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यजुर्वेद अध्याय - 6

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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - आपो देवता छन्दः - प्राजापत्या बृहती,भूरिक् आर्षी गायत्री स्वरः - मध्यमः
    87

    अ॒पां पे॒रुर॒स्यापो॑ दे॒वीः स्व॑दन्तु स्वा॒त्तं चि॒त्सद्दे॑वह॒विः। सं ते॑ प्रा॒णो वाते॑न गच्छता॒ꣳ समङ्गा॑नि॒ यज॑त्रैः॒ सं य॒ज्ञप॑तिरा॒शिषा॑॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम्। पे॒रुः। अ॒सि॒। आपः॑। दे॒वीः। स्व॒द॒न्तु॒। स्वा॒त्तम्। चि॒त्। सत्। दे॒व॒ह॒विरिति॑ देवऽह॒विः। सम्। ते॒। प्रा॒णः। वाते॑न। ग॒च्छ॒ता॒म्। अङ्गा॑नि। यज॑त्रैः। यज्ञप॑तिरिति॑ य॒ज्ञऽपतिः। आ॒शिषेत्या॒ऽशिषा॑ ॥१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपाम्पेरुरस्यापो देवीः स्वदन्तु स्वात्तञ्चित्सद्देवहविः । सन्ते प्राणो वातेन गच्छताँ समङ्गानि यजत्रैः सँयज्ञपतिराशिषा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम्। पेरुः। असि। आपः। देवीः। स्वदन्तु। स्वात्तम्। चित्। सत्। देवहविरिति देवऽहविः। सम्। ते। प्राणः। वातेन। गच्छताम्। अङ्गानि। यजत्रैः। यज्ञपतिरिति यज्ञऽपतिः। आशिषेत्याऽशिषा॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथोपनीतेन शिष्येण विद्यासुशिक्षाग्रहणाग्निहोत्रादियज्ञोऽवश्यमनुष्ठातव्य इति गुरुरुपदिशेत्॥

    अन्वयः

    हे शिष्य त्वमपां पेरुरसि संसारस्थाः प्राणिनस्त्वद्यज्ञशोधिता देवीरापश्चित् स्वात्तं धर्मानुष्ठानस्वीकृतं देवहविरिव संस्वदन्तु मदाशिषा तवाङ्गानि यजत्रैः सह गच्छन्ताम्, प्राणो वातेन संगच्छताम्, त्वं यज्ञपतिर्भव॥१०॥

    पदार्थः

    (अपाम्) जलानाम् (पेरुः) रक्षकः (असि) (आपः) (देवीः) शुद्धा दिव्यसुखप्रदाः (स्वदन्तु) (स्वात्तम्) स्वेन समन्तात् गृहीतम् (चित्) अपि (सत्) (देवहविः) देवेभ्यो हविरिव (सम्) (ते) तव (प्राणः) (वातेन) पवनेन सह (गच्छताम्) (अङ्गानि) शिर आदीनि (यजत्रैः) यज्ञसाधकैर्विद्वद्भिः सह (यज्ञपतिः) यज्ञस्य पालकः (आशिषा) अयं मन्त्रः (शत॰३। ७। ४। ६-९) व्याख्यातः॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। या यज्ञे प्रास्ताहुतयस्ता आदित्यमुपतिष्ठन्ते, आदित्याकर्षणशक्त्या पृथिवीजलाकर्षणेन वृष्टिर्भवति, ततोऽन्नमन्नाद् भूतानीति परम्परासम्बन्धेन यज्ञशोधिता अपो हुतद्रव्यं च सर्वे जीवा भुञ्जते॥१०॥

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    विषयः

    अथोपनीतेन शिष्येण विद्यासुशिक्षाग्रहणाग्निहोत्रादियज्ञोऽवश्यमनुष्ठातव्य इति गुरूरुपदिशेत्।।

    सपदार्थान्वयः

    हे शिष्य ! त्वमपां जलानां पेरुः रक्षकः असि । संसारस्थाः प्राणिनस्त्वद्यज्ञशोधिता देवीः शुद्धाः दिव्यसुखप्रदाः आपश्चित् अपि स्वात्तं=धर्माऽनुष्ठानस्वीकृतं स्वेन समन्ताद् गृहीतं [सद्] देवहविः देवेभ्यो हविरिव इव सं+स्वदन्तु। मदाशिषा [ते]=तव अङ्गानि शिर आदीनि यजत्रैः यज्ञसाधकैर्विद्वद्भिः (सह) सह [सम्]गच्छन्ताम्, प्राणो वातेन पवनेन सह सं+गच्छन्ताम्। त्वं यज्ञपतिः यज्ञस्य पालको भव ।। १० ।। [हे शिष्य! त्वमपां पेरुरसि, संसारस्था: प्राणिनस्त्त्वद्यज्ञसंशोधिता देवीरपश्चित् स्वात्तं=धर्मानुष्ठानस्वीकृतं देवहतिरिव सं- स्वदन्ताम्]

    पदार्थः

    (अपाम्) जलानाम् (पेरुः) रक्षकः (असि) (आपः) (देवीः) शुद्धा दिव्यसुखप्रदाः (स्वदन्तु) (स्वात्तम्) स्वेन समन्तात् गृहीतम् (चित्) अपि (सत्) (देवहविः) देवेभ्यो हविरिव (सम्) (ते) तव (प्राण:) (वातेन) पवनेन सह (गच्छताम्) (अङ्गानि) शिर आदीनि (यजत्रै:) यज्ञसाधकैर्विद्वद्भिः सह (यज्ञपतिः) यज्ञस्य पालकः (आशिषा) अयं मंत्र: शत० ३ । ७ । ४ । ६-९ व्याख्यातः ।। १०।।

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः॥ या यज्ञे प्रास्ताहुतयस्ता आदित्यमुपतिष्ठन्ते, आदित्याकर्षणशक्त्या पृथिवीजलाकर्षणेन वृष्टिर्भवति, ततोऽन्नमन्नाद् भूतानीति परम्परसम्बन्धेन यज्ञशोधिता अपो, हुतद्रव्यं च सर्वे जीवा भुञ्जते ।। ६ । १०।।

    विशेषः

    मेधातिथि:। आपः=जलानि॥ प्राजापत्या बृहती। मध्यमः। सन्त इत्यस्य विराडार्ची बृहती। मध्यमः।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब यज्ञोपवीत होने के पश्चात् शिष्य को अत्यावश्यक है कि विद्या, उत्तम शिक्षा का ग्रहण और अग्निहोत्रादिक का अनुष्ठान करे ऐसा उपदेश गुरु किया करे, यह अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे शिष्य! तू (अपाम्) जल आदि पदार्थों का (पेरुः) रक्षा करने वाला (असि) है, संसारस्थ जीव तेरे यज्ञ से शुद्ध हुए (देवीः) दिव्य सुख देने वाले (आपः) जलों को (चित्) और (स्वात्तम्) धर्मयुक्त व्यवहार से प्राप्त हुए पदार्थों को (देवहविः) विद्वानों के भोगने के समान (संस्वदन्तु) अच्छी तरह से भोगें, (आशिषा) मेरे आशीर्वाद से (ते) तेरे (अङ्गानि) शिर आदि अवयव (यजत्रैः) यज्ञ कराने वालों के साथ (सम्) सम्यक् नियुक्त हों और (प्राणः) प्राण (वातेन) पवित्र वायु के संग (सङ्गच्छताम्) उत्तमता से रमण करे और तू (यज्ञपतिः) विद्याप्रचाररूपी यज्ञ का पालन करने हारा हो॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो यज्ञ में दी हुई आहुति हैं, वे सूर्य के उपस्थित रहती हैं अर्थात् सूर्य की आकर्षण शक्ति से परमाणुरूप होकर सब पदार्थ पृथिवी के ऊपर आकाश में हैं, उसी पृथिवी का जल ऊपर खिंचकर वर्षा होती है, उस वर्षा से अन्न और अन्न से सब जीवों को सुख होता है, इस परम्परा सम्बन्ध से यज्ञशोधित जल और होम किये द्रव्य को सब जीव भोगते हैं॥१०॥

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    विषय

    अपां पेरु

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र में यह भावना थी कि हम अपने को ऋत के पाश से बाँधते हैं—तेजस्वी व शान्त बनते हैं। ऋत के पाश से अपने को बाँधनेवाला ही प्रस्तुत मन्त्र के अनुसार ( अपां पेरुः असि ) = वीर्य का रक्षक है [ आपः रेतो भूत्वा० ]। ‘आपः’ शब्द रेतस् का वाचक है। जीवन के व्रती होने पर और भोजन के सात्त्विक होने पर शरीर में सोम का धारण सुगम होता है। यह ‘मेधातिथि’ = समझदारी से चलनेवाला व्यक्ति सबसे अधिक महत्त्व इसी बात को देता है कि वह ‘अपां पेरु’—वीर्य का रक्षक हो। 

    २. इसी उद्देश्य से प्रभु मेधातिथि से कहते हैं कि ( आपः देवीः स्वदन्तु ) = ये दिव्य गुणवाले जल तेरे लिए स्वादिष्ट हों। ( सत् ) = उत्तम ( देवहविः ) = देवों द्वारा खाये जानेवाले हव्य पदार्थ ( चित् ) = ही ( स्वात्तम् ) =  [ आस्वादितम्—म० ] तेरे से स्वाद लिये जाएँ, अर्थात् तू सात्त्विक वानस्पतिक भोजनों को ही खानेवाला बन। 

    ३. इस प्रकार जलों व वानस्पतिक भोजनों के सेवन से ( ते प्राणः ) = तेरा यह प्राण ( वातेन ) = वायु से ( सङ्गच्छताम् ) =  सङ्गत हो। ‘वातः प्राणो भूत्वा०’ वायु ही प्राण का रूप धारण करके शरीर में रहती है। तेरे शरीरस्थ प्राणों का इस वायु से सङ्गमन [ मेल ] हो, विरोध न हो। वायु तेरे अनुकूल हो और यह वायु तुझमें प्राणशक्ति का सञ्चार कर दे। 

    ४. ( अङ्गानि ) = तेरे सब अङ्ग ( यजत्रैः ) = यज्ञों द्वारा त्राण करनेवाले देवों के साथ ( सम् ) [ गच्छन्ताम् ] =  सङ्गत हों, अर्थात् तेरे सब अङ्गों में दिव्यता का सञ्चार हो। 

    ५. और यह प्राणशक्ति सम्पन्न दिव्यतापूर्ण अङ्गोंवाला ( यज्ञपतिः ) = यज्ञ का पालक ‘मेधातिथि’ ( सम् आशिषा ) = शुभ इच्छाओं से सङ्गत हो, सदा उत्तम इच्छाओंवाला हो।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम वीर्यरक्षा के लिए खान-पान को सात्त्विक बनाएँ। हमारी प्राणशक्ति ठीक हो, हमारे सब अङ्ग दिव्यतापूर्ण हों। हमारी इच्छाएँ उत्तम हों।

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    विषय

    दीक्षा प्राप्ति।

    भावार्थ

    हे दीक्षाप्राप्त राजन् ! या शिष्य ! तू ( अपाम् ) समस्त आप्त पुरुषों का ( पेरुः ) पालन करने वाला ( असि ) है । ( देवी: आप: ) देव, दानशील, तत्वदर्शी ( आपः ) आप्त पुरुष ( सु-आत्तम् ) सुखपूर्वक प्राप्त की हुई अथवा ( स्वात्तम् ) आस्वादन करने योग्य भोग्य, आनन्दप्रद, (चित्) उत्तम ( सत् ) श्रेष्ठ पुरुषों, या राजा के योग्य हविः अर्थात् अन्न आदि उपादेय पदार्थों का स्वयं ( स्वदन्तु ) भोग करें और तुझे भी भोग करावे । ( आशिषा ) सब बड़ों के आशीर्वाद से ( ते प्राणः ) तेरा प्राण ( वातेन ) वायु के साथ मिल कर अनुकूल रूप से ( सं गच्छताम् ) गति करे । अर्थात् तेरा प्राण वायु के समान बलवान हो । और (अंगानि ) तेरे समस्त या तेरे राष्ट्र के समस्त अंग ( यजत्रैः ) विद्वान्, पुरुषों द्वारा यज्ञ के अंगों के समान ( संगच्छन्ताम् ) शिक्षा, और पोषण द्वारा उत्तम रीति से वर्ते । और तू ( यज्ञपतिः ) समस्त राष्ट्रमय यज्ञ का पालक होकर ( आषिषा सं गच्छताम् ) उसम आज्ञाओं और आशीर्वाद से युक्त हो ॥ शत० ३ । ७ । ४ । ६-९ ॥ 

    टिप्पणी

      १० - ० 'सदन्तु ' ० सं, 'यजमान आषिषा' इति काण्व०॥ १ अपांपेरु। २ संते प्राणो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आपः शुश्च देवता ( १ ) प्राजापत्या बृहती। मध्यमः । (२) निचृदार्षीबृहती मध्यमः ।

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    विषय

    अब यज्ञोपवीत होने के पश्चात् शिष्य विद्या और उत्तम शिक्षा का ग्रहण तथा अग्निहोत्रादि यज्ञ का अनुष्ठान अवश्य करे, ऐसा उपदेश गुरु किया करे, यह इस मन्त्र में कहा है।।

    भाषार्थ

    हे शिष्य ! तू (अपाम्) जलों का (पेरुः) रक्षक (असि) है। संसार के सब प्राणी तेरे यज्ञ से शुद्ध हुए (देवी:) शुद्ध एवं दिव्य सुखदायक (आपः) जलों का (चित्) और (स्वात्तम्) धर्माचरण पूर्वक ग्रहण किए हुये [सद्] उत्तम (देवहविः) होम के द्रव्यों का (संस्वदन्तु) आस्वादन करें। मेरे आशीर्वाद से [ते] तेरे (अङ्गानि) शिर आदि अवयव (यजत्रैः) यजमान विद्वानों के साथ[सम्] संगत रहें तथा(प्राण:) प्राण भी (वातेन) पवन के साथ (सं+गच्छताम्) संगतरहें। तू (यज्ञपतिः) यज्ञ का पालक बन।। ६। १०।।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। जो यज्ञ में आहुतियाँ डाली जाती हैं वे सूर्य में पहुँचती हैं, सूर्य की आकर्षण शक्ति से पृथिवी के जल का आकर्षण होने से वर्षा होती है, वर्षा से अन्न तथा अन्न से प्राणी जीवित रहते हैं, इस परम्परा सम्बन्ध से यज्ञ से शुद्ध जल और होम से किये हुये द्रव्य का सब प्राणी सेवन करते हैं।। ६। १०।।

    प्रमाणार्थ

    इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३। ७।४। ६-९) में की गई है ॥ ६। १०॥

    भाष्यसार

    १. शिष्य के लिये गुरु का उपदेश-- हे शिष्य! जो यज्ञ में आहुति डाली जाती हैं वे सब सूर्य में पहुँचती हैं, फिर सूर्य की आकर्षण शक्ति से पृथिवीस्थ जल का आकर्षण होने से वर्षा होती है। इसलिए तू जलों का रक्षक बन कर अग्निहोत्र रूप यज्ञ का अनुष्ठान कर। जिससे संसार के सब प्राणी तेरे यज्ञ से शुद्ध किये दिव्य सुखदायक जलों का सेवन कर सकें। दिव्य जल की वर्षा से उत्तम अन्न उत्पन्न होता है, अन्न ही प्राणियों के जीवन का आधार है। और जैसे धर्मानुष्ठान से स्वीकार किये हुये उत्तम यज्ञ-शेष का विद्वान् लोग आस्वादन करते हैं इसी प्रकार परम्परा सम्बन्ध से तेरे यज्ञ से शुद्ध तथा उत्पन्न जल और अन्न का सब प्राणी सेवन करते हैं। इसलिये जगत् के कल्याणार्थ हे शिष्य ! तू विद्या और शिक्षा का ग्रहण कर तथा अग्निहोत्र का अवश्य अनुष्ठान कर।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. यज्ञात दिलेली आहुती सूर्यापर्यंत पोहोचते. अर्थात सूर्याच्या आकर्षण शक्तीने परमाणुरूप बनून सर्व पदार्थ पृथ्वीवरून आकाशात जातात. पृथ्वीचे जलही अंतरिक्षात ओढून घेतले जाते व नंतर पर्जन्यरूपाने पृथ्वीवर येते. त्या वृष्टीमुळे अन्न प्राप्त होते. अन्नामुळे सर्व जीव सुखी होतात. या क्रमानुसार यज्ञाने शुद्ध झालेले जल व होमात अर्पण केलेले द्रव्य सर्व जीव भोगतात.

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    विषय

    आता यज्ञोपवीत धारण केल्यानंतर शिष्यासाठी आवश्यक आहे की त्याने विद्या, उत्तम ज्ञान. आणि अग्निहोत्रादि कर्मांचे अनुष्ठान करावे. गुरूने त्यास या अर्थाचा उपदेश करावा, पुढील मंत्रात हा विषय प्रतिपादित आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे शिष्या, तू (अपाम्) जल आदी पदार्थांचा (पेरु) रक्षक (असि) आहेस. संसारातील प्राण्यांनी तू करीत असलेल्या यज्ञाद्वारे शुद्ध झालेल्या आणि (देवीः) यज्ञामुळे दिव्य सुख देणाऱ्या (आपः) पाण्याचा उपभोग घ्यावा. (चित्) आणि (स्वात्तम्) धर्मयुक्त व्यवहारामुळे प्राप्त झालेल्या पदार्थांचे (देवहविः) विद्वानांसाठी भोग्य असलेल्या पदार्थाप्रमाणे शुद्ध अशा पदार्थांचा (संस्वदन्तु) चांगल्या प्रकारे सर्व जीवांनी (संस्वदन्तु) चांगल्या प्रकारे आस्वाद घ्यावा. (आशिषा) माझ्या आशीर्वादाने (ते) तुझे (अंगानि) डोके आदी अवयव (यजत्रैः) यज्ञ करणार्‍या याज्ञिकांशी (सम्) सम्यकप्रकारे सहयुक्त व्हावेत (तू शरीर व मनाने याज्ञिकांशी एकरूप हो) (प्राणः) तुझ्या शरीरातील प्राणवायू (वातेन) पवित्र व शुद्ध वायूसह (संगच्छताम्) उत्तम प्रकारे रमण म्हणजे (श्‍वासोच्छ्वास) करोत आणि अशाप्रकारे तू (यज्ञपतिः) विद्येचा प्रचार-प्रसाररूप यज्ञाचे पालन करणारा हो ॥10॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. यज्ञामधे ज्या आहुत्या दिल्या जातात, त्या सूर्यासह वर्तमान राहतात म्हणजे पृथ्वीवरील सर्व पदार्थ सूर्याच्या आकर्षणशक्तीने परमाणू रूप होऊन वर आकाशात असतात. पृथ्वीचे पाणी वर ओढले जाऊन वृष्टी होते. त्या वृष्टीने अन्न आणि अन्नामुळे सर्व प्राणी सुखी होतात. या कार्यपरंपरेमुळे यज्ञाद्वारे शोधित जलाचा आणि हवन केलेल्या द्रव्यांचा सर्व प्राणी भोग घेत असतात. ॥10॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O pupil, thou art the purifier of water through yajna. May people purified by thy sacrifice enjoy pleasant waters, and substances obtained by virtuous means, as do the sages. Through my benediction, may all thy organs be devoted to the performance of the yajna along with the learned priests. May thy breath roam freely with the wind, and may thou be the performer of the yajna of the spread of knowledge.

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    Meaning

    You are a protector of the waters (through yajna). May all the living beings taste and enjoy the sweet and celestial waters and other things of their own like the blessed gifts from yajna. May you, with all your body and will, and by my blessings (i. e. , the teacher’s blessings) help and cooperate with those who are dedicated to yajna. May your very breath rise with the wind carrying the fragrance. Be a master of yajna.

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    Translation

    (O aspirant), you are fond of drinking of water. (1) May the divine waters give taste to you and make the oblation for Nature's bounties tasteful. (2) May your breath unite with the wind; may your limbs unite with the worship and may the sacrificer be united with the blessings he covets. (3)

    Notes

    Араm perah, fond of drinking waters. Sam gacchatám, may unite, or be in concord with.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথোপনীতেন শিষ্যেণ বিদ্যাসুশিক্ষাগ্রহণাগ্নিহোত্রাদিয়জ্ঞোऽবশ্যমনুষ্ঠাতব্য ইতি গুরুরুপদিশেৎ ॥
    এখন যজ্ঞোপবীত হওয়ার পর শিষ্যের পক্ষে অতি প্রয়োজন যে, বিদ্যা, উত্তম শিক্ষা গ্রহণ ও অগ্নিহোত্রাদিকের অনুষ্ঠান করুক এমন উপদেশ গুরু করিতে থাকিবেন, ইহাপরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে শিষ্য ! তুমি (অপাম্) জলাদি পদার্থের (পেরু) রক্ষক, সংসারস্থ জীব তোমার যজ্ঞ হইতে শুদ্ধ (দেবীঃ) দিব্য সুখদায়ী (আপঃ) জলকে (চিৎ) এবং (স্বাত্তম্) ধর্মযুক্ত ব্যবহার দ্বারা প্রাপ্ত পদার্থকে (দেবহবিঃ) বিদ্বান্দিগের ভোগের সমান (সংস্বদন্ত) ভাল করিয়া ভোগ কর । (আশিষা) আমার আশীর্বাদে (তে) তোমার (অঙ্গানি) শিরাদি অবয়ব (য়জত্রৈঃ) যজ্ঞ কারীদিগের সহ (সম্) সম্যক্ নিযুক্ত হয় এবং (প্রাণঃ) প্রাণ (বাতেন) পবিত্র বায়ুর সঙ্গে (সঙ্গচ্ছতাম্) উত্তমতাপূর্বক বিচরণ করুক এবং তুমি (য়জ্ঞপতিঃ) বিদ্যাপ্রচাররূপী যজ্ঞ পালনকারী হও ॥ ১০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- অত্র বাচকলুপ্তোপমালঙ্কারঃ । যজ্ঞে প্রদত্ত আহুতি সূর্য্যের উপস্থিতিতে হয় অর্থাৎ সূর্য্যের আকর্ষণ শক্তি দ্বারা পরমাণুরূপ হইয়া সকল পদার্থ যে পৃথিবীর উপর আকাশে অবস্থিত সেই পৃথিবীর জল ঊর্দ্ধে আকর্ষণ করিয়া বর্ষা হয় । সেই বর্ষা হইতে অন্ন, অন্ন হইতে সকল জীব সুখ লাভ করে । এই পরম্পরা সম্পর্ক দ্বারা যজ্ঞশোধিত জল ও হোমকৃত দ্রব্যকে সকল জীব ভোগ করে ॥ ১০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒পাং পে॒রুর॒স্যাপো॑ দে॒বীঃ স্ব॑দন্তু স্বা॒ত্তং চি॒ৎসদ্দে॑বহ॒বিঃ । সং তে॑ প্রা॒ণো বাতে॑ন গচ্ছতা॒ꣳ সমঙ্গা॑নি॒ য়জ॑ত্রৈঃ॒ সং য়॒জ্ঞপ॑তিরা॒শিষা॑ ॥ ১০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অপাং পেরুরিত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । আপো দেবতা । প্রাজাপত্যা বৃহতী ছন্দঃ । মধ্যমঃ স্বরঃ । সন্ত ইত্যস্য বিরাডার্চী বৃহতী ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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