यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 9
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - पूषादयो देवताः
छन्दः - भुरिगत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
124
विधृ॑तिं॒ नाभ्या॑ घृ॒तꣳरसे॑ना॒पो यू॒ष्णा मरी॑चीर्वि॒प्रुड्भि॑र्नीहा॒रमू॒ष्मणा॑ शी॒नं वस॑या॒ प्रुष्वा॒ऽ अश्रु॑भिर्ह्रा॒दुनी॑र्दू॒षीका॑भिर॒स्ना रक्षा॑सि चि॒त्राण्यङ्गै॒र्नक्ष॑त्राणि रू॒पेण॑ पृथि॒वीं त्व॒चा जु॑म्ब॒काय॒ स्वाहा॑॥९॥
स्वर सहित पद पाठविधृ॑ति॒मिति॒ विऽधृ॑तिम्। नाभ्या॑। घृ॒तम्। रसे॑न। अ॒पः। यू॒ष्णा। मरी॑चीः। वि॒प्रुड्भि॒रिति॑ वि॒प्रुट्ऽभिः॑। नी॒हा॒रम्। ऊ॒ष्मणा॑। शी॒नम्। वस॑या। प्रुष्वाः॑। अश्रु॑भि॒रित्यश्रु॑ऽभिः। ह्ना॒दु॒नीः॑। दू॒षीका॑भिः। अ॒स्ना। रक्षा॑ꣳसि। चि॒त्राणि॑। अङ्गैः॑। नक्ष॑त्राणि। रू॒पेण॑। पृ॒थि॒वीम्। त्व॒चा। जु॒म्ब॒काय॑। स्वाहा॑ ॥९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विधृतिन्नाभ्या धृतँ रसेनापो यूष्णा मरीचीर्विप्रुड्भिर्नीहारमूष्मणा शीनँवसया प्रुष्वाऽअश्रुभिह््र्रादुनीर्दूषीकाभिरस्ना रक्षाँसि चित्राण्यङ्गैर्नक्षत्राणि रूपेण पृथिवीन्त्वचा जुम्बकाय स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
विधृतिमिति विऽधृतिम्। नाभ्या। घृतम्। रसेन। अपः। यूष्णा। मरीचीः। विप्रुड्भिरिति विप्रुट्ऽभिः। नीहारम्। ऊष्मणा। शीनम्। वसया। प्रुष्वाः। अश्रुभिरित्यश्रुऽभिः। ह्नादुनीः। दूषीकाभिः। अस्ना। रक्षाꣳसि। चित्राणि। अङ्गैः। नक्षत्राणि। रूपेण। पृथिवीम्। त्वचा। जुम्बकाय। स्वाहा॥९॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनः केन किं भवतीत्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यूयं नाभ्या विधृतिं घृतं रसेनापो यूष्णा मरीचीर्विप्रुड्भिर्नीहारमूष्मणा शीनं वसया प्रुष्वा अश्रुभिर्ह्रादुनीर्दूषीकाभिश्चित्राणि रक्षांस्यनाङ्गै रूपेण नक्षत्राणि त्वचा पृथिवीं विदित्वा जुम्बकाय स्वाहा प्रयुङ्ग्ध्वम्॥९॥
पदार्थः
(विधृतिम्) विशेषेण धारणाम् (नाभ्या) शरीरस्य मध्यावयवेन (घृतम्) आज्यम् (रसेन) (अपः) जलानि (यूष्णा) क्वथितेन रसेन (मरीचीः) किरणान् (विप्रुड्भिः) विशेषेण पूर्णैः (नीहारम्) प्रभातसमये सोमवद्वर्त्तमानम् (ऊष्मणा) उष्णतया (शीनम्) संकुचितं घृतम् (वसया) निवासहेतुना जीवनेन (प्रुष्वाः) पुष्णन्ति सिञ्चन्ति याभिस्ताः (अश्रुभिः) रोदनैः (ह्रादुनीः) शब्दानामव्यक्तोच्चारणक्रियाः (दूषीकाभिः) विक्रियाभिः (अस्ना) रुधिराणि (रक्षांसि) पालयितव्यानि (चित्राणि) अद्भुतानि (अङ्गैः) अवयवैः (नक्षत्राणि) (रूपेण) (पृथिवीम्) भूमिम् (त्वचा) मांसरुधिरादीनां संवरकेणेन्द्रियेण (जुम्बकाय) अतिवेगवते (स्वाहा) सत्यां सत्यां वाचम्॥९॥
भावार्थः
मनुष्यैर्धारणादिभिः कर्मभिर्दुर्व्यसनानि रोगाँश्च निवार्य्य सत्यभाषणादिधर्मलक्षणानि विचार्य्य प्रवर्त्तनीयम्॥९॥
विषयः
पुनः केन किं भवतीत्याह ॥
सपदार्थान्वयः
हे मनुष्या यूयं नाभ्या विधृतिं घृतं रसेनापो यूष्णा मरीचीर्विप्रुड्भिर्नीहारमूष्मणा शीनं वसया प्रुष्वा अश्रुभिर्ह्रादुनीर्दूषीकाभिश्चित्राणि रक्षांस्यस्नाङ्गैः रूपेण नक्षत्राणि त्वचा पृथिवीं विदित्वा जुम्बकाय स्वाहा प्रयुङ्ग्ध्वम् ॥ ९ ॥ सपदार्थान्वयः--हे मनुष्याः ! यूयं नाभ्या शरीरस्य मध्यावयवेन विधृतिं विशेषेण धारणां; घृतम्आज्यं, रसेन; अपः जलानि यूष्णा क्वथितेन रसेन, मरीची: किरणान् विप्रुड्भिः विशेषेण पूर्णै: नीहारं प्रभातसमये सोमवद्वर्त्तमानम्, ऊष्मणा ऊष्णतया शीनं सङ्कुचितं घृतं, वसया निवासहेतुना जीवनेन प्रुष्वाः पुष्णन्ति=सिञ्चन्ति याभिस्ताः, अश्रुभिः रोदनैः ह्रादुनी: शब्दानामव्यक्तोच्चारणक्रियाः, दूषीकाभिः विक्रियाभिः चित्राणि अद्भुतानि रक्षांसि पालयितव्यानि अस्ना रुधिराणि, अङ्गैः अवयवैः रूपेण नक्षत्राणि, त्वचा मांसरुधिरादीनां संवरकेणेन्द्रियेण पृथिवीं भूमिंविदित्वा जुम्बकाय प्रतिवेगवते स्वाहा सत्यां वाचं प्रयुङ्ग्ध्वम् ॥ २५ । ९ ॥
पदार्थः
(विधृतिम्) विशेषेण धारणाम् (नाभ्या) शरीरस्य मध्यावयवेन (घृतम्) आज्यम् (रसेन) (अप:) जलानि (यूष्णा) क्वथितेन रसेन (मरीचीः) किरणान् (विप्रुड्भिः) विशेषेण पूर्णैः (नीहारम्) प्रभातसमये सोमवद्वर्त्तमानम् (ऊष्मणा) ऊष्णतया (शीनम्) संकुचितं घृतम् (वसया) निवासहेतुना जीवनेन (प्रुष्वाः) पुष्णन्ति=सिंचन्ति याभिस्ताः (अश्रुभिः) रोदनैः (ह्रादुनीः) शब्दानामव्यक्तोच्चारणक्रिया: (दूषीकाभिः) विक्रियाभिः (अस्ना) रुधिराणि (रक्षांसि) पालयितव्यानि (चित्राणि) अद्भुतानि (अङ्गैः) अवयवैः (नक्षत्राणि) (रूपेण) (पृथिवीम्) भूमिम् (त्वचा) मांसरुधिरादीनां संवरकेणेन्द्रियेण (जुम्बकाय) अतिवेगवते (स्वाहा) सत्यां वाचम् ॥ ९ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्धारणादिभिः कर्मभिर्दुर्व्यसनानि रोगाँश्च निवार्य्य सत्यभाषणादिधर्मलक्षणानि विचार्य प्रवर्त्तनीयम् ॥ २५ । ९ ॥
भावार्थ पदार्थः
स्वाहा=सत्यभाषणादिधर्मलक्षणानि ॥
विशेषः
प्रजापतिः । पूषादयः=पुष्टिकरादयः । भुरिगत्यष्टिः । गान्धारः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर किससे क्या होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! तुम लोग (नाभ्या) नाभि से (विधृतिम्) विशेष करके धारण को (घृतम्) घी को (रसेन) रस से (अपः) जलों को (यूष्णा) क्वाथ किये रस से (मरीचीः) किरणों को (विप्रुड्भिः) विशेषकर पूरण पदार्थों से (नीहारम्) कुहर को (ऊष्मणा) गरमी से (शीनम्) जमे हुए घी को (वसया) निवासहेतु जीवन से (प्रुष्वाः) जिनसे सींचते हैं, उन क्रियाओं को (अश्रुभिः) आंसुओं से (ह्रादुनीः) शब्दों की अप्रकट उच्चारण-क्रियाओं को (दूषीकाभिः) विकाररूप क्रियाओं से (चित्राणि) चित्र-विचित्र (रक्षांसि) पालना करने योग्य (अस्ना) रुधिरादि पदार्थों को (अङ्गैः) अङ्गों और (रूपेण) रूप से (नक्षत्राणि) तारागणों को और (त्वचा) मांस रुधिर आदि को ढांपने वाली खाल आदि से (पृथिवीम्) पृथिवी को जानकर (जुम्बकाय) अतिवेगवान् के लिये (स्वाहा) सत्य वाणी का प्रयोग अर्थात् उच्चारण करो॥९॥
भावार्थ
मनुष्यों को धारणा आदि क्रियाओं से खोटे आचरण और रोगों की निवृत्ति और सत्यभाषण आदि धर्म के लक्षणों का विचार कर प्रवृत्त करना चाहिये॥९॥
विषय
शरीर की और जगत् की प्रबल शक्तियों की तुलना । अपान और राजा की तुलना ।
भावार्थ
( विधृतिम् ) विशेष रूप से लोकों को धारण पालन करने वाली शक्ति को (नाभ्या) शरीर के मध्य में स्थित नाभि से तुलना करो । (घृतं रसेन) घृत के समान तेजोवर्धक पदार्थ की शरीरस्थ बलकारी रस से, (यूष्णा आपः) शरीर में पक्वाशय में स्थित पक्करस से राष्ट्र में स्थित जनों की या परिपक्क ज्ञान वाले विद्वान् आप्त पुरुषों की, ( मरीची: विप्रुडभिः) सूर्य की किरणों की विशेष पूर्ण रूप करने वाले शरीर के वसा आदि धातुओं से और ( ऊष्मणा नीहारम् ) शरीर में स्थित उष्णता से राष्ट्र के 'नीहार' अर्थात् प्रभात काल में पड़े जल के ओस के फुहार से तुलना करो । अर्थात् जैसे शरीर की गर्मी से सब अंग जीवित जागृत रहते हैं उसी प्रकार ओस से वनस्पति आदि जीवित, वर्धित होते हैं । ( शीनं वसया ) शरीर के अंग प्रत्यंग या मांस के परमाणु २ में बसी जीवन शक्ति से शीन अर्थात् वनस्पतियों और प्राणियों की वृद्धि करने वाली शीतलता की, (मुष्वा अश्रुभिः ) शरीर के आंसुओं से वृक्षों को सींचने वाले फुहारों की (ह्रादुनी: दूषीकाभिः) नेत्र में उत्पन्न मल, गीदों से आकाश में उत्पन्न विद्युतों की, ( अस्त्रां रक्षांसि ) शरीर के रुधिर से रक्षा करने वाले साधनों और रक्षा करने योग्य पदार्थों को, (चित्राणि अङ्गैः) शरीर के भिन्न-भिन्न अङ्गों से राष्ट्र के चित्र विचित्र, स्थानों, दृश्यों और देशों की और (नक्षत्राणि रूपेण) नक्षत्रों की शरीर के बाह्य रूप या रुचि कर तेज से और (पृथिवी त्वचा) पृथिवी या राष्ट्र के पृष्ठ की (त्वचा) शरीर की त्वचा से तुलना करो । अथवा - नाभि से विशेष धारण व्यवस्था जाने, आस्वाद से भोजन का तेजोऽश जाने, रसदार अंग से आप: तत्व जाने, बिन्दु के आकार वाले पदार्थों से विकिरित सूर्य की सात किरणों का ज्ञान करे । सूर्य ताप से जल से उठाने वाले नीहार, जलीय वाष्प का ज्ञान करे, वसा से देह की पुष्टता देखे । अश्रुओं के उद्गम के सिद्धान्त से फुहार के छोड़ने वाले यन्त्र की रचना जाने । अंग से निकलने वाले मलों से देह की रोग पीड़ाएं जाने । रक्त से देह की रक्षाबल जाने, कान्ति प्रकाश से नक्षत्रों की परीक्षा करे । ऊपर की रचना से भूमि की परीक्षा करे । भा०—( जुम्बकाय ) सब शत्रुओं के नाश करने में समर्थ सब से अधिक वेगवान्, बलवान् पुरुष को यह राष्ट्र ( स्वाहा ) उत्तम सत्य प्रतिज्ञा करा कर उसी तरह से सौंप दिया जाय जिस प्रकार ( जुम्बकाय) रोगनाशन में समर्थ वा वेगवान् बलकारी, अपान के अधीन यह समस्त शरीर है । वरुणो वै जुम्बकः । श० १३ । ३ । ६ ॥ ५ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुण्डिभो मुण्डिभो वा औदन्य ऋषिः । जुम्बको वरुणो देवता । पूषादयः । भुरिगत्यष्टिः । गान्धारः ॥द्विपदा यजुर्गायत्री । षड्जः ॥पूषादयः । भुरिगत्यष्टिः । गान्धारः ॥
विषय
फिर किससे क्या होता है, इस विषय का उपदेश किया है॥
भाषार्थ
हे मनुष्यो ! तुम--(नाभ्या) शरीर के मध्य भाग नाभि से (विधृतिम्) विशेष धारण को तथा (घृतम्) घृत को, (रसेन) रस से (अपः) जलों को; (यूष्णा) क्वाथ रूप रस से, (मरीचीः) किरणों को; (विप्रुड्भिः) विशेष पूर्ण बिन्दुओं से (नीहारम्)प्रभात समय में चन्द्र के तुल्य कोहरे को, (उष्मणा) उष्णता से (शीनम्) जमा घृत को, (वसया) निवास के हेतु जीवन से(प्रुष्वा:) पोषक एवं सेचक क्रियाओं को, (अश्रुभिः) रोदन से (ह्रादुनीः) शब्दों की अव्यक्त उच्चारण क्रियाओं को, (दूषीकाभिः) विकारों से (चित्राणि) अद्भुत (रक्षांसि) पालन करने योग्य (अस्ना) रुधिरों को, (अङ्गैः) एवं (रूपेण) रूप से (नक्षत्राणि) नक्षत्रों को, (त्वचा) मांस, रुधिर, आदि को आच्छादक त्वचा इन्द्रिय से (पृथिवीम्) भूमि को जानकर (जुम्बकाय) अति वेगवान् दुर्व्यसनों केनिवारण के लिए (स्वाहा) सत्य वाणी का प्रयोग करो ॥ २५ । ९ ॥
भावार्थ
सब मनुष्य धारणा आदि कर्मों से दुर्व्यसनों और रोगों का निवारण करके सत्यभाषण आदि धर्म के लक्षणों का विचार करके कार्यों में प्रवृत्त हों ॥ २५ ।९ ॥
भाष्यसार
किससे क्या होता है--सब मनुष्य--नाभि से विशेष धारणा शक्ति एवं घृत को, रस से जलों को, क्वाथ रूप रस से किरणों को, बिन्दुओं से कोहरे को, उष्णता से जमे हुए घृत को, जीवन से पोषक एवं सेचक क्रियाओं को, रोदन से अव्यक्त उच्चारणों को, विकारों से अद्भुत एवं रक्षा के योग्य रुधिरों को, अंगों से एवं रूप से नक्षत्रों को, त्वचा इन्द्रिय से भूमि को जानें । इन धारणा आदि कर्मों से अति वेगवान् दुर्व्यसनों और रोगों का निवारण करें। सत्यभाषण आदि धर्म के लक्षणों का विचार करके कार्यों में प्रवृत्त हों ॥ २५ । ९ ॥
विषय
NULL
पदार्थ
२३वें अध्याय की समाप्ति पर 'विश्वा रूपाणि' का उल्लेख था। इसकी व्याख्या सम्पूर्ण २४वें अध्याय में ६०९ पशुओं के अश्वमेघ यज्ञ में बन्धन करने के वर्णन से हुई है । २५वें अध्याय के प्रारंभिक नौ मन्त्रों में राष्ट्र- शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्गों का वर्णन हुआ है। इस उत्तम राष्ट्र में निवास करते हुए हम प्रभु की उपासना से अपने जीवनों को और भी उत्तम बनाएँ, अतः मन्त्र में प्रभु-उपासना निम्न प्रकार से की गई है-
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी (योग) धारणा वगैरे क्रिया करून असत्याचरण व रोग यांची निवृत्ती करावी आणि सत्यभाषण इत्यादी धर्माच्या लक्षणाचा विचार करून त्यात प्रवृत्त व्हावे.
विषय
यानंतर कशाने काय होते, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, तुम्ही (नाभ्या) नाभीपासून वा नाभीद्वारा (विधृतिम्) विशेष धारणाशक्तीला ओळखून घ्या. (नाभीमुळे शरीर-धारणा होते) (धृतम्) आणि तुपाचे लाभ मिळवा. (रसेन) रसाद्वारे (अपः) जलाचे आशि (यूष्णा) क्वाथसारख्या रसांद्वारे (मरीचीः) सूर्याच्या किरणांचे ज्ञान मिळवा. (विप्रुड्भिः) विशेष पूर्ण पदार्थांद्वारे (नीहारम्) धुक्याचे आणि (ऊष्मणा) उष्णतेपासून (शीनम्) थिजलेल्या तुपाचे ज्ञान मिळवा. (वसया) निवासाकरिता आवश्यक कार्यांद्वारे (प्रुष्वा) सिंचन (सारवणे, धुणे आदी गृहकार्यांचे ज्ञान मिळवा. (अश्रुभिः) अश्रूंपासून (ह्रादुनीः) शब्दांचे अस्पष्ट उच्चारण आदी क्रिया यांना ओळखा. (दूषीकाभिः) विकारयुक्त क्रियांद्वारे (त्रित्राणी) चित्र-विचित्र तसेच (रक्षांसि) पालनीय अशा (अस्ना) कधिर आदी पदार्थांचे ज्ञान पाप्त करा. (अंगैः) अवयवांनी आणि (रूपेण) रूपाद्वारे (नक्षत्राणि) तारांगण यांना आणि (त्वचा) मांस, कधिर आदींना झाकून वा शरीरात रोकून धरणारी जी त्वचा, त्या त्वचेद्वारे (पृथिवीम्) पृथ्वीला जाणून घ्या आणि (जुम्बकाय) अतिवेगवान् प्राण्यासाठी (प्रगतिशील मनुष्यासाठी (स्वाहा) सत्य वाणीचा प्रयोग करा. (त्याच्याशी नेहमी खरें बोला.) ॥9॥
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्यांनी धारणा आदी यौगिक क्रियांद्वारा दुराचरण त्याग करणें शिकावे, रोगनिवृत्ती करावी आणि धर्माची जी सत्य आदी आहेत, त्याप्रमाणे वागण्याचे ठरविले पाहिजे ॥9॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Know steady abstraction of the mind from the navel; ghee from curd; waters from decocted juice; sunbeams from fat that strengthens the organs; hoar-frost from bodily heat; coagulated ghee from life that prevails in the body; water-fountain from tears; thunderbolt from the rheum of eyes; objects worth protection from blood; marvellous things from limbs ; stars from their beauty ; earth from skin that covers the blood and flesh. Use truthful language for an energetic person.
Meaning
Know the centre-hold of the universe by the navel, liquid life of existence by the sap of nature, the waters of life by soup and decoctions, particles of light in rays by drops in a streams of oblations, the morning mist by vapours of steam, solid energy by frozen fat, precipitation of clouds by the tear glands, hail storms by shocks of disturbance, natural protections by immunity in the blood, wonders and mysteries by the limbs of the body, stars and planets by light and form, the crust of the earth by the skin of the body. Honour and homage to the Lord Supreme with surrender in truth of word and deed.
Translation
The stability is determined by the navel; purified butter by the soup; waters by the digestive secretions; the rays by the drops; fog by heat; frozen butter by the tallow; irrigation of eyes by tears; the rheum of eyes by the malady, that makes one cry; blood by the protective vital force; wondrous beauty by various parts of the body; the stars by their respective forms; the earth by its skin. I dedicate it to the venerable Lord. (1)
Notes
Vidhṛtim, विशेषां धृतिं, stability. Rasena, by soup. Yūṣṇā, by the digestive secretions. Śīnam, frozen butter. Prusvă, irrigation of eyes. पुष्णंति सिंचंति याभिस्ता:, those which nourish or irrigate. Dūṣikābhiḥ, नेत्रमलै:, with the rheum of eyes. Hrāduniḥ, malady, that makes one cry. Rakṣāmsi, protective vital forces. Citrāņi, wondrous beauty. Jumbakāya, वरुणो वै जम्बुक:, the venerable Lord. Also Gayatri; जुम्बका नाम गायत्री वेदेवाजसनेयके; in the Yajurveda the Gayatriis called jumbaka.
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ কেন কিং ভবতীত্যাহ ॥
পুনঃ কাহার দ্বারা কী হয়, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! তোমরা (নাভ্যা) নাভি দ্বারা (বিধৃতিং) বিশেষ করিয়া ধারণকে (ঘৃতম্) ঘৃতকে (রসেন) রস দ্বারা (অপঃ) জলকে (য়ূষ্ণা) ক্বাথের রস দ্বারা (মরীচীঃ) কিরণগুলিকে (বিপ্রুড্ভিঃ) বিশেষ করিয়া পূরণ পদার্থ দ্বারা (নীহারম্) শিশিরকে (ঊষ্মণা) উষ্ণতা দ্বারা (শীনম্) ঘনীভূত ঘৃতকে (বসয়া) নিবাস হেতু জীবন দ্বারা (প্রুষ্বাঃ) যদ্দ্বারা সিঞ্চন করে সেই ক্রিয়াগুলিকে (অশ্রুভিঃ) অশ্রু দ্বারা (হ্রাদুনীঃ) শব্দের অপ্রকট উচ্চারণ ক্রিয়াসকলকে (দূষিকাভিঃ) বিকাররূপ ক্রিয়াগুলির দ্বারা (চিত্রাণি) চিত্র-বিচিত্র (রক্ষাংসি) পালন করিবার যোগ্য (অস্না) রুধিরাদি পদার্থকে (অঙ্গৈঃ) অঙ্গ এবং (রূপেণ) রূপ দ্বারা (নক্ষত্রাণি) তারাসকলকে এবং (ত্বচা) মাংস, রুধিরাদিকে আচ্ছাদনকারী চর্মাদি দ্বারা (পৃথিবীম্) পৃথিবীকে জানিয়া (জুম্বকায়) অতিবেগবানের জন্য (স্বাহা) সত্য বাণীর প্রয়োগ অর্থাৎ উচ্চারণ কর ॥ ঌ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগকে ধারণাদি ক্রিয়াগুলির দ্বারা দুর্ব্যসন এবং রোগের নিবৃত্তি এবং সত্য ভাষণাদি ধর্মের লক্ষণগুলির বিচার করিয়া প্রবৃত্ত করা উচিত ॥ ঌ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
বিধৃ॑তিং॒ নাভ্যা॑ ঘৃ॒তꣳরসে॑না॒পো য়ূ॒ষ্ণা মরী॑চীর্বি॒প্রুড্ভি॑র্নীহা॒রমূ॒ষ্মণা॑ শী॒নং বস॑য়া॒ প্রুষ্বা॒ऽ অশ্রু॑ভির্হ্রা॒দুনী॑র্দূ॒ষীকা॑ভির॒স্না রক্ষা॑ᳬंসি চি॒ত্রাণ্যঙ্গৈ॒র্নক্ষ॑ত্রাণি রূ॒পেণ॑ পৃথি॒বীং ত্ব॒চা জু॑ম্ব॒কায়॒ স্বাহা॑ ॥ ঌ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
বিধৃতিমিত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । পূষাদয়ো দেবতাঃ । ভুরিগত্যষ্টিশ্ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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