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यजुर्वेद अध्याय - 25

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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 16
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः
    139

    तान् पूर्व॑या नि॒विदा॑ हूमहे व॒यं भगं॑ मि॒त्रमदि॑तिं॒ दक्ष॑म॒स्रिध॑म्।अ॒र्य॒मणं॒ वरु॑ण॒ꣳ सोम॑म॒श्विना॒ सर॑स्वती नः सु॒भगा॒ मय॑स्करत्॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तान्। पूर्व॑या। नि॒विदेति॑ नि॒ऽविदा॑। हू॒म॒हे॒। व॒यम्। भग॑म्। मि॒त्रम्। अदि॑तिम्। दक्ष॑म्। अ॒स्रिध॑म्। अ॒र्य॒मण॑म्। वरु॑णम्। सोम॑म्। अ॒श्विना॑। सर॑स्वती। नः॒। सु॒भगेति॑ सु॒ऽभगा॑। मयः॑। क॒र॒त्॥१६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तान्पूर्वया निविदा हूमहे वयम्भगम्मित्रमदितिन्दक्षमस्रिधम् । अर्यमणँवरुणँ सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तान्। पूर्वया। निविदेति निऽविदा। हूमहे। वयम्। भगम्। मित्रम्। अदितिम्। दक्षम्। अस्रिधम्। अर्यमणम्। वरुणम्। सोमम्। अश्विना। सरस्वती। नः। सुभगेति सुऽभगा। मयः। करत्॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यथा वयं पूर्वया निविदा दक्षमर्यमणमस्रिधं भगं मित्रमदितिं वरुणं सोममश्विना हूमहे यथा सुभगा सरस्वती नो युष्मभ्यं च मयस्करत् तथा तान् यूयमप्याह्वयत कुरुत च॥१६॥

    पदार्थः

    (तान्) पूर्वोक्तान् (पूर्वया) पूर्वैः स्वीकृतया (निविदा) वेदवाचा। निविदिति वाङ्नामसु पठितम्॥ (निघं॰१।११) (हूमहे) स्पर्द्धेमहि (वयम्) (भगम्) ऐश्वर्यकारकम् (मित्रम्) सर्वस्य सुहृदम् (अदितिम्) अखण्डितप्रज्ञम् (दक्षम्) चतुरम् (अस्रिधम्) अहिंसनीयम् (अर्यमणम्) प्रजायाः पालकम् (वरुणम्) श्रेष्ठम् (सोमम्) ऐश्वर्यवन्तम् (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (सरस्वती) सर्वविद्यायुक्ता (नः) अस्मभ्यम् (सुभगा) सुष्ठ्वैश्वर्या (मयः) सुखम् (करत्) कुर्यात्॥१६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यद्यद्वेद्वोक्तं कर्म तत्तदेवानुष्ठेयं यथा सद्विद्यार्थिनः स्पर्द्धया विद्यां वर्द्धयन्ति, तथैव सर्वैर्विद्या वर्द्धनीया। यथा पूर्णविद्या माता सन्तानान् सुशिक्षया विद्याः प्रापय्य वर्द्धयति, तथैव सर्वैः सुखं दत्त्वा सर्वे वर्द्धनीयाः॥१६॥

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    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे मनुष्या यथा वयं पूर्वया निविदा दक्षमर्यमणमस्रिधं भगं मित्रमदितिं वरुणं सोममश्विना हूमहे यथा सुभगा सरस्वती नो युष्मभ्यं च मयस्करत्तथा तान् यूयमप्याह्वयत कुरुत च ॥ १६॥ सपदार्थान्वय:--हे मनुष्याः! यथा वयं पूर्वया पूर्वैः स्वीकृतया निविदा वेदवाचा दक्षं चतुरम्, अर्यमणं प्रजायाः पालकम्, अस्रिधम् अहिंसनीयं, भगम् ऐश्वर्यकारकं, मित्रं सर्वस्य सुहृदम्, अदितिम् अखण्डितप्रज्ञं, वरुणं श्रेष्ठं, सोमम् ऐश्वर्यवन्तम्, अश्विना अध्यापकोपदेशकौ हूमहे स्पर्धेमहि, यथा सुभगा सुष्ठ्वैश्वर्या सरस्वती सर्वविद्यायुक्ता नः अस्मभ्यं युष्मभ्यञ्च मयः सुखं करत् कुर्यात्; तथा तान् पूर्वोक्तान्यूयमप्याह्वयत, कुरुत च॥ २५ । १६ ॥

    पदार्थः

    (तान्) पूर्वोक्तान् (पूर्वया) पूर्वैः स्वीकृतया (निविदा) वेदवाचा।निविदिति वाङ्ना० । निघं० १ । ११ ॥ (हूमहे) स्पर्द्धेमहि (वयम्) (भगम्) ऐश्वर्यकारकम् (मित्रम्) सर्वस्य सुहृदम् (अदितिम्) अखण्डितप्रज्ञम् (दक्षम्) चतुरम् (अस्रिधम्) अहिंसनीयम् (अर्यमणम्) प्रजायाः पालकम् (वरुणम्) श्रेष्ठम् (सोमम्) ऐश्वर्यवन्तम् (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (सरस्वती) सर्वविद्यायुक्ता (नः) अस्मभ्यम् (सुभगा) सुष्ठ्वैश्वर्या (मयः) सुखम् (करत्) कुर्यात् ॥ १६ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । मनुष्यैर्यद्यद्वेदोक्तं कर्म तत् तदेवानुष्ठेयं; यथा सद्विद्यार्थिनः स्पर्द्धया विद्यां वर्द्धयन्ति तथैव सर्वौर्विद्या वर्द्धनीया । यथा--पूर्णविद्यामाता सन्तानान् सुशिक्षया विद्याः प्रापय्य वर्द्धयति, तथैव सर्वैः सर्वस्मै सुखं दत्त्वा, सर्वे वर्द्धनीयाः ॥ २५ । १६ ॥ -

    भावार्थ पदार्थः

    सुभगा=पूर्ण विद्यामाता । सरस्वती=सुशिक्षा विद्या च ॥

    विशेषः

    प्रजापतिः । विश्वेदेवाः=विद्वांसः । जगती । निषादः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो जैसे (वयम्) हम लोग (पूर्वया) अगले सज्जनों ने स्वीकार की हुई (निविदा) वेदवाणी से (दक्षम्) चतुर (अर्यमणम्) प्रजापालक (अस्रिधम्) न विनाश करने योग्य (भगम्) ऐश्वर्य कराने वाले (मित्रम्) सब के मित्र (अदितिम्) जिस की बुद्धि कभी खण्डित नहीं होती, उस (वरुणम्) श्रेष्ठ (सोमम्) ऐश्वर्यवान् तथा (अश्विना) पढ़ाने वाले को (हूमहे) परस्पर हिरस करते हुए चाहते हैं। जैसे (सुभगा) सुन्दर ऐश्वर्य वाली (सरस्वती) समस्त विद्याओं से पूर्ण वेदवाणी (नः) हमारे और तुम्हारे लिये (मयः) सुख को (करत्) करे, वैसे (तान्) उन उक्त सज्जनों को तुम भी चाहो और सुख करो॥१६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो-जो वेद में कहा हुआ काम है, उस-उस का ही अनुष्ठान करें। जैसे अच्छे विद्यार्थी दूसरे की हिरस से अपनी विद्या को बढ़ाते हैं, वैसे ही सब को विद्या बढ़ानी चाहिये। जैसे परिपूर्ण विद्यायुक्त माता अपने सन्तानों को अच्छी शिक्षा दे, विद्याओं की प्राप्ति करा, उनकी विद्या बढ़ाती है, वैसे ही सब को सब के लिये सुख देकर सब की वृद्धि करनी चाहिये॥१६॥

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    विषय

    उनका आदर सत्कार ।

    भावार्थ

    ( वयम् ) हम (भगम् ) ऐश्वर्यवान्, ( मित्रम् ) स्नेही, ( अदितिम् ) अखण्ड ब्रह्मचारी, अखण्ड विद्यावान्, (दक्षम् ) ज्ञानवान्, बलवान्, कार्यचतुर, ( अस्त्रिधम् ) बात से न चूकने वाला, सदा सद्भावयुक्त, अहिंसक, ( अर्यमणम् ) न्यायकारी, स्वामी, ( वरुणम् ) सर्वश्रेष्ठ, दुःखों के वारक, ( सोमम् ) सन्मार्ग में प्रेरक, ऐश्वर्यवान्, (अश्विनौ) विद्या में निष्णात स्त्री और पुरुष और (सुभगा ) उत्तम सौभाग्य से युक्त (सरस्वती) वेदवाणी, विद्वत्सभा या विदुषी स्त्री इन (तान् ) नाना विद्वानों की हम (पूर्वया) सबसे पूर्व विद्यमान अथवा पूर्णभाव से युक्त, अथवा प्रथम जिस रूप में चित्त में आई, ऐसी अकृत्रिम सत्य (निविदा) ज्ञानयुक्त वाणी से (हूमहे) आदर सत्कार करें । वह (नः) हमें (मयः) सुख, कल्याण ( करत् ) करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वेदेवाः । जगती । निषादः ॥

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    भाषार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे हम--(पूर्वया) पूर्वजों से स्वीकृत (निविदा) वेदवाणी के निमित्त (दक्षम्) चतुर, (अर्यमणम्) प्रजा के पालक, (अस्रिधम्) हिंसा के अयोग्य, (भगम्) ऐश्वर्यकारक, (मित्रम्) सबके मित्र, (अदितिम्) अखण्डित प्रज्ञा वाले (वरुणम्) श्रेष्ठ (सोमम्) ऐश्वर्यवान् विद्वान् तथा (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक की (हूमहे) स्पर्धा=कामना करते हैं; और जैसे (सुभगा) उत्तम ऐश्वर्य वाला (सरस्वती) सब विद्याओं से युक्त माता (नः) हमें और तुम्हें (मय:) सुख (करत्) देती है; वैसे (तान्) उन पूर्वोक्त विद्वानों को तुम भी बुलाओ और सुख प्रदान करो ॥ २५ । १६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलंकार है। मनुष्य जो-जो वेदोक्त कर्म है, उस-उस का ही अनुष्ठान करें।जैसे उत्तम विद्यार्थी लोग स्पर्द्धा से विद्या को बढ़ाते हैं वैसे ही सब लोग विद्या को बढ़ावें। जैसे पूर्ण विद्या से युक्त माता सन्तानों को सुशिक्षा से विद्याएँ प्राप्त कराकर बढ़ाती है, वैसे ही सब लोग सब को सुख देकर सब को बढ़ावें ॥ २५ । १६ ॥

    प्रमाणार्थ

    (निविदा) वेदवाचा । 'निविद्' यह पद निघं० (१ । ११) में वाक्-नामों मेंपठित है। वाक्=वेदवाणी ।

    भाष्यसार

    मनुष्य किसकी इच्छा करें--सब मनुष्य पूर्व विद्वानों से स्वीकार की गई वेदवाणी के निमित्त--चतुर, प्रजा के पालक, हिंसा के अयोग्य, ऐश्वर्यकारक, सबके मित्र, अखण्डित प्रज्ञा=बुद्धि वाले, श्रेष्ठ, ऐश्वर्यवान् विद्वान् की तथा अध्यापक और उपदेशक की कामना करें। मनुष्य, जो-जो वेदोक्त कर्म है, उस-उस का ही अनुष्ठान करें। जैसे अच्छे विद्यार्थी स्पर्द्धा से विद्या को बढ़ाते हैं वैसे विद्या को बढ़ावें। जैसे उत्तम ऐश्वर्य से सम्पन्न, सब विद्याओं से युक्त विदुषी माता अपने सन्तानों को सुशिक्षा से विद्या प्रदान करती है, उन्हें बढ़ाती है वैसे सब मनुष्य परस्पर सुख प्रदान करके सबको बढ़ावें ॥ २५ । १६ ॥

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    विषय

    देव-हूति

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में देवों की मित्रता प्राप्त करने की प्रार्थना थी। उन्हीं देवों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि (तान्) = उन देवों को पूर्वया सृष्टि के आरम्भ में दी गई (निविदा) = [निविदा इति वाङ् नाम - नि० १।११ ] इस निश्चयात्मक ज्ञान देनेवाली वेदवाणी के हेतु से (वयम्) = हम (हूमहे) = पुकारते हैं, अर्थात् इन विद्वानों को हम इसलिए समीप प्राप्त करना चाहते हैं कि ये हमें उत्तम वेदज्ञान प्राप्त करानेवाले हों। २. किन देवों को? [क] (भगम्) =' ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान व वैराग्यरूप भग से युक्त को [ख] (मित्रम्) = [मिद् स्नेहने] सबके साथ स्नेह करनेवाले को तथा [प्रमीते: त्रायते] पाप से बचानेवाले को [ग] (अदितिम्) = अदीनभाव से युक्त होकर दिव्य गुणों का अपने में निर्माण करनेवाले को अथवा किसी का खण्डन व हिंसन न करनेवाले को [अदीना देवमाता- नि०, न दितिः यस्मात्] [घ] (दक्षम्) = कार्यकुशल को, कर्मयोगी को [ङ] (अस्त्रिधम्) = न स्स्रेधते। कभी सद्भाव को नष्ट न होने देनेवाले को [च] (अर्यमणम्) = 'अर्यमेति तमाहुर्यो ददाति = सदा दानशील को [छ] (वरुणम्) = द्वेष का निवारण करनेवाले अतएव श्रेष्ठ को [ज] (सोमम्) = सौम्य स्वभाववाले शान्त को [झ] (अश्विना) = प्राणापानशक्तिसम्पन्न को अथवा सूर्य-चन्द्र के गुणधर्मों से युक्त को । सूर्य के समान प्रकाशमय तथा चन्द्र के समान आनन्दमय को ३. इन सब देवों को तो हम बुलाते ही हैं। इनके साथ सतत सम्पर्क होने पर (सुभगा) = सब उत्तम भगों को प्राप्त करानेवाली (सरस्वती) = ज्ञानाधिदेवता (नः) = हमारा (मयस्करत्) = कल्याण करे। देवों के सम्पर्क में रहने से से हमारा हमारा ज्ञान बढ़ता है, उस ज्ञानवृद्धि कल्याण होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम देवों के सम्पर्क में आकर उनसे ज्ञान प्राप्त करें जो हमारा कल्याण करे।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. वेदात जे जे सांगितले गेले आहे त्याचे माणसांनी अनुष्ठान करावे. जसे चांगले विद्यार्थी दुसऱ्या बरोबर स्पर्धा करून आपली विद्या वाढवितात तशीच सर्वांनी विद्या वाढवावी. पूर्ण विद्या प्राप्त झालेली माता जशी आपल्या संतानांना चांगले शिक्षण देऊन त्यांची विद्या वाढविते, तसेच सर्वांनी सर्वांसाठी सुखाची वृद्धी करावी.

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    विषय

    पुन्हा तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (वयम्) आम्ही (ज्ञानार्थीलोक) (पूर्वया) पूर्वी झालेल्या सज्जनांनी अंगिकारलेल्या (निविदा) वेदवाणीच्या माध्यमाने (दक्षम्) (अर्यमणम्) प्रजापालक आणि (अस्त्रिधम्) वा ज्ञानाला प्राप्त करण्यासाठी यत्न केला, तसे तुम्हीही करा) तसेच (भगम्) ऐश्‍वर्यदाता (मित्रम्) सर्वांचा जो मित्र (अदितिम्) ज्याची बुद्धी कधी खंडित वा बाधित होत नाही, अशा त्या (वरूणम्) श्रेष्ठ (सोमम) ऐश्‍वर्यवान तथाच (अश्‍विना) अध्यापक आणि विद्यार्थी यांची (हूमेह) एकमेकाशी स्पर्धा करीत इच्छा करतो, चाहतो. आमच्याप्रमाणे हे मनुष्यानो, तुम्हीही (सुभगा) सुंदर ऐश्‍वर्यवती (सरस्वती) समस्त विद्यांनी परिपूर्ण वेदवाणीचा (नः) आमच्याकरीता तसेच तुमच्याकरीता (मयः) सुखदायी स्वीकार (करत्) करा (तान्) त्या विद्वान सज्जनांची तुम्हीही कामना करा आणि सुखी व्हा. ॥16॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. मनुष्यां करिता हेच हिताचे आहे की जे जे वेदात सांगितलेले कर्तव्य कर्मे आहेत, त्याचे पालन करावे. ज्या प्रमाणे चांगला विद्यार्थी अन्य विद्यार्थ्यांशी स्पर्धा करीत आपल्या विद्या-ज्ञानात वृद्धी करतात, तद्वत सर्वांनी विद्यावृद्धी केली पाहिजे. ज्याप्रमाणे एक विदुषी माता आपल्या मुला-बाळांना उत्तम शिक्षण व संस्कार देते, त्यांच्यासाठी विद्याप्राप्तीची व्यवस्था करते, त्यांच्या ज्ञानात भर घालते, तद्वत सर्व लोकानी सर्वांसाठी सुखाची व्यवस्था करावी. अशाप्रकारे स्वःची आणि सर्वांची उन्नती घडविली पाहिजे. ॥16॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    We, through vedic speech, accepted by our ancestors; long through mutual emulation for a teacher and a preacher, honest, guardian of the people, inviolable, giver of prosperity, friendly, completely wise, noble, and affluent. May auspicious vedic speech grant us all felicity.

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    Meaning

    Those we invoke and honour in yajna with the ancient, eternal and self-proclaimed voice of the Veda: Bhaga, giver of glory, Mitra, universal friend, Aditi, mother of indestructible wisdom, Daksha, lord versatile and inviolable, Aryama, sustainer of creation, Varuna, best and highest, Soma, giver of peace, prosperity, knowledge and happiness, Ashvinis, givers of health and well-being, and all the teachers and scholars of the world. May mother Sarasvati, benevolent and beatific, give us all the good and gracious gifts of life.

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    Translation

    Then we invoke with traditional compliments prosperous men, well-wishers, preceptors, custodians, judges,aesthetes, physicians, surgeons and educationists. May they be auspicious and givers of happiness to us. (1)

    Notes

    Bhaga, Mitra, Aditi, Aryaman, Varuna, Soma, Asvins and Sarasvati are invoked here for granting happiness; these have been rendered here as prosperous men, well-wishers, preceptors, custodians, judges, aesthetes, physicians and surgeons and edcationists respectively. Dakşa, strength; creative power associated with Aditi and therefore sometimes with Prajāpāti. (Griffith).

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেইবিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন (বয়ম্) আমরা (পূর্বয়া) পূর্ব স্বীকৃত (নিবিদা) বেদবাণী দ্বারা (দক্ষম্) দক্ষ (অর্য়মণম্) প্রজাপালক (অস্রিধম্) বিনাশ না করিবার যোগ্য (ভগম্) ঐশ্বর্য্যকারক (মিত্রম্) সকলের মিত্র (অদিতিম্) যাহার বুদ্ধি অখণ্ডিত সেই (বরুণম্) শ্রেষ্ঠ (সোমম্) ঐশ্বর্য্যবান্ তথা (অশ্বিনা) অধ্যাপক-উপদেশককে (হূমহে) পরস্পর স্পর্দ্ধা করিয়া কামনা করি । যেমন (সুভগা) সুন্দর ঐশ্বর্য্যবতী (সরস্বতী) সমস্ত বিদ্যা সমূহের দ্বারা পূর্ণ বেদবাণী (নঃ) আমাদের এবং তোমাদের জন্য (ময়ঃ) সুখকে (করৎ) করিবে তদ্রূপ (তান্) সেই সব উক্ত সজ্জনদিগকে তোমরাও কামনা কর ও সুখ কর ॥ ১৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যাহা যাহা বেদোক্ত কর্ম্ম তাহার তাহারই অনুষ্ঠান করিবে । যেমন উত্তম বিদ্যার্থী অপরের সহিত প্রতিদ্বন্দিতা করিয়া বিদ্যার বৃদ্ধি করে সেইরূপ সকলকে বিদ্যা বৃদ্ধি করা উচিত । যেমন পরিপূর্ণ বিদ্যাযুক্ত মাতা নিজ সন্তানগণকে উত্তম শিক্ষা দিয়া, বিদ্যাসকলকে প্রাপ্ত করাইয়া, তাহাদের বিদ্যা বৃদ্ধি করে তদ্রূপ সকলকে সকলের জন্য সুখ প্রদান করিয়া সকলের বৃদ্ধি করা উচিত ॥ ১৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    তান্ পূর্ব॑য়া নি॒বিদা॑ হূমহে ব॒য়ং ভগং॑ মি॒ত্রমদি॑তিং॒ দক্ষ॑ম॒স্রিধ॑ম্ ।
    অ॒র্য়॒মণং॒ বর॑ুণ॒ꣳ সোম॑ম॒শ্বিনা॒ সর॑স্বতী নঃ সু॒ভগা॒ ময়॑স্করৎ ॥ ১৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    তান্পূর্বয়েত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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