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  • यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 3
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - पुरुषो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    ए॒तावा॑नस्य महि॒मातो॒ ज्यायाँ॑श्च॒ पूरु॑षः।पादो॑ऽस्य॒ विश्वा॑ भू॒तानि॑ त्रि॒पाद॑स्या॒मृतं॑ दि॒वि॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒तावा॑न्। अ॒स्य॒। म॒हि॒मा। अतः॑। ज्याया॑न्। च॒। पूरु॑षः। पुरु॑ष॒ऽइति॒ पुरु॑षः ॥ पादः॑। अ॒स्य॒। विश्वा॑। भू॒ता॑नि॑। त्रि॒पादिति॑। त्रि॒ऽपात्। अ॒स्य॒। अ॒मृत॑म्। दि॒वि ॥३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः । पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतन्दिवि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    एतावान्। अस्य। महिमा। अतः। ज्यायान्। च। पूरुषः। पुरुषऽइति पुरुषः॥ पादः। अस्य। विश्वा। भूतानि। त्रिपादिति। त्रिऽपात्। अस्य। अमृतम्। दिवि॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 31; मन्त्र » 3
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    भावार्थ - सूर्य, चंद्र, सर्व लोक लोकांतर, चराचर जग पाहून परमेश्वराचे महत्व स्पष्ट होते, तसेच उत्पत्ती, स्थ्तिी, प्रलय होऊनही तो परमेश्वर एक चतुर्थांश स्वरूपातच प्रकट झालेला असतो. त्याचे तीन चतुर्थांश सामर्थ्य अविनाशी, अव्यक्त मोक्षाच्या स्वरूपात (द्योतन स्वरूपात) असते. त्यामुळे त्याची महिमा (अनंतत्व) कमी होत नाही. उलट या सृष्टीपेक्षाही तो माठा असून, जग त्याच्यापेक्षा लहान आहे हे सिद्ध होते.

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