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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 22
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - वायवो देवताः छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    तव॒ शरी॑रं पतयि॒ष्ण्वर्व॒न्तव॑ चि॒त्तं वात॑ऽइव॒ ध्रजी॑मान्। तव॒ शृङ्गा॑णि॒ विष्ठि॑ता पुरु॒त्रार॑ण्येषु॒ जर्भुराणा चरन्ति॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तव॑। शरी॑रम्। प॒त॒यि॒ष्णु। अ॒र्व॒न्। तव॑। चि॒त्तम्। वात॑ इ॒वेति॒ वातः॑ऽइव। ध्रजी॑मान्। तव॑। शृङ्गा॑णि। विष्ठि॑ता। विस्थि॒तेति॒ विऽस्थि॑ता। पु॒रु॒त्रेति॑ पुरु॒ऽत्रा। अर॑ण्येषु। जर्भु॑राणा। च॒र॒न्ति॒ ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तव शरीरम्पतयिष्ण्वर्वन्तव चित्तँवातऽइव ध्रजीमान् । तव शृङ्गाणि विष्ठिता पुरुत्रारण्येषु जर्भुराणा चरन्ति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तव। शरीरम्। पतयिष्णु। अर्वन्। तव। चित्तम्। वात इवेति वातःऽइव। ध्रजीमान्। तव। शृङ्गाणि। विष्ठिता। विस्थितेति विऽस्थिता। पुरुत्रेति पुरुऽत्रा। अरण्येषु। जर्भुंराणा। चरन्ति॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 22
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    भावार्थ - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे अनित्य शरीरात राहून नित्य कर्मे करतात ती अत्यंत सुखी होतात. जे सेवक वनपशूप्रमाणे असतात व सेना घोड्याप्रमाणे असते ते शीघ्रगामी बनून शत्रूंना जिंकण्यास समर्थ ठरतात.

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