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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 2
    ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव्य ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    घृ॒तेना॒ञ्जन्त्सं प॒थो दे॑व॒याना॑न् प्रजा॒नन् वा॒ज्यप्ये॑तु दे॒वान्।अनु॑ त्वा सप्ते प्र॒दिशः॑ सचन्ता स्व॒धाम॒स्मै यज॑मानाय धेहि॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तेन॑। अ॒ञ्जन्। सम्। प॒थः। दे॒व॒याना॒निति॑ देव॒ऽयाना॑न्। प्र॒जा॒नन्निति॑ प्रऽजा॒नन्। वा॒जी। अपि॑। ए॒तु॒। दे॒वान्। अनु॑। त्वा॒। स॒प्ते॒। प्र॒दिश॒ इति॑ प्र॒ऽदिशः॑। स॒च॒न्ता॒म्। स्व॒धाम्। अ॒स्मै। यज॑मानाय। धे॒हि॒ ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतेनाञ्जन्त्सम्पथो देवयानान्प्रजानन्वाज्यप्येतु देवान् । अनु त्वा सप्ते प्रदिशः सचन्ताँ स्वधामस्मै यजमानाय धेहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    घृतेन। अञ्जन्। सम्। पथः। देवयानानिति देवऽयानान्। प्रजानन्निति प्रऽजानन्। वाजी। अपि। एतु। देवान्। अनु। त्वा। सप्ते। प्रदिश इति प्रऽदिशः। सचन्ताम्। स्वधाम्। अस्मै। यजमानाय। धेहि॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 2
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    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे पुरुष अग्नी व जल यांनी युक्त असलेल्या व वाफेने चालणाऱ्या यानांनी शीघ्र जाणे-येणे करून दशदिशांमध्ये भ्रमण करतात. ते पुष्कळ अन्न प्राप्त करून बुद्धिपूर्वक कार्य सिद्ध करू शकतात.

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