यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 29
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
119
यू॒प॒व्र॒स्काऽउ॒त ये यू॑पवा॒हाश्च॒षालं॒ येऽअ॑श्वयू॒पाय॒ तक्ष॑ति। ये चार्व॑ते॒ पच॑नꣳ स॒म्भर॑न्त्यु॒तो तेषा॑म॒भिगू॑र्त्तिर्नऽइन्वतु॥२९॥
स्वर सहित पद पाठयू॒प॒व्र॒स्का ति॑ यूपऽव्र॒स्काः। उ॒त। ये। यू॒प॒वा॒हा इति॑ यूपऽवा॒हाः। च॒षाल॑म्। ये। अ॒श्व॒यू॒पायेति॑ अश्वऽयू॒पाय॑। तक्ष॑ति। ये। च॒। अर्व॑ते। पच॑नम्। स॒म्भर॒न्तीति॑ स॒म्ऽभर॑न्ति। उ॒तोऽइत्यु॒तो। तेषा॑म्। अ॒भिगू॑र्त्ति॒रित्य॒भिऽगू॑र्त्तिः। नः॒। इ॒न्व॒तु॒ ॥२९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यूपव्रस्काऽउत ये यूपवाहाश्चषालँयेऽअश्वयूपाय तक्षति । ये चार्वते पचनँ सम्भरन्त्युतो तेषामभिगूर्तिर्न इन्वतु ॥
स्वर रहित पद पाठ
यूपव्रस्का ति यूपऽव्रस्काः। उत। ये। यूपवाहा इति यूपऽवाहाः। चषालम्। ये। अश्वयूपायेति अश्वऽयूपाय। तक्षति। ये। च। अर्वते। पचनम्। सम्भरन्तीति सम्ऽभरन्ति। उतोऽइत्युतो। तेषाम्। अभिगूर्त्तिरित्यभिऽगूर्त्तिः। नः। इन्वतु॥२९॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्ते किं कुर्युरित्याह॥
अन्वयः
ये यूपव्रस्का उतापि ये यूपवाहा अश्वयूपाय चषालं तक्षति, ये चार्वते पचनं सम्भरन्ति, उतो ये प्रयतन्ते तेषामभिगूर्त्तिर्न इन्वतु॥२९॥
पदार्थः
(यूपव्रस्काः) यूपस्य स्तम्भस्य छेदकाः (उत) अपि (ये) (यूपवाहाः) ये यूपं वहन्ति ते (चषालम्) यूपावयवम् (ये) (अश्वयूपाय) अश्वस्य बन्धनार्थाय स्तम्भाय (तक्षति) तक्षन्ति तनूकुर्वन्ति। अत्र वचनव्यत्ययेनैकवचनम् (ये) (च) (अर्वते) अश्वाय (पचनम्) पाकसाधनम् (सम्भरन्ति) सम्यग्धरन्ति पुष्णन्ति वा (उतो) अपि (तेषाम्) (अभिगूर्त्तिः) अभ्युद्यमः (नः) अस्मान् (इन्वतु) व्याप्नोतु प्राप्नोतु॥२९॥
भावार्थः
ये शिल्पिनोऽश्वबन्धनादीनि काष्ठविशेषजानि वस्तूनि निर्मिमते, ये च वैद्या अश्वादीनामौषधानि सम्भारांश्च संगृह्णन्ति, ते सदोद्यमिनः सन्तोऽस्मान् प्राप्नुवन्तु॥२६॥
विषयः
पुनस्ते किं कुर्युरित्याह ॥
सपदार्थान्वयः
ये यूपव्रस्का उतापि ये यूपवाहा अश्वयूपाय चषालं तक्षति ये चार्वते पचनं सम्भरन्ति उतो ये प्रयतन्ते तेषामभिगूर्तिर्न इन्वतु ॥ २९ ॥ सपदार्थान्वयः--ये यूपव्रस्काः यूपस्य=स्तम्भस्य छेदकाः, उत=अपि ये यूपवाहाः ये यूपं वहन्ति ते, अश्वयूपाय अश्वस्य बन्धनार्थाय स्तम्भाय चषालं यूपावयवं तक्षति तक्षन्ति=तनूकुर्वन्ति, ये चार्वते अश्वाय पचनं पाकसाधनं सम्भरन्ति सम्यग्धरन्ति पुष्णन्ति वा, उतो अपि ये प्रयतन्ते, तेषामभिगूर्तिः अभ्युद्यमः नः अस्मान् इन्वतु व्याप्नोतु=प्राप्नोतु ॥ २५ । २९ ॥
पदार्थः
(यूपव्रस्काः) यूपस्य=स्तम्भस्य छेदका: (उत) अपि (ये) (यूपवाहाः) ये यूपं वहन्ति ते (चषालम्) यूपावयवम् (ये) (अश्वयूपाय) अश्वस्य बन्धनार्थाय स्तम्भाय (तक्षति) तक्षन्ति=तनूकुर्वन्ति । अत्र वचनव्यत्ययेनैकवचनम् (ये) (च) (अर्वते) अश्वाय (पचनम्) पाकसाधनम् (सम्भरन्ति) सम्यग्धरन्ति पुष्णन्ति वा (उतो) अपि (तेषाम्) (अभिगूर्त्तिः) अभ्युद्यम: (नः) अस्मान् (इन्वतु)व्याप्नोतु=प्राप्नोतु ॥ २९ ॥
भावार्थः
ये शिल्पिनोऽश्वबन्धनादीनि काष्ठविशेषजानि वस्तूनि निर्मिमते, ये च वैद्या अश्वादीनामौषधानि सम्भारांश्च संगृह्णन्ति, ते सदोद्यमिनः सन्तोऽस्मान् प्राप्नुवन्तु ॥ २५ । २९॥
भावार्थ पदार्थः
चषालम्=काष्ठविशेषजं वस्तु ॥
विशेषः
गोतमः । यज्ञः=शिल्पिभिर्यूपादिनिर्माणम्| भुरिक्त्रिष्टुप् | धैवतः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
(ये) जो (यूपव्रस्काः) यज्ञखंभा के छेदने-बनाने (उत) और (ये) जो (यूपवाहाः) यज्ञस्तम्भ को पहुंचाने वाले (अश्वयूपाय) घोड़ा के बांधने के लिये (चषालम्) खंभा के खण्ड को (तक्षति) काटते-छांटते (ये, च) और जो (अर्वते) घोड़ा के लिए (पचनम्) जिस में पाक किया जाये, उस काम को (सम्भरन्ति) अच्छे प्रकार धारण करते वा पुष्ट करते (उतो) और जो उत्तम यत्न करते हैं (तेषाम्) उनका (अभिगूर्त्तिः) सब प्रकार से उद्यम (नः) हम लोगों को (इन्वतु) व्याप्त और प्राप्त होवे॥२९॥
भावार्थ
जो कारुक शिल्पीजन घोड़ा के बांधने आदि काम के काठों से विशेष काम बनाते और जो वैद्य घोड़े आदि पशुओं की ओषधि और उन की सजावट की सामग्रियों को इकट्ठा करते हैं, वे सदा उद्यम करते हुए हम लोगों को प्राप्त होवें॥२९॥
विषय
राज्य के राजसहायकों के सहोद्योग की भांकाक्षा ।
भावार्थ
(ये) जो पुरुष (यूपव्रस्का:) यज्ञ के यूप को गढ़ने वालों के समान शत्रुओं के विनाश करने वाले राजा या उसके बल अधिकारों कों बनाते हैं- (उत) और (ये) जो (यूपवाहाः) उस शत्रुनाशक, सूर्य के समान तेजस्वी अधिकारी को अपने ऊपर धारण करते हैं और (ये) जो (अश्वयूपाय ) अश्व के लिये खड़े यशस्तम्भ के समान राष्ट्रसंचालक राजा के लिये (चपालम् ) यूंप के छल्ले या अग्र भाग के समान राजा के अग्रासन का (तक्षति) निर्माण करते हैं (ये च) और जो (अर्वते) ज्ञानवान् राजा के लिये ( पचनम् ) पाक योग्य नाना भोग्य ऐश्वर्य सामग्री को (संभरन्ति ) संग्रह करते हैं, लाते हैं ( तेषाम् ) उन सबका (अभिगूर्त्तिः) उद्यम (नः) हमें (इन्तु) प्राप्त हो, हमें समृद्ध करे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यज्ञः । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
फिर वे मनुष्य क्या करें, इस विषय का उपदेश किया है॥
भाषार्थ
जो (यूपव्रस्का:) यूप=खंभे के छेदक, (उत) और जो (यूपवाहाः) यूप=खंभे को ढोने वाले पुरुष (अश्वयूपाय) घोड़ा बाँधने के खंभे के लिए (चषालम्) चषाल नामक खंभे के अवयव को (तक्षति) छीलते हैं; और जो (अर्वते) घोड़े के लिए (पचनम्) पाक-साधन को (सम्भरन्ति) धारण वा पुष्ट करते हैं, (उतो) और जो प्रयत्न करते हैं; उनका (अभिगूर्तिः) उद्यम=पुरुषार्थ (नः) हमें (इन्वतु) प्राप्त हो॥ २५ । २९॥
भावार्थ
जो शिल्पी लोग काष्ठ-विशेष के बने अश्वबन्धन आदि वस्तुओं को बनाते हैं; और जो वैद्य लोग घोड़ों आदि के औषधों और सम्भारों का संग्रह करते हैं; वे सदा पुरुषार्थी होकर हमें प्राप्त हों ॥ २५ । २९॥
प्रमाणार्थ
(तक्षति) तक्षन्ति। यहाँ वचन-व्यत्यय से बहुवचन के स्थान में एकवचन है ॥
भाष्यसार
मनुष्य क्या करें--यूप का छेदन करने वाले, यूप को वहन करने वाले, घोड़े के बन्धनार्थ यूप के लिए चषाल (यूप का अवयव विशेष) का तक्षण करें; अर्थात् शिल्पी लोग काष्ठविशेष से उत्पन्न अश्व-बन्धन (यूप एवं चषाल) आदि वस्तुओं का निर्माण करें। वैद्य लोग घोड़ों के लिए औषध और संभारों का संग्रह करें। सदा उद्यमी हों॥ २५ । २९॥
विषय
यूपव्रश्चन
पदार्थ
१. गतमन्त्र में जीवन को यज्ञमय बनाने का उल्लेख है। उस 'जीवन-यज्ञ' की यज्ञशाला यह शरीर है। इस शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग उस यज्ञशाला के यूप हैं। इन यूपोंयज्ञस्तम्भों का ठीक होना अत्यन्त आवश्यक है, अतः मन्त्र में कहते हैं कि (यूपव्रस्का:) = [यूपं वृश्चन्ति] जो इस अङ्गरूप यज्ञस्तम्भों का वृश्चन द्वारा ठीक निर्माण करनेवाले बढ़ई हैं। इस यज्ञस्तम्भों पर चढ़ी हुई चर्बीरूप मैल की तहों को छील-छालके जो इन स्तम्भों को ठीक-ठाक बना देते हैं, (उत) = और (ये) = जो (यूपवाहा:) = इन यज्ञस्तम्भों का वहन करनेवाले हैं, अर्थात् इन अङ्गरूप स्तम्भों को कार्यों में प्रयुक्त करनेवाले हैं, (ये) = जो (अश्वयूपाय) = कर्मों में व्याप्त रहनेवाले जीव के इन यज्ञस्तम्भों के लिए (चषालम्) = [यूपाग्रामाग्रेस्थाप्यं काष्ठं] अङ्गरूपस्तम्भों के अग्रभाग में स्थाप्य मस्तिष्करूप चषाल को भी [तक्ष तनूकरणे] खूब सूक्ष्म व तीव्र बनाते हैं। २. (ये च) = और जो (अर्वते) = [हिंसायाम्] काम-क्रोधादि पशुओं की हिंसा करनेवाले के लिए इसलिए कि वह कामादि का हिंसक बन सके (पचनं सम्भरन्ति) = पचन को, बुद्धि के परिपाक को सम्यक् प्राप्त कराते हैं, (ते) इन लोगों का (अभिगूर्त्तिः) = उद्योग (नः इन्वतु) = हमें भी प्रीणित करनेवाला हो, अर्थात् हम भी बड़ी रुचि से ज्ञान का परिपाक करने में लगे रहें। ३. इस प्रकार मन्त्र में निम्न बातें स्पष्ट हैं- [क] हम अङ्ग-प्रत्यङ्ग को शरीररूप यज्ञशाला का स्तम्भ समझें। इन अङ्गों को चर्बी की तहों से बेडौल न होने दें। उचित व्यायाम व आसनों से उस चर्बी का तक्षण करते रहें। [ख] इन अङ्गों को सदा क्रियाशील बनाये रक्खें। अङ्ग शब्द का तो धात्वीय अर्थ ही 'गतिशील' है। अङ्गरूप साम्य शरीररूप यज्ञशाला का वहन करनेवाला हो। [ग] इन यूपों के अग्रभाग में स्थाप्य काष्ठचषाल यह मस्तिष्क है, इसका सुन्दर तक्षण अत्यन्त आवश्यक है। जितनी बुद्धि सूक्ष्म होगी उतना ही यह तत्त्वदर्शन ठीक कर सकेगी [चषालं तक्षति] [घ] इस यज्ञशाला में कामादि पशुओं का बन्धन हो सके उसके लिए आवश्यक है कि ज्ञान का उत्तम परिपाक हो । ज्ञान के परिपाक के न होने पर मनुष्य (अर्वा:) = कामादि का संहार करनेवाला नहीं बन सकता । [ अर्वते पचनं सम्भरन्ति ] ।
भावार्थ
भावार्थ- १. हम अङ्गरूप स्तम्भों का ठीक वृश्चन कर उन्हें सुन्दर, सुडौल बनाएँ । २. इन अङ्गरूप स्तम्भों को संभृत किये रखने के स्थान में इन्हें कार्य - विनियुक्त करें । ३. मस्तिष्क को तीव्र बनाएँ। ४. ज्ञान का परिपूर्ण पाक करने का प्रयत्न करें।
मराठी (2)
भावार्थ
जे कारागीर घोड्यांना बांधण्याच्या जीनसाठी लाकडाचे काम करतात व जे वैद्य लोक घोडे इत्यादी पशूंचे औषध व त्यांच्या सजावटीचे सामान जवळ बाळगतात असे उद्योगी लोक सदैव आपल्याजवळ असावेत.
विषय
पुनश्च, मनुष्यांनी काय केले पाहिजे, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (ये) जे लोक (यूपव्रस्काः) तासून-कापून यज्ञवेदीचा खांब तयार करतात, (उत) आणि (ये) जे (यूषवाहः) तो यज्ञस्तंभ वाहून वेदीपर्यंत नेतात, तसेच जे लोक (अश्वयूपाय) घोडा बांधण्यासाठी (चषालम्) खांब व खुंटा (तक्षिति) कापून-तापून तयार करतात (ते म्हणचे ते सुतार लोक आम्हा सर्व नागरिकांसाठी सुखकारक व्हावेत) (च) तसेच (ये) जे लोक (अर्वते) घोड्याकरिता (पचनम्) खाद्य पदार्थाचे शिजविणे आदी कार्य (सम्भरन्ति) चांगल्याप्रकारे करतात (वा आम्हास ते पुरवितात) (उतो) आणि जे लोक श्रेष्ठ यज्ञ करतात, (तेषाम्) त्यांचा (अभिगूर्तिः) उद्योग वा उघम-परिश्रम (नः) आम्हां (नागरिकांसाठी (इन्वन्तु) प्राप्त व्हावे व आमच्यासाठी लाभकारी होवो ॥29॥
भावार्थ
भावार्थ - जे सुतार, शिल्पी आदी लोक घोडे बांधण्यासाठी आवश्यक साधनें, लाकडापासून वा अन्य धातू पासून तयार करतात, ते कुशल शिल्पी आमच्याकरिता सहाय्यक होवोत. तसेच जे वैद्य घोडे आदी पशूंचा औषधोपचार करतात आणि जे चर्मकार जन घोड्यांना सजविष्यासाठी आवश्यक (लगाम, टाच आदी) साधनें तयार करतात, ते आमच्यासाठी प्राप्त व्हावेत. ॥29॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The hewers of the yajnas post and those who carry it, and those who carve the knob to deck the horses stake ; and those who prepare the cooking utensils for the steed and those who strive hard, may their perseverance be attained to by us.
Meaning
(We thank) the cutters of wood for the yajna post, the carriers of the post, the shapers of the ring for the post and all those who collect the materials and complete the preparations for yajna, and, (we pray), may all their efforts be for our good and success.
Translation
Attention is paid even to all minor details in the arena. Care is taken of the post to which the horse is roped, and special attendants are keen to take care of the horse. Rings are fastened on the top of the posts, and in close vicinity are vessels in which the food and fodder of the horse are dressed. (1)
Notes
Yupavraskāḥ, cutters of wood for the wooden posts. Yupavähäḥ, those who carry the wooden posts. Caşālam, (युपावयवं), parts of the wooden post. Asvayūpāya, for the post, which will be used to bind the horse. Takṣati, they hew the wood. It should have been takṣanti; here singular is used in place of plural (वचन व्यत्यय ). Kätyāyana and others have given the details of the sacrificial posts (यूप), which are said to be twenty one in number, made of differnt kinds of wood, each 21 cubits long. Three hundred and forty nine domestic and two hundred and sixty wild (total 609) animals are fastened to these posts.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তে কিং কুর্য়ুরিত্যাহ ॥
পুনঃ তাহারা কী করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–(য়ে) যাহারা (য়ূপব্রস্কাঃ) যজ্ঞ স্তম্ভের ছেদক নির্মাতা (উত) এবং (য়ে) যাহারা (য়ূপবাহাঃ) যজ্ঞস্তম্ভের বাহক (অশ্বয়ূপায়) অশ্বকে বন্ধন হেতু (চষালম্) স্তম্ভের অংশকে (তক্ষতি) কর্ত্তন, বাছাই করে (য়ে, চ) এবং যাহারা (অর্বতে) অশ্বের জন্য (পচনম্) যাহাতে পাক করা হয় সেই কর্ম্মকে (সম্ভরন্তি) উত্তম প্রকার ধারণ করে বা পুষ্ট করে (উতো) এবং যাহারা উত্তম চেষ্টা করে (তেষাম্) তাহাদের (অভিগূর্ত্তিঃ) সর্ব প্রকারে উদ্যম (নঃ) আমাদিগকে (ইন্বতু) ব্যাপ্ত ও প্রাপ্ত হউক ॥ ২ঌ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–যে সব কারুশিল্পী অশ্ব বন্ধন করিবার ইত্যাদি কর্ম্মের কাষ্ঠ দ্বারা বিশেষ বস্তু নির্মাণ করে এবং যে সব বৈদ্য অশ্বাদি পশুদিগের ওষধি এবং তাহাদের সাজসজ্জার সামগ্রী সংগ্রহ করে তাহারা সর্বদা উদ্যম করিয়া আমাদিগকে প্রাপ্ত হইবে ॥ ২ঌ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়ূ॒প॒ব্র॒স্কাऽউ॒ত য়ে য়ূ॑পবা॒হাশ্চ॒ষালং॒ য়েऽঅ॑শ্বয়ূ॒পায়॒ তক্ষ॑তি ।
য়ে চার্ব॑তে॒ পচ॑নꣳ স॒ম্ভর॑ন্ত্যু॒তো তেষা॑ম॒ভিগূ॑র্ত্তির্ন্নऽইন্বতু ॥ ২ঌ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়ূপব্রস্কা ইত্যস্য গোতম ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । ভুরিক্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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