यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 11
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - ईश्वरो देवता
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
181
यः प्रा॑ण॒तो नि॑मिष॒तो म॑हि॒त्वैक॒ऽइद्राजा॒ जग॑तो ब॒भूव॑।य ईशे॑ऽअ॒स्य द्वि॒पद॒श्चत॒ु॑ष्पदः॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम॥११॥
स्वर सहित पद पाठयः। प्रा॒ण॒तः। नि॒मि॒ष॒त इति॑ निऽमिष॒तः। म॒हि॒त्वेति॑ महि॒ऽत्वा। एकः॑। इत्। राजा॑। जग॑तः। ब॒भूव॑। यः। ईशे॑। अ॒स्य। द्वि॒पद॒ इति॑ द्वि॒ऽपदः॑। चतु॑ष्पदः। चतुः॑पद॒ इति॑ चतुः॑ऽपदः। कस्मै॑। दे॒वाय॑। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒ ॥११ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव । य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥
स्वर रहित पद पाठ
यः। प्राणतः। निमिषत इति निऽमिषतः। महित्वेति महिऽत्वा। एकः। इत्। राजा। जगतः। बभूव। यः। ईशे। अस्य। द्विपद इति द्विऽपदः। चतुष्पदः। चतुःपद इति चतुःऽपदः। कस्मै। देवाय। हविषा। विधेम॥११॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यथा वयं यः प्राणतो निमिषतो जगतो महित्वैक इद्राजा बभूव। योऽस्य द्विपदश्चतुष्पद ईशे तस्मै कस्मै देवाय हविषा विधेम तथा यूयमप्यनुतिष्ठत॥११॥
पदार्थः
(यः) सूर्यः (प्राणतः) प्राणिनः (निमिषतः) चेष्टां कुर्वतः (महित्वा) महत्त्वेन (एकः) असहायः (इत्) एव (राजा) प्रकाशकः (जगतः) संसारस्य (बभूव) भवति (यः) (ईशे) ऐश्वर्यं करोति (अस्य) (द्विपदः) द्वौ पादौ यस्य तस्य मनुष्यादेः (चतुष्पदः) चत्वारः पादा यस्य गवादेस्तस्य (कस्मै) सुखकारकाय (देवाय) दीपकाय (हविषा) आदानेन (विधेम) सेवेमहि॥११॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि सूर्यो न स्यात् तर्हि स्थावरं जङ्गमं च जगत्स्वकार्यं कर्त्तुमसमर्थं स्यात्। यः सर्वेभ्यो महान् सर्वेषां प्रकाशक ऐश्वर्यप्राप्तिहेतुरस्ति स सर्वैर्युक्त्या सेवनीयः॥११॥
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
सपदार्थान्वयः
हे मनुष्या यथा वयं यः प्राणतो निमिषतो जगतो महित्वैक इद्राजा बभूव योऽस्य द्विपदश्चतुष्पद ईशे तस्मै कस्मै देवाय हविषा विधेम तथा यूयमप्यनुतिष्ठत ॥ ११ ॥ सपदार्थान्वयः--हे मनुष्याः ! यथा वयं--यः सूर्यः प्राणतः प्राणिनः निमिषतः चेष्टां कुर्वतः जगतः संसारस्य महित्वा महत्त्वेन एकः असहायः इत् एव राजा प्रकाशकः बभूव भवति, योऽस्य द्विपदः द्वौ पादौ यस्य तस्य मनुष्यादेः,चतुष्पदः चत्वारः पादा यस्य गवादेस्तस्य, ईशे ऐश्वर्यं करोति तस्मै कस्मै सुखकारकाय देवाय दीपकाय हविषा आदानेन विधेम सेवेमहि; तथा यूयमप्यनुतिष्ठत ॥ २५ । ११ ॥
पदार्थः
(यः) सूर्य: (प्राणतः) प्राणिनः (निमिषतः) चेष्टां कुर्वतः (महित्वा) महत्त्वेन (एकः) असहायः (इत्) एव (राजा) प्रकाशक: (जगतः) संसारस्य (बभूव) भवति (यः) (ईशे) ऐश्वर्यं करोति (अस्य) (द्विपदः) द्वौ पादौ यस्य तस्य मनुष्यादे: (चतुष्पदः) चत्वारः पादा यस्य गवादेस्तस्य (कस्मै) सुखकारकाय (देवाय) दीपकाय (हविषा) प्रदानेन (विधेम) सेवेमहि ॥ ११ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि सूर्यो न स्यात् तर्हि स्थावरं जङ्गमं च जगत् स्वकार्यं कर्तुमसमर्थं स्यात् । यः सर्वेभ्यो महान् सर्वेषां प्रकाशक, ऐश्वर्यप्राप्तिहेतुरस्ति, स सर्वैर्युक्त्या सेवनीयः ॥ २५ । ११ ॥
भावार्थ पदार्थः
राजा=सूर्यः, सर्वेषां प्रकाशकः।
विशेषः
प्रजापतिः । ईश्वरः=सूर्यः । त्रिष्टुप् | धैवतः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जैसे हम लोग (यः) जो सूर्य (प्राणतः) श्वास लेते हुए प्राणी और (निमिषतः) चेष्टा करते हुए (जगतः) संसार का (महित्वा) बड़ेपन से (एकः) असहाय एक (इत्) ही (राजा) प्रकाश करने वाला (बभूव) होता है (यः) तथा जो (अस्य) इस (द्विपदः) दो-दो पग वाले मनुष्यादि और (चतुष्पदः) चार-चार पग वाले गौ आदि पशुरूप जगत् का (ईशे) प्रकाश करता है, उस (कस्मै) सुख करने हारे (देवाय) प्रकाशक जगदीश्वर के लिये (हविषा) ग्रहण करने योग्य पदार्थ वा व्यवहार से (विधेम) सेवन करें, वैसे तुम लोग भी अनुष्ठान किया करो॥११॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सूर्य न हो तो स्थावर वृक्ष आदि और जङ्गम मनुष्यादि जगत् अपना-अपना काम देने को समर्थ न हो। जो सब से बड़ा, सब का प्रकाश करने वाला और ऐश्वर्य की प्राप्ति का हेतु है, वह ईश्वर सब को युक्ति के साथ सेवने योग्य है॥११॥
विषय
प्रजापति का वर्णन । परमेश्वर की उपासना।
भावार्थ
व्याख्या ( ११ ) की देखो अ० २३।३ मन्त्र मे ।।
विषय
सूर्य कैसा है, इसका फिर उपदेश किया है॥
भाषार्थ
-हे मनुष्यो ! जैसे हम--(यः) जो सूर्य (प्राणतः) प्राणी एवं (निमिषतः) चेष्टा करने वाले (जगतः) संसार का (महित्वा) अपनी महिमा से (एक:) एक (इत्) ही (राजा) प्रकाशक (बभूव) है; (यः) जो (अस्य) इस (द्विपदः) दोपैरों वाले मनुष्य आदि तथा (चतुष्पदः) चार पैरों वाले गौ आदि को (ईशे) ऐश्वर्य प्रदान करता है; (तस्मै) उस (कस्मै) सुखकारक (देवाय) दीपक=प्रकाशक सूर्य के (हविषा) गुणों को ग्रहण करके (विधेम) सेवन करते हैं; वैसे तुम भी करो ॥ ११॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलंकार है। यदि सूर्य न हो तो स्थावर और जंगम जगत् अपना कार्य नहीं कर सकता। जो सूर्य सब महान्, सब का प्रकाशक और ऐश्वर्य का हेतु है; उसका सब मनुष्य युक्ति से सेवन करें ॥ २५।११॥
भाष्यसार
१. सूर्य कैसा है—सूर्य चेष्टा करने वाले प्राणी रूप संसार का अपनी महिमा से अकेला ही प्रकाशक है। वह दो पाँव वाले मनुष्य आदि और चार पाँव वाले गौ आदि प्राणियों को ऐश्वर्य प्रदान करता है। उस सुखकारक, सबके प्रकाशक सूर्य के गुणों को ग्रहण करके उसका सेवन करें। यदि सूर्य न हो तो स्थावर और जंगम जगत् अपना कार्य नहीं कर सकता। सूर्य सबसे महान्, सबका प्रकाशक, ऐश्वर्य-प्राप्ति का हेतु है। सब मनुष्य उसका युक्तिपूर्वक सेवन करें। २. अलङ्कार– इस मन्त्र में उपमा-वाचक 'इव' आदि पद लुप्त है; अतः वाचकलुप्तोपमा अलंकार है। उपमा यह है कि विद्वानों के समान सब मनुष्य सूर्य का युक्ति से सेवन करें ॥ २५ । ११ ॥
विषय
दर्शन
पदार्थ
१. (यः) = जो प्रभु (प्राणतः) = प्राण धारण करते हुए, अर्थात् चेतन प्राणियों के तथा (निमिषतः) = सदा पलकों को बन्द किये हुए, अर्थात् दीर्घनिद्रा में लेटे हुए वृक्षादि स्थावर (जगत:) = जगत् का, अर्थात् इस चराचर [Movable तथा Immovable] संसार का (महित्वा) = अपनी महिमा से (एक: इत्) = अकेला ही (राजा बभूव) = नियन्त्रण करनेवाला है। और २. (यः) = ये (अस्य) = इस (द्विपदः चतुष्पदः) = दोपाये व चौपायों का, अर्थात् पक्षियों व पशुओं का (ईशे) = ईश है, इनके अन्दर स्थापित ऐश्वर्य का मालिक है, अर्थात् जिसने मानव को शिक्षा देने के लिए उस-उस पशु व पक्षी में उस-उस ऐश्वर्य को स्थापित किया है। चीलों की उड़ान को देखकर ही मानव ने वायुयान को बनाने की शिक्षा प्राप्त की। इसी प्रकार इन पशु-पक्षियों में प्रभु द्वारा स्थापित ऐश्वर्य का दर्शन होता है। इस ऐश्वर्य के दर्शन से आकर्षित हो हम उस स्थापन करनेवाले प्रभु का ध्यान करते हैं। ३. उस (कस्मै) आनन्दस्वरूप (देवाय) = सब ऐश्वर्यों के देनेवाले प्रभु के लिए (हविषा) = दानपूर्वक अदन से (विधेम) = हम पूजा करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- चराचर संसार के नियामक वे प्रभु ही हैं। सब पशु-पक्षियों में दृश्यमान ऐश्वर्य उस प्रभु का ही है। उस सुखस्वरूप सर्वज्ञ प्रभु का हम वस्तुओं के त्यागपूर्वक प्रयोग से पूजन करते हैं।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जर सूर्य नसता तर स्थावर वृक्ष वगैरे व जंगम (चलायमान) मनुष्य वगैरे आपापले काम करण्यास समर्थ ठरले नसते. जो सर्वांत मोठा व सर्वांना प्रकाश देणारा, ऐश्वर्यप्राप्ती करून देणारा असा ईश्वरच आहे, त्याची उपासना सर्वांनी युक्तीने करावी.
विषय
पुनश्च, तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, (यः) जो सूर्य (प्राणतः) श्वास-प्रश्वास करणार्या प्राण्यांचा आणि (निमिषतः) व्यवहार करणार्या चेतन पदार्थांनी भरलेल्या (जगतः) सृष्टीचा आपल्या (महित्वा) सामर्थ्य आणि महतीद्वारे (एकः) एकमेव (इत्) अवश्यमेव (राजा) प्रकाश म्हणजे (उत्पत्ती व धारण) करणारा (बभूव) होता व आहे आणि सदैव असतो, तसेच (यः) जो (अस्य) या (द्विपदः) दोन पायांच्या-मनुष्यादी प्राण्यांचा आणि (चतुष्पदः) चार पाय असणार्या गौ आदी पशूंचा म्हणजे पशुरूप सृष्टिची (ईश) प्रकाश करतो (म्हणजे या सर्वाची उत्पत्ती पालन व धारण करतो) त्या (कस्मै) सुखकारक (देवाय) प्रकाशमान जगदीश्वराचे आम्ही ज्याप्रमाणे (हविषा) ग्रहण करण्यास योग्य पदार्थाद्वारे अथवा क्रिया-व्यवहारादीद्वारे (विधेम) सेवन करतो, (त्याची स्तुती, उपासना, प्रार्थना करतो). त्याप्रमाणे, तुम्हीही करीत जा ॥11॥
भावार्थ
भावार्थ – या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जर या जगात सूर्य नसेल तर स्थावर वृक्ष आदी पदार्थ आणि जंगम म्हणजे मनुष्यादी पदार्थ, हे जग आपली कार्यें कदापि पूर्ण करू शकणार नाहीत. जो परमेश्वर सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्पादक आणि सफल ऐश्वर्य हेतू आहे, तोच सर्वांकरिता युक्तिपूर्वक शास्त्रसंमत रीतीने उपासनीय आहे. ॥11॥
इंग्लिश (3)
Meaning
God by his grandeur is the sole Ruler of the moving world that breathes and slumbers. He is the Lord of men and cattle. May we worship with devotion, Him the Illuminator and Giver of happiness.
Meaning
It is He who was and is the sole lord of the living, breathing and moving world of the eye (and ear). It is He who, by His own might, rules over the world of the humans and the animals. To that same lord of power and bliss we offer our homage and worship in libations of praise and fragrant havi in truth of word and deed.
Translation
He, who, by His majesty, has verily become the sole ruler of all that breathes, blinks and moves and who is the Lord of all these bipeds and quadrupeds, to that Lord, we offer our oblations. (1)
Notes
Repeated from XXIII. 3. This and the following three mantras are the inviting and offering (याज्यानुवाक्या) verses to Prajāpati.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন আমরা (য়ঃ) যে সূর্য্য (প্রাণতঃ) শ্বাস গ্রহণকারী প্রাণী এবং (নিমিষতঃ) চেষ্টা করিতে থাকিয়া (জগতঃ) সংসারের (মহিত্বা) মহত্ত্ব দ্বারা (একঃ) সহায়হীন এক (ইৎ) ই (রাজা) প্রকাশক (বভূব) হয় (য়ঃ) তথা যে (অস্য) এই (দ্বিপদঃ) দুই পদ যুক্ত মনুষ্যাদি এবং (চতুষ্পদঃ) চারি পদযুক্ত গাভি আদি পশুরূপ জগতের (ঈশে) প্রকাশ করে সেই (কস্মৈ) সুখদায়ক (দেবায়) প্রকাশক জগদীশ্বরের জন্য (হবিষা) গ্রহণীয় পদার্থ বা ব্যবহারের দ্বারা (বিধেম) সেবন করি সেইরূপ তোমরাও অনুষ্ঠান করিতে থাক ॥ ১১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । সূর্য্য না থাকিলে স্থাবর বৃক্ষাদি এবং জঙ্গম মনুষ্যাদি জগৎ নিজ নিজ কর্ম্ম করিতে সক্ষম হইবে না । যিনি সর্বাপেক্ষা বৃহৎ, সকলের প্রকাশক এবং ঐশ্বর্য্য প্রাপ্তির হেতু সেই ঈশ্বর সকলকে যুক্তি সহ সেবন করিবার যোগ্য ॥ ১১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়ঃ প্রা॑ণ॒তো নি॑মিষ॒তো ম॑হি॒ত্বৈক॒ऽইদ্রাজা॒ জগ॑তো ব॒ভূব॑ ।
য় ঈশে॑ऽঅ॒স্য দ্বি॒পদ॒শ্চতু॒॑ষ্পদঃ॒ কস্মৈ॑ দে॒বায়॑ হ॒বিষা॑ বিধেম ॥ ১১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়ঃ প্রাণত ইত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । ঈশ্বরো দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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