यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 12
ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः
देवता - विद्वांसो देवता
छन्दः - भूरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप्,साम्नी उष्णिक्,
स्वरः - गान्धारः
130
माहि॑र्भू॒र्मा पृदा॑कु॒र्नम॑स्तऽआतानान॒र्वा प्रेहि॑। घृ॒तस्य॑ कु॒ल्याऽउप॑ऽऋ॒तस्य॒ पथ्या॒ऽअनु॑॥१२॥
स्वर सहित पद पाठमा। अहिः॑। भूः॒। मा। पृदा॑कुः। नमः॑। ते॒। आ॒ता॒नेतेत्या॑ऽतान। अ॒न॒र्वा। प्र। इ॒हि॒। घृ॒तस्य॑। कु॒ल्याः। उप॑। ऋ॒तस्य॑। पथ्याः॑। अनु॑ ॥१२॥
स्वर रहित मन्त्र
माहिर्भूर्मा पृदाकुर्नमस्तऽआतानानर्वा प्रेहि । घृतस्य कुल्याऽउप ऋतस्य पथ्याऽअनु ॥
स्वर रहित पद पाठ
मा। अहिः। भूः। मा। पृदाकुः। नमः। ते। आतानेतेत्याऽतान। अनर्वा। प्र। इहि। घृतस्य। कुल्याः। उप। ऋतस्य। पथ्याः। अनु॥१२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
स विद्वान् कीदृग्भवेदित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे आतान! त्वं अहिर्माभूः पृदाकुर्माभूस्ते तुभ्यं नमोऽस्तु, सर्वत्र त्वत्सुखायान्नादिपदार्थः पुरत एव प्रवर्त्तत इति भावः। अनर्वा घृतस्य कुल्या इवर्तस्य पथ्या प्रोपैहि॥१२॥
पदार्थः
(मा) निषेधे (अहिः) सर्पवत् (भूः) भवेः, अत्र लिङर्थे लुङ्। (पृदाकुः) मूढवदभिमानी व्याधवद्वा हिंसकः (नमः) अन्नम्। नम इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰२।७) (ते) तुभ्यम् (आतान) समन्तात् सुखं तनितः (अनर्वा) अश्वहीनः। अर्वेत्यश्वनामसु पठितम्। (निघं॰१।१४) (प्र) प्रकृष्टार्थे (इहि) गच्छ (घृतस्य) उदकस्य (कुल्याः) घृतधाराः (उप) (ऋतस्य) सत्यस्य (पथ्याः) वीथीः (अनु)॥ अयं मन्त्रः (शत॰३। ८। २। १-३) व्याख्यातः॥१२॥
भावार्थः
केनापि मनुष्येण धर्ममार्गे कुटिलमार्गगामिसर्पादिवत्कुटिलाचरणेन न भवितव्यम्, किन्तु सर्वदा सरलभावेनैव भवितव्यम्॥१२॥
विषयः
स विद्वान् कीदृग्भवेदित्युपदिश्यते॥
सपदार्थान्वयः
हे आतान! समन्तात् सुखं तनितः! त्वमहिः सर्पवत् मा न भूः भवे:। पृदाकु: मूढवदभिमानी व्याधवद्वा हिंसको मान भूः भवेः।ते=तुभ्यं नमः अन्नम् अस्तु,सर्वत्र त्वत्सुखायाऽन्नादि पदार्थः पुरत एव वर्त्तत इति भावः। अनर्वा अश्वहीनो घृतस्य उदकस्य कुल्याः घृतधारा इव ऋतस्य सत्यस्य पथ्याः वीथी: [अनु]प्र+उप+इहि प्रकृष्टतया गच्छ।।६ । १२ ।। [हे आतान! त्वमहिर्मा भूः, पृदाकुर्मा भूः।.....धृतस्य कुल्या इवर्तस्य पथ्या [अनु] प्र+उप+इहि]
पदार्थः
(मा) निषेधे (अहिः) सर्पवत् (भूः) भवे:। अत्र लिङर्थे लुङ् (पृदाकु:) मूढवदभिमानी व्याधवद्वा हिंसकः (नमः) अन्नम् । नम इत्यन्ननामसु पठितम् ॥ निघं० २ । ७ ॥ (ते) तुभ्यम् (आतान) समन्तात्सुखं तनित: (अनर्वा) अश्वहीनः। अर्वेत्यश्वनामसु पठितम् ॥ निघं० १ । १४ ॥ (प्र) प्रकृष्टार्थे (इहि) गच्छ (घृतस्य) उदकस्य (कुल्या:) घृतधारा: (उप) (ॠतस्य) सत्यस्य (पथ्याः) वीथी: (अनु) अयं मन्त्रः शत० ३ । ८।२।१-३ व्याख्यातः।। १२।।
भावार्थः
केनापि मनुष्येण धर्म-मार्गे कुटिलमार्गगामिसर्पादिवत् कुटिलाचरणेन न भवितव्यं, किन्तु—सर्वदा सरलभावेनैव भवितव्यम् ।। ६ । १२।।
विशेषः
मेधातिथिः। विद्वांसः=स्पष्टम्॥ भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप्। गान्धारः। घृतस्येत्यस्य भुरिगासुर्यनुष्टुप्।।
हिन्दी (4)
विषय
वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (आतान) अच्छे प्रकार सुख से विस्तार करने वाले विद्वान्! तू (मा) मत (अहिः) सर्प के समान कुटिलमार्गगामी और (मा) मत (पृदाकुः) मूर्खजन के समान अभिमानी वा व्याघ्र के समान हिंसा करने वाला (भूः) हो (ते) सब जगह तेरे सुख के लिये (नमः) अन्न आदि पदार्थ पहले ही प्रवृत्त हो रहे हैं और (अनर्वा) अश्व आदि सवारी के विना निराश्रय पुरुष जैसे (घृतस्य) जल की (कुल्याः) बड़ी धारओं को प्राप्त हो, वैसे (ऋतस्य) सत्य के (पथ्याः) मार्गों को प्राप्त हो॥१२॥
भावार्थ
किसी मनुष्य को कुटिलगामी सर्प आदि दुष्ट जीवों के समान धर्ममार्ग में कुटिल न होना चाहिये, किन्तु सर्वदा सरल भाव से ही रहना चाहिये॥१२॥
विषय
दिव्य गुण
पदार्थ
पिछले मन्त्र की समाप्ति दिव्य गुणों को प्राप्त करने की प्रार्थना पर थी। उन्हीं दिव्य गुणों का संकेत प्रस्तुत मन्त्र में दिया गया है। विद्वान् आचार्य मेधातिथि [ समझदार ] को आदेश देते हैं कि १. ( अहिः मा भूः ) = तू साँप मत बन। तुझमें सर्पवत् कुटिलता न हो। तू औरों को डसनेवाला, कटु शब्दों से उनके मन, हृदय को विद्ध करनेवाला न हो।
२. ( मा पृदाकुः ) = तू अजगर न हो, औरों को निगल जानेवाला न हो। औरों की सम्पत्ति को तूने हड़प नहीं लेना।
३. ( नमः ते ) = इस प्रकार उत्तम जीवनवाले तेरे लिए आदर हो। सभी लोगों का तू हृदय से आदरणीय बन।
४. ( आतान ) = तू अपनी सब शक्तियों का सदा विस्तार कर।
५. परन्तु ( अनर्वा ) = तू किसी की हिंसा करनेवाला न हो। तेरी शक्तियाँ परि-रक्षण के लिए हों, पर-पीड़न के लिए नहीं।
६. ( प्रेहि ) = तू निरन्तर आगे बढ़ ७. ( घृतस्य कुल्या उप ) = ज्ञान की नहरों के समीप पहुँच और ८. ( ऋतस्य पथ्या अनु ) = ऋत के मार्गों के साथ तू आगे बढ़, अर्थात् आगे बढ़ने व उन्नति का स्वरूप यही है कि मनुष्य ज्ञान की धाराओं के समीप पहुँचता जाए और सूर्य-चन्द्रमा की गति के अनुसार अपने जीवन-मार्ग पर बड़े नियम से चले।
भावार्थ
भावार्थ — वेद के दृष्टिकोण में दिव्य जीवन यह है १. कुटिलता का सर्वथा त्याग २. चुभनेवाली बातें न करना, कटु न बोलना ३. औरों की सम्पत्ति को न हड़पना ४. अपना जीवन आदरणीय बनाना ५. हिंसा न करना ६. निरन्तर आगे बढ़ना ७. ज्ञान प्राप्त करना और ८. नियमित जीवन बिताना।
विषय
सदाचार, शिष्टाचार।
भावार्थ
हे पुरुष ! तू ( अहिः ) सर्प के समान कुटिल मार्ग पर चलने वाला या अकारण क्रोधी ( मा भूः ) मत हो । और तू ( पृदाकूः ) मूढ के समान अभिमानी, या व्याघ्र के समान हिंसक, या पृदाकू =अजगर के समान अपने सभी को हङपजाने वाला, उसके प्राणों का नाशक ( मा भूः ) मत हो । स्त्री पुरुष को और प्रजा राजा को कहती है कि हे ( आतान) हे यज्ञसम्पादक पुरुष ! हे प्रजा के सुख को भली प्रकार विस्तार करने वाले पुरुष ! या सुख के विस्तारक ! ( ते नमः . ) हम तेरा आदर करते हैं । ( अनर्वा प्रेहि ) तू आ और जिस प्रकार ( घृतस्य ) धृत आदि पुष्टिप्रद पदार्थ या घृत=जल की धारा अर्थात् सत्कारार्थ इन जलों को मुख आदि प्रक्षालन के लिए(उप इहि) प्राप्त हो,स्वीकार कर। और ( ऋतस्य) ऋत, अन्न के( पथ्या ) खाने योग्य भोजनों को भी (अनु) पीछे स्वीकार कर । अथवा( ऋतस्य पथ्याः अनु ) सत्य ज्ञान के मार्गों को तू अनुसरण कर ॥
राजा के पक्ष में- हे राजन् ! तू सर्प के समान कुटिलाचारौ और अजगरके समान प्रजाभक्षी मत बन।हे विस्तृत राष्ट्र शासक! तेरा हम प्रजाजन आदर करते हैं। तू ( अनर्वा ) बिना सवारी,या बिना अश्वसेना या बिना शत्रु के विचर । जल को धाराओं पर पुष्टिकर पदार्थों को धाराओं को प्राप्त होऔर सत्य के मार्गों का अनुसरण कर ॥ शत० ३ ! ८ । २! ९-३ ॥
वर फे गृहद्वार पर भी उसकी स्वयंवरा कन्या और गृहपति के आने पर उसकी गृह- पत्नी भी उसी प्रकार आतिथ्य करे यह वेद का उपदेश है॥
टिप्पणी
१२ - ० 'पथ्याउप०' इति काण्व० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रज्जुः यशःश्च विद्वांसो वा देवताः ॥
विषय
वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश किया है।।
भाषार्थ
हे (आतान) चहुँ ओर सुख का विस्तार करने वाले विद्वान्! तू (अहिः) सर्प के समान कुटिलगामी (मा) मत (भूः) बन, (पृदाकुः) मूढ़ के समान अभिमानी अथवा व्याध के समानहिंसक (मा) मत (भू:) बन, (ते) तेरे लिये (नमः) अन्न हो अर्थात् सर्वत्र तेरे सुख के लिये अन्न आदि पदार्थ पहले ही वर्तमान रहें। और तू (अनर्वा) अश्व आदि के बिना ही (घृतस्य) जल की (कुल्याः) धाराओं के समान (ॠतस्य) सत्य के (पथ्याः) मार्गों को [अनु] अनुकूलतापूर्वक ( प्र+उप+इहि) उत्तम रीति से प्राप्त कर।। ६। १२।।
भावार्थ
कोई भी मनुष्य धर्म-मार्ग में कुटिलमार्ग-गामी सर्प आदि के समान कुटिल आचरण वाला न हो, किन्तु प्रत्येक मनुष्य सदा सरल स्वभाव वाला ही हो।। ६। १२।।
प्रमाणार्थ
(भूः) भवेः। यहाँ लिङ् अर्थ में लुङ् लकार है। (नमः) यह शब्द निघं० (२। ७) में अन्न-नामों में पढ़ा है। (अनर्वा) 'अर्वा' शब्द निघं ० (१। १४) में अश्व-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।८।२।१-३) में की गई है।। ६। १२।।
भाष्यसार
विद्वान् कैसा हो-- सब ओर सुख का विस्तार करने वाला विद्वान् धर्म के मार्ग में कुटिल-मार्ग-गामी सर्प के समान कुटिल आचरण न करे तथा मूढ़ मनुष्य के समान अभिमानी न हो, व्याध वा व्याघ्र के समान हिंसक भी न हो। सब विद्वान् का अन्न से सत्कार करें। सर्वत्र उसे सुख पहुँचाने के लिये अन्न आदि उत्तम पदार्थउसके सामने प्रस्तुत करें। जैसे जल की धारायें अपने पथ पर उत्तम रीति से घोड़ों के बिना ही गति करती हैं इसी प्रकार विद्वान् भी सत्य के पथ पर चलें। सदा सरल भाव से व्यवहार करें।। ६। १२।।
मराठी (2)
भावार्थ
कोणत्याही माणसाने धर्ममार्गाने चालताना कुटिल सर्प इत्यादी दुष्ट जीवांप्रमाणे वागू नये, तर सदैव सरळ मार्गाने वाटचाल करावी.
विषय
तो विद्वान (याज्ञिक) कसा असावा, याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (आतान) उत्तम प्रकारे सुखाचा विस्तार करणारे विद्वान् (प्रभूत सुख अनुभवीत असलेल्या हे विद्वान महोदय), आपण कधीही (अहिः) सापाप्रमाणे कुटिलगामी आणि (पृदाकुः) मूर्खाप्रमाणे अहंकारी अथवा व्याघ्राप्रमाणे हिंसक (मा) (मा) (भूः) होऊ नका. (आपल्या मनात कुटिलता, कष्ट, अहंकार अथवा हिंसा आदी दुष्टभाव कधीही उत्पन्न होऊ नये वा आपण होऊ देऊ नका) (ते) (नमः) आपल्या सुख-आनन्दासाठी आधीच सर्वत्र अन्न आदी पदार्थांची उचित व्यवस्था आहे (म्हणून आपण कुटिल वा कपटी होण्याचे कारण नाही) (अनर्वा) ज्याच्याजवळ घोडा आदी कोणतेही वाहन नाही असा निराधार पुरुष (प्रवासी) ज्याप्रमाणे (घृतस्य) पाण्याच्या (कुल्याः) धारा वा कालव्यांना पाहून आनंदित होतो, त्याप्रमाणे आपण (ऋतस्य) सत्य व सत्याचरणाच्या (पथ्याः) मार्गाकडे सतत चालत जा व आनंदी राहा. ॥12॥
भावार्थ
भावार्थ – धर्ममार्गावलंबी कोणाही मनुष्याने धर्ममार्गावर चालत असतांना कुटिल होऊ नये. याउलट सदैव सरळमार्गी असावे. ॥12॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person, the diffuser of delight, behave not crookedly like a serpent, or proudly like a fool, or ferociously like a tiger. Food is ready for thee everywhere. Tread on the paths of truth and rectitude, just as shelter less persons without any conveyance feel happy when they teach a stream of water.
Meaning
Man of knowledge, promoter of joy, never be like a snake or violent as a hunter or tiger. Come irresistibly like a stream of ghee close by the path of truth and the law of Dharma. Salutations to you. Gifts of food and hospitality for you in plenty.
Translation
Be not a snake; be not a python. (1) Obeisance be to you, O sacrifice. Move onwards without hinderance. Rivers of purified butter flow along the path of righteousness. (2)
Notes
Atfinnh, यज्ञ:, sacrifice. Арагva, शत्रुरहित:, unhindered.
बंगाली (1)
विषय
স বিদ্বান্ কীদৃগ্ভবেদিত্যুপদিশ্যতে ॥
সেই বিদ্বান্ কেমন হইবে, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে দেওয়া হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (আতান) ভাল প্রকার সুখ বিস্তারকারী বিদ্বান্গণ! তোমরা (মা) না (অহিঃ) সর্পসমান কুটিল মার্গগামী এবং (মা) না (পৃদাকুঃ) মূর্খ জন সম অভিমানী বা ব্যাঘ্রসম হিংসাকারী (ভূঃ) হইও । (তে) (নমঃ) সকল স্থান তোমার সুখের জন্য অন্নাদি পদার্থ প্রথমেই প্রবৃত্ত হইতেছে এবং (অনর্বা) অশ্বাদি আরোহণ বিনা নিরাশ্রয় পুরুষ যেমন (ঘৃতস্য) জলের (কুল্যাঃ) বড় বড় ধারা প্রাপ্ত হয় সেই রূপ (ঋতস্য) সত্যের (পথ্যাঃ) মার্গ প্রাপ্ত করুক ॥ ১২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- কোন মনুষ্যকে কুটিলগামী সর্পাদি দুষ্ট জীবদিগের সমান ধর্মমার্গে কুটিল হওয়া উচিত নহে কিন্তু সর্বদা সরল ভাবেই থাকা দরকার ॥ ১২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
মাহি॑র্ভূ॒র্মা পৃদা॑কু॒র্নম॑স্তऽআতানান॒র্বা প্রেহি॑ ।
ঘৃ॒তস্য॑ কু॒ল্যাऽউপ॑ऽঋ॒তস্য॒ পথ্যা॒ऽঅনু॑ ॥ ১২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
মাহির্ভূরিত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । বিদ্বাংসো দেবতাঃ । ভুরিক্ প্রাজাপত্যানুষ্টুপ্ ছন্দঃ । ঘৃতস্যেত্যস্য ভুরিগাসুর্য়নুষ্টুপ্ ছন্দঃ । উভয়ত্র গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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