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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - आपो देवता छन्दः - प्राजापत्या बृहती,भूरिक् आर्षी गायत्री स्वरः - मध्यमः
    11

    अ॒पां पे॒रुर॒स्यापो॑ दे॒वीः स्व॑दन्तु स्वा॒त्तं चि॒त्सद्दे॑वह॒विः। सं ते॑ प्रा॒णो वाते॑न गच्छता॒ꣳ समङ्गा॑नि॒ यज॑त्रैः॒ सं य॒ज्ञप॑तिरा॒शिषा॑॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम्। पे॒रुः। अ॒सि॒। आपः॑। दे॒वीः। स्व॒द॒न्तु॒। स्वा॒त्तम्। चि॒त्। सत्। दे॒व॒ह॒विरिति॑ देवऽह॒विः। सम्। ते॒। प्रा॒णः। वाते॑न। ग॒च्छ॒ता॒म्। अङ्गा॑नि। यज॑त्रैः। यज्ञप॑तिरिति॑ य॒ज्ञऽपतिः। आ॒शिषेत्या॒ऽशिषा॑ ॥१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपाम्पेरुरस्यापो देवीः स्वदन्तु स्वात्तञ्चित्सद्देवहविः । सन्ते प्राणो वातेन गच्छताँ समङ्गानि यजत्रैः सँयज्ञपतिराशिषा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम्। पेरुः। असि। आपः। देवीः। स्वदन्तु। स्वात्तम्। चित्। सत्। देवहविरिति देवऽहविः। सम्। ते। प्राणः। वातेन। गच्छताम्। अङ्गानि। यजत्रैः। यज्ञपतिरिति यज्ञऽपतिः। आशिषेत्याऽशिषा॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 10
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    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. यज्ञात दिलेली आहुती सूर्यापर्यंत पोहोचते. अर्थात सूर्याच्या आकर्षण शक्तीने परमाणुरूप बनून सर्व पदार्थ पृथ्वीवरून आकाशात जातात. पृथ्वीचे जलही अंतरिक्षात ओढून घेतले जाते व नंतर पर्जन्यरूपाने पृथ्वीवर येते. त्या वृष्टीमुळे अन्न प्राप्त होते. अन्नामुळे सर्व जीव सुखी होतात. या क्रमानुसार यज्ञाने शुद्ध झालेले जल व होमात अर्पण केलेले द्रव्य सर्व जीव भोगतात.

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