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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 43
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप ऋषिः देवता - सूर्यो देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    आ कृ॒ष्णेन॒ रज॑सा॒ वर्त्त॑मानो निवे॒शय॑न्न॒मृतं॒ मर्त्यं॑ च।हि॒र॒ण्यये॑न सवि॒ता रथे॒ना दे॒वो या॑ति॒ भुव॑नानि॒ पश्य॑न्॥४३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। कृ॒ष्णेन॑। रज॑सा। वर्त्त॑मानः। नि॒वे॒शय॒न्निति॑ निऽवे॒शय॑न्। अ॒मृत॑म्। मर्त्य॑म्। च॒ ॥ हि॒र॒ण्यये॑न। स॒वि॒ता। रथे॑न। आ। दे॒वः। या॒ति॒। भुव॑नानि। पश्य॑न् ॥४३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतम्मर्त्यञ्च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। कृष्णेन। रजसा। वर्त्तमानः। निवेशयन्निति निऽवेशयन्। अमृतम्। मर्त्यम्। च॥ हिरण्ययेन। सविता। रथेन। आ। देवः। याति। भुवनानि। पश्यन्॥४३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 43
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    भावार्थ - हे माणसांनो ! जसे भूगोल वगैरे गोलांना सूर्य आकर्षित करतो व वृष्टीद्वारे अमृतरूपी जलवर्षाव करतो आणि प्रत्यक्ष मूर्त पदार्थांचे दर्शन घडवितो त्या सूर्याला ईश्वराच्या आकर्षणाने धारण केलेले आहे हे जाणा.

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