाः) शारीरिक शक्ती देणारा आहे, (विश्वे)(देवाः) सर्व विद्वज्जन (यस्य) ज्याच्या (प्रशिषम्) उत्तम प्रेरणा आणि आज्ञेप्रमाणे (उपासते) आचरण करतात (त्याची तुम्ही उपासना करा) (यस्य) ज्याच्या सामर्थ्यामुळे जगातील सर्व व्यवहार चालतात, (यस्य) ज्याची (छाया) छाया वा आश्रम (अमृतम्) अमृतस्वरूप आहे आणि (यस्य) ज्याच्या आज्ञेचा भंग करणे मृत्युप्रमाणे आहे, त्या (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) स्तवनीय परमेश्वरासाठी आम्ही (हविषा) हवनीय वा यज्ञीय पदार्थांद्वारे होमादीकरून (विधेम)
भावार्थ
त्याची सेवा वा उपासना करतो. हे मनुष्यानो, आमच्याप्रमाणे तुम्हीही त्याची सेवा वा उपासना व यज्ञादी कर्म करा. ॥13॥^भावार्थ - हे मनुष्यांनो, ज्या परमेश्वराच्या श्रेष्ठ नियमाप्रमाणे ठरविलेल्या मर्यादेत सूर्य आदी लोक विद्यमान आहेत, ज्या सूर्याशिवाय पाऊस पडणे तसेच पावसाच्या सर्वक्रम-व्यवसक्ता आदी होतात (सूर्यामुळे समुद्राच्या जलाचे बाष्पीकरण होणे आदी नियम आहेत) तो सवितालोक ज्या परमेश्वराने निर्माण केला आहे, सर्व मनुष्यांनी त्या परमेश्वराची उपासना केली पाहिजे. ॥13॥
विषय
स्तुती
व्याखान
हे मनुष्यांनो जो परमात्मा आपल्याला (आत्मदाः) आत्मा देणारा व आत्मज्ञानाचा दाता आहे व (बलदाः) तो तीन प्रकारचे बळ देतो १] मनाचे [विज्ञान] बल २] इंद्रिय बलः—शरीरांचे व इंद्रियांचे तेज व आरोग्य ३] शरीरबल — शरीराचे सुखद अवयव व वीर्यवृद्धी. (प्रशिषम्) ज्याचे अनुशासन सर्व विद्वान लोक मानतात. सर्व प्राणी, अनाणी, जड व चेतन, विद्वान व मूर्ख हे कोणीही त्या परमेश्वरी नियमांचे उल्लंघन करू शकत नाहीत. कानाने ऐकणे व डोळ्यांनी पाहणे या क्रियांविरुद्ध कोणीही कार्य करू शकत नाही. ज्याची छाया [आश्रय] अमृत असून विद्वानलोक त्याला मोक्ष मानतात व ज्याचीअकृपा वारंवार मरण व जन्मरूपी महाक्लेश देणारी आहे. हे सज्जन मित्रांनो ! तोच परमसुख देणारा पिता आहे. आपण सर्वजण मिळून प्रेमाने, विश्वासाने भक्ति करावी. त्याच्या शिवाय इतरांना उपास्य मानता कामा नये. तो आपल्याला अत्यंत सुख देईल. यात शंकाच नाही.॥४८॥
व्याख्यान
भाषार्थ : (य आत्मदा:.) जो परमेश्वर आपल्या कृपेनेच आपल्या आत्म्याचे विज्ञान देणारा आहे. जो सर्व विद्या व सत्य सुख देणारा आहे. ज्याची उपासना सर्व विद्वान लोक करत आलेले आहेत. ज्याचे अनुशासन वेदोक्त शिक्षण असून, त्याचा स्वीकार सर्व शिष्ट लोक करतात. ज्याचा आश्रय घेणे मोक्षसुखाचे कारण आहे व ज्याची अवकृपाच जन्म-मरणरूपी दु:ख देणारी आहे. त्या ईश्वराचा उपदेश-सत्यविद्या, सत्यधर्म व सत्यमोक्ष यांना न मानता जो आपल्या कपोल-कल्पनेने अर्थात दुष्ट इच्छेने वाईट आचरण करून वेदाविरुद्ध वागतो. त्याच्यावर ईश्वराची अकृपा होते. तेच सर्व दु:खांचे कारण आहे व ज्याचे आज्ञापालनच सर्व सुखाचे मूळ आहे. (कस्मै.) जो सुखस्वरूप असून, सर्व प्रजेचा पती आहे, त्या परमेश्वराच्या प्राप्तीसाठी सत्यप्रेम भक्तिरूपी साधनांनी आम्ही नित्य त्याला भजावे. ज्यामुळे आम्हाला कोणत्याही प्रकारचे दु:ख कधीही होता कामा नये. ॥५॥ (द्यौ. शा.) हे सर्वशक्तिमान भगवान! तुझ्या भक्ती व कृपेनेच ‘द्यौ’ सूर्य इत्यादी गोलांचा प्रकाश व विज्ञान सदैव आम्हाला सुखदायक ठरो व आकाश, पृथ्वी, जल, औषधी, वनस्पती, वट इत्यादी वृक्ष, जगातील सर्व विद्वान, वेदब्रह्म हे सर्व पदार्थ व याहूनही भिन्न असलेले जग आम्हाला सदैव सुख देवो. हे सर्व पदार्थ आम्हाला सदैव अनुकूल असावे, ज्यामुळे हे वेदभाष्य आम्ही सुखपूर्वक करू शकू. या प्रकारे विद्या, बुद्धी, विज्ञान, आरोग्य व उत्तम साह्य तुझ्या कृपेने शांतिपूर्वक प्राप्त व्हावे व आम्हाला व सर्व जगाला उत्तम गुण व सुखाचे दान दे. ॥६॥ (यतो य.) हे परमेश्वरा! तू ज्या ज्या देशात किंवा स्थानी जगाची रचना व पालन करण्यासाठी प्रयत्न केला जातो ते ते स्थान आमच्यासाठी भयरहित कर. अर्थात, कोणत्याही स्थानापासून आम्हाला भय वाटता कामा नये. (शन्न: कुरु) सर्व दिशांमध्ये राहणारे पशू व प्रजा आहे, त्यांच्यापासून आम्हाला भय वाटता कामा नये. त्यांना आम्ही सुखी करावे व त्यांनाही आमचे भय वाटता कामा नये व तुझ्या प्रजेत जी माणसे व पशू इत्यादी आहेत त्यांच्याकडून धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष तुझ्या कृपेनेच सिद्ध व्हावेत. ज्यामुळे माणसाला धर्म इत्यादी फळ सहजतेने प्राप्त व्हावेत. ॥७॥ (यस्मिन्नृच:) हे भगवान कृपानिधे (ऋच:) ऋग्वेद, (साम) सामवेद, (यजूँाषि) यजुर्वेद व तिन्हींच्या अंतर्गत असल्यामुळे अथर्ववेद हे सर्व ज्याच्यामध्ये स्थित आहेत व ज्याच्यामध्ये मोक्षविद्या अर्थात ब्रह्मविद्या व सत्यासत्याचा प्रकाश असतो (यस्मिँश्वि.) ज्यात सर्व प्रजेचे चित्त स्मरण करण्याची वृत्ती आहे. जसे माळेमध्ये मणी सूत्रात (दोऱ्यात) ओवलेले असतात व जसे रथाच्या चक्राच्या मध्यभागी आरे असतात त्या काष्ठात जसे अन्य काष्ठ लावलेले असतात, तशा त्या सर्व गठित आहेत. असे माझे मन तुझ्या कृपेने शुद्ध व्हावे व मोक्ष व सत्यधर्माचे अनुष्ठान करून कल्याणाची इच्छा आणि असत्याचा परित्याग करण्याचा संकल्प पूर्ण व्हावा. त्या मनामुळे तुझ्या वेदाचे सत्य अर्थ आम्हाला कळावेत. ॥८॥ हे सर्वविद्यामय सर्वार्थवित् जगदीश्वरा! तू आमच्यावर कृपा कर. ज्यामुळे आम्ही सदैव विघ्नापासून दूर राहावे व तुझ्या वेदांचा सत्य अर्थ विस्तारपूर्वक करून जगात कीर्ती वाढवावी. हे भाष्य पाहून वेदानुसार सत्याचे अनुष्ठान करून आम्ही सदैव श्रेष्ठ गुण धारण करावेत, त्यासाठी आम्ही प्रेमाने तुझी प्रार्थना करतो ती तू ताबडतोब ऐक. ज्यामुळे सर्वांवर उपकार करणारे वेदभाष्याचे अनुष्ठान योग्य रीतीने सिद्ध व्हावे.
इंग्लिश (4)
Meaning
God is the giver of spiritual force, and physical strength. His commandments all the learned persons acknowledge. He is the maker of all laws. His support is life immortal and transgression of His Law is death. May we worship with devotion, Him the Illuminator and Giver of happiness.
Meaning
The Lord who is the giver of birth to the soul with its power and potential, whose glory all the divinities of the world celebrate in song, whose shade of protection is immortality and falling off is death, to Him we offer our homage and worship in hymns with havi.
Purport
O ye people of the World I The God who is the bestower of self-knowledge, life and vital-energy, who is the giver of three fold-three types of strength i.e. firstly, mental strength with true knowledge, secondly, the strength of sense-organs-the soundness of the ears etc. and brillance, thirdly, physical strength-health of the body, the robustness of muscles, firmness of limbs, increment of semen. The learned and wise obey His commands in a right manner. None in the world can transgress His eternal laws and rules, may he be animate or inanimate, learned or fool. Just as a man listens to by ears and sees the objects by eyes, none can do it otherwise. Taking shelter under Him is called the cause of final emancipation [liberation] for the learned. The lack of His mercy [refuge] is the cause of untold miseries— undergoing the cycle of birth and death again and again, for the wicked. O the good friends! He is the only Father who is the Bestower of Divine Bliss. Come, all of us should love Him, have faith in Him. We should never worship anybody else. He will bless us with perfect bliss, there is no doubt about it.
Translation
He, who is the bestower of spirit, and the bestower of strength, whom the whole of the universe worships, and whose command is obeyed by all the bounties of Nature, whose shade is the life immortal, and who is the Lord of death itself, to Him, the Lord, we offer our oblations. (1)
Notes
Ātmadā, bestower of spirit (spiritual power). Praśişam yasya, under whose command; obedient to. Yasyacchāya amṛtam yasya mṛtyuḥ, whose shade or shelter is the immortality and who is the Lord of death itself, i. e. death is His agent only. Prof. Max Muller has rendered it: 'Whose shadow is immortality, whose shadow is death'. It may mean that His cold shadow, (His displeasure or ignorance) is death; His bright shadow (His reflection and meditation) makes the wor shipper immortal. But if we regard death not as a curse or disas ter, but as a boon that provides us with rest and peace when it is needed most in the miserable old age, both the life and death will appear to be His graceful shadows.
बंगाली (1)
विषय
পুনরুপাসিত ঈশ্বরঃ কিং দদাতীত্যাহ ॥
পুনঃ উপাসিত ঈশ্বর কী দান করেন, সেইবিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! (য়ঃ) যে (আত্মদাঃ) আত্মদাতা এবং (বলদাঃ) বলদাতা (য়স্য) যাহার (প্রশিষম্) উত্তম শিক্ষাকে (বিশ্বে) সমস্ত (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ (উপাসতে) উপাসনা করেন (য়স্য) যাহার সমীপ হইতে সব ব্যবহার উৎপন্ন হয় (য়স্য) যাহার (ছায়া) আশ্রয় (অমৃতম্) অমৃতস্বরূপ এবং (য়স্য) যাহার আজ্ঞা ভঙ্গ (মৃত্যুঃ) মরণতুল্য সেই (কস্মৈ) সুখরূপ (দেবায়) স্তুতির যোগ্য পরমাত্মার জন্য আমরা (হবিষা) হোম করিবার পদার্থ দ্বারা (বিধেম্) সেবার বিধান করি ॥ ১৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যে জগদীশ্বরের উত্তম প্রশাসনে কৃত মর্য্যাদায় সূর্য্যাদি লোক নিয়ম সহ বর্ত্তমান, যে সূর্য্য ব্যতিরেকে জলের বর্ষা এবং অবস্থার নাশ হয় না সেই সবিতৃমণ্ডল যিনি নির্মাণ করিয়াছেন তাহারই উপাসনা সকলে মিলিয়া করি ॥ ১৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়ऽআ॑ত্ম॒দা ব॑ল॒দা য়স্য॒ বিশ্ব॑ऽউ॒পাস॑তে প্র॒শিষং॒ য়স্য॑ দে॒বাঃ ।
য়স্য॑ ছা॒য়াऽমৃতং॒ য়স্য॑ মৃ॒ত্যুঃ কস্মৈ॑ দে॒বায়॑ হ॒বিষা॑ বিধেম ॥ ১৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য় আত্মদা ইত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । পরমাত্মা দেবতা । নিচৃৎ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
नेपाली (1)
विषय
स्तुतिविषयः
व्याखान
हे मनुष्य हो ! यः = जुन परमात्मा हामीहरुलाई आत्मदा: = आत्मा र आत्मज्ञानादि को दाता हो, जीवन र प्राणदिने तथा बलदा: = त्रिविधबल दिने पहिलो मानस- 'विज्ञानबल' दोस्रो - 'इन्द्रियबल' अर्थात् श्रोत्रादि को स्वास्थ्यता, तेजोवृद्धि र तेस्रो हो - ‘शरीरबल’ नैरोग्य, महापुष्टि, दृढाङ्गता र वीर्यादि वृद्धि - ई तीन प्रकार का बल दाता हो जसको प्रशिषम् = अनुशासन [शिक्षा मर्यादा ] लाई देवाः= विद्वान् हरु यथावत् मान्दछन् । सबै प्राणी-अप्राणी जड् चेतन, विद्वान् वा मूर्ख तेस परमात्मा का नियम हरु को कसैले कहिल्यै पनि उल्लङ्घन गर्न सक्तैनन्, जस्तै कि कान ले सुन्ने र आँखा ले हेर्ने यसको उल्टो कसैले गर्न सक्दैन । यस्य = जसको छाया= आश्रय नै अमृतम् = विज्ञानी हरु को 'मोक्ष' कहलाउँछ । तथा जस्को अछाया [अकृपा ] दुष्टजन हरु का लागी बारम्बार मरण र जन्मरूप महावक्लेशदायक हो हे सज्जन मित्र हो ! उही एक परमसुखदायक पिता हो । आउनु होस् कस्मै देवाय हविषा विधेम = हामी सबै जना मिलेर ऊ संग प्रेम गरौं, उसमा विश्वास र उसको भक्ति गरौँ, कहिल्यै उसलाई छोडेर अन्य लाई उपास्य न मानौं । उसले हामीलाई अत्यन्त दिने छ यसमा अलिकति पनि सन्देह छैन ॥४८॥
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