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यजुर्वेद अध्याय - 6

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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 18
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - प्राजापत्या अनुष्टुप्,आर्ची पङ्क्ति,दैवी पङ्क्ति, स्वरः - गान्धारः, पञ्चमः
    141

    सं ते॒ मनो॒ मन॑सा॒ सं प्रा॒णः प्रा॒णेन॑ गच्छताम्। रेड॑स्य॒ग्निष्ट्वा॑ श्रीणा॒त्वाप॑स्त्वा॒ सम॑रिण॒न् वात॑स्य त्वा ध्राज्यै॑ पू॒ष्णो रꣳह्या॑ऽऊ॒ष्मणो॑ व्यथिष॒त् प्रयु॑तं॒ द्वेषः॑॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्। ते। मनः॑। मन॑सा। सम्। प्रा॒णः। प्रा॒णेन॑। ग॒च्छ॒ता॒म्। रे॒ट्। अ॒सि॒। अ॒ग्निः। त्वा॒। श्री॒णा॒तु॒। आपः॑। त्वा॒। सम्। अ॒रि॒ण॒न्। वातस्य। त्वा॒। ध्राज्यै॑। पू॒ष्णः। रह्यै॑। ऊ॒ष्मणः॑। व्य॒थि॒ष॒त्। प्रयु॑त॒मिति॒ प्रऽयु॑त॒म्। द्वेषः॑ ॥१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सन्ते मनो मनसा सम्प्राणः प्राणेन गच्छताम् । रेडस्यग्निष्ट्वा श्रीणात्वापस्त्वा समरिणन्वातस्य त्वा ध्राज्यै पूष्णो रँह्या ऊष्मणो व्यथिषत्प्रयुतं द्वेषः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। ते। मनः। मनसा। सम्। प्राणः। प्राणेन। गच्छताम्। रेट्। असि। अग्निः। त्वा। श्रीणातु। आपः। त्वा। सम्। अरिणन्। वातस्य। त्वा। ध्राज्यै। पूष्णः। रह्यै। ऊष्मणः। व्यथिषत्। प्रयुतमिति प्रऽयुतम्। द्वेषः॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ रणे योद्धा कीदृग्भवेदित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे योद्धः संग्रामे ते मनो मनसा प्राणः प्राणेन च संगच्छताम्। हे वीर! त्वं रेडसि त्वा त्वामग्नि-र्युद्धजन्यक्रोधाग्निः श्रीणातु, त्वं प्रयुतं शत्रुसैन्यं प्राप्य तज्जन्यादूष्मणो द्वेषो मा व्यथिषत्, त्वां वातस्य ध्राज्यै वातस्य गतिभिर्युद्धकर्मणि गत्यै यद्वा पूष्णो रंह्यै सूर्यस्य गतिरिव युद्धभूमिषु गत्यै यथार्थतया युद्धकर्म्मणि प्रवृत्यै आपः समरिणन्॥१८॥

    पदार्थः

    (सम्) (ते) तव (मनः) अन्तःकरणम् (मनसा) विज्ञानेन (सम्) (प्राणः) (प्राणेन) बलेन (गच्छताम्) (रेट्) शत्रुहिंसकः, अत्र रिषतेहिंसार्थात् कर्त्तरि विच्। (अग्निः) युद्धजन्यक्रोधाग्निः (त्वा) त्वाम् (श्रीणातु) परिपचतु (त्वा) त्वाम् (आपः) जलानि (सम्) (अरिणन्) प्राप्नुवन्तु। रिणातीति गतिकर्म्मसु पठितम्। (निघं॰२।१४) (वातस्य) वायोः (ध्राज्यै) गत्यै। अत्र गत्यर्थाद् ध्रज धातोः॥ इञ् वपादिभ्यः। (अष्टा॰३।३।१०८ भा॰वा॰) इतीञ् प्रत्ययः। (पूष्णः) पोषकरस्यादित्यस्य (रंह्यै) गत्यै (ऊष्मणः) आतपात् (व्यथिषत्) व्यथते (प्रयुतम्) एतत्संख्याकम् (द्वेषः) द्वेष्टि येन सः॥ अयं मन्त्रः (शत॰३। ८। ३। ९-३१) व्याख्यातः॥१८॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः संग्रामे मनः समाधाय स्वबलवर्द्धकान्नपानशस्त्रादिपदार्थान् संपाद्य शत्रून् निहत्य संग्रामो विजेतव्य इति॥१८॥

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    विषयः

    अथ रणे योद्धा कीदृग्भवेदित्युपदिश्यते।।

    सपदार्थान्वयः

    हे योद्धः ! संग्रामे ते तवमनः अन्तःकरणं मनसा विज्ञानेन प्राण:प्राणेन बलेन च सम्+गच्छताम्। हे वीर ! त्वं रेट् शत्रुहिंसको असि, त्वा=त्वाम् अग्नि:=युद्धजन्यक्रोधाऽग्निः श्रीणातु परिपचतु। त्वं प्रयुतम् एतत्सङ्ख्याकं शत्रुसैन्यं प्राप्य तज्जन्याद् ऊष्मणःआतपाद् द्वेषः द्वेष्टि येन सः, मा व्यथिषत् व्यथते। [त्वा]=त्वां वातस्य ध्राज्यै=वातस्य गतिभिर्युद्धकर्मणि गत्यै(वायोः गत्यै) यद्वा पूष्णो (पोषकस्याऽऽदित्यस्य) रंह्यै=सूर्यस्य गतिरिव युद्धभूमिषु गत्यै=यथार्थतया युद्धकर्मणि प्रवृत्त्यै (गत्यै) आपः जलानि [त्वा] त्वाम् सम्+अरिणन् प्राप्नुवन्तु ॥ ६ । १८॥ [हे योद्धः! संग्रामे ते मनो मनसा, प्राणः प्राणेनचसंगच्छताम्। हे वीर! त्वा=त्वां.....यथार्थतया युद्धकर्मणि प्रवृत्त्यैआपः[त्वा] समरिणन्]

    पदार्थः

    (सम्) (ते) तव (मनः) अन्तःकरणम् (मनसा) विज्ञानेन (सम्) (प्राणः) (प्राणेन) बलेन (गच्छताम्) (रेट्) शत्रुहिंसकः । अत्र रिषतेर्हिंसायात् कर्त्तरि विच (असि) (अग्निः) युद्धजन्यक्रोधाग्नि: (त्वा) त्वाम् (श्रीणातु) परिपचतु (त्वा) त्वाम् (आपः) जलानि (सम्) (अरिणन्) प्राप्नुवन्तु। रिणतीति गतिकर्म्मसु पठितम् ॥ निघं० २ । १४॥ (वातस्य) वायोः (ध्राज्यै) गत्यै। अत्र गत्यर्थाद् ध्रजधातोः ॥ इञ् वपादिभ्यः ॥ अ० ३।३।१०८ भा० वा०॥ इतीञ् प्रत्ययः (त्वा) (पूष्णः) पोषकरस्यादित्यस्य (रंह्यै ) गत्यै (ऊष्मणः) आातपात् (व्यथिषत्) व्यथते (प्रयुतम्) एतत्संख्याकम् (द्वेषः) द्वेष्टि येन सः॥ अयम्मन्त्रः शत० ३।८।३। ९-३१ व्याख्यातः ॥ १८ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः संग्रामे मनः समाधाय स्वबलवर्द्धकान्नपानशस्त्रादिपदार्थान् सम्पाद्यन् शत्रून् निहत्य संग्रामो विजेतव्य इति॥ ६।१८ ।।

    विशेषः

    दीर्घतमाः । अग्निः=युद्धजन्यक्रोधाग्निः॥ प्राजापत्यानुष्टुप्। गान्धारः। रेडसीत्यस्य दैवीपङ्क्तिः। श्रीणात्वित्स्य आर्ची पंक्तिः। पञ्चमः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब रण में युद्ध करने वाला शिष्य कैसा हो, यह अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे युद्धशील शूरवीर! संग्राम में (ते) तेरा (मनः) मन (मनसा) विद्याबल और (प्राणः) प्राण (प्राणेन) प्राण के साथ (सम्) (गच्छताम्) संगत हो। हे वीर! तू (रेट्) शत्रुओं को मारने वाला (असि) है, (त्वा) तुझे (अग्निः) युद्ध से उत्पन्न हुए क्रोध का अग्नि (श्रीणातु) अच्छे पचावे तू (प्रयुतम्) करोड़ों प्रकार के शत्रुओं की सेना को प्राप्त होता है, तुझ को तज्जन्य (ऊष्मणः) गरमी का (द्वेषः) द्वेष मत (व्यथिषत्) अत्यन्त पीड़ायुक्त करे, जिससे (वातस्य) पवन की (ध्राज्यै) गति के तुल्य गति के लिये वा (पूष्णः) पुष्टिकारक सूर्य के (रंह्यै) वेग के तुल्य वेग के लिये अर्थात् यथार्थता से युद्ध करने में प्रवृत्ति होने के लिये (आपः) अच्छे-अच्छे जल (सम्) (अरिणन्) अच्छे प्रकार प्राप्त हों॥१८॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि अपने बल के बढ़ाने वाले अन्न, जल और शस्त्र-अस्त्र आदि पदार्थों को इकट्ठा करके शत्रुओं को मार कर संग्राम जीतें॥१८॥

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    विषय

    मन व प्राण

    पदार्थ

    पिछले मन्त्र के अनुसार जब ‘दीर्घतमा’ पापमुक्त होता है तब प्रभु उससे कहते हैं कि १. ( ते ) = तेरा ( मनः ) = मन ( मनसा ) = मननशक्ति से ( सङ्गच्छताम् ) = सङ्गत हो और ( प्राणः ) = जीवन ( प्राणेन ) = जीवनीशक्ति से ( सङ्गच्छताम् ) = सङ्गत हो, अर्थात् तुझमें ऋषियों की मननशक्ति हो और मल्लों की जीवनी शक्ति हो। तेरे ‘क्षत्र व ब्रह्म’ दोनों ही खूब विकसित हों। 

    २. ( रेट् असि ) = [ रिष हिंसायाम् ] तू ज्ञान-प्राप्ति में विघ्नभूत कामादि वासनाओं का संहार करनेवाला है और रोगों के कारणभूत स्वादादि को समाप्त करनेवाला है। 

    ३. ( अग्निः ) = ज्ञानाग्नि ( त्वा श्रीणातु ) = तुझे परिपक्व करे, अर्थात् ज्ञानाग्नि के कारण तेरे विचार इतने परिपक्व हों कि वे धर्म के मार्ग से कभी विचलित न हों। 

    ४. ( आपः ) = विद्याओं को व्याप्त करनेवाले ज्ञानी लोक ( त्वा ) = तुझे ( समरिणन् ) = उत्तम गतिवाला करें [ रिणतिः गतिकर्मसु ]। अथवा जल तेरे सब अङ्ग-प्रत्यङ्गों व ग्रन्थियों को ठीक गतिवाला करें। 

    ५. ( त्वा ) = तुझे ( वातस्य ) = वायु की ( ध्राज्यै ) =  तीव्र गति के लिए ( ऊष्मणः ) = तेजी से—क्रोध में आ जाने से ( व्यथिषत् ) = भयभीत कर दूर भगा दे, अर्थात् क्रोध से तू डरे और इस क्रोध से सदा बचे रहकर वायु की तरह अपने कर्मों में तू लगा रहे। 

    ६. ( पूष्णः ) = पोषण के देवता सूर्य की ( रंह्यै ) = गति के लिए, अर्थात् सूर्य के समान नियमित कार्यक्रम में लगे रहने के लिए ( द्वेषः ) = द्वेष से ( प्रयुतम् ) = दूर करें [ यु = अमिश्रण ]। मनुष्य जब द्वेष की भावना से युक्त होता है तब सूर्य के समान निर्लेप नहीं हो पाता। मनुष्य द्वेष से ऊपर उठकर ही न्याय-मार्ग पर चल पाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — मेरे मन व प्राण बलिष्ठ हों। मुझे क्रोध व द्वेष न छूएँ।

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    विषय

    परस्पर प्रतिज्ञा, न का स्वरूप, गुरु शिष्य और राजा प्रजा के परस्पर सम्बन्ध का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे मनुष्य ! ( ते मनः ) तेरा मन अन्तःकरण ( मनसा ) मन, मनन सामर्थ्य या विज्ञान से युक्त हो और ( प्राणः) प्राण (प्रायेन ) प्राण बलसे ( सं गच्छताम् ) युक्त हो । अथवा स्त्री पुरुष, राजा प्रजा और  गुरु शिष्य परस्पर प्रतिज्ञा करते हैं कि ( ते मनः मनसा सं गच्छताम् ) तेरा मन मेरे मन से मिलकर रहे । ( ते प्राणः प्राणेन संगच्छताम् ) तेरा प्राण मेरे प्राण से मिलकर रहे॥
     
    द्यौ और पृथिवी से उत्पन्न अन्न के पक्ष में हे अन्न ! भोजनयोग्य पदार्थ ! तू ( रेट्=लेट् असि ) तू आस्वादन करने योग्य है । (त्वा अग्निः श्रीणातु ) तुझे अग्नि परिपक्क करे । ( आपः त्वा सम् अरिणन् ) जल तुझमें मिलें (त्वा) तुझको ( वातस्य ) वायु के ( ध्राज्यै ) वेगवती, तीव्र गति और ( पूष्ण: ) परिपोषक सूर्य के ( रहौ) प्रचण्डता की ( उष्मण: ) उष्णता से ( व्यथिषत् ) तपाया जाता है। और इस प्रकार ( द्वेषः ) अप्रीतिकर, बुरे पदार्थ तुष आदि को तुझ से प्रयुतं ) पृथक् कर दिया जाता है॥
     
    इसी प्रकार शिष्य के पक्ष में -- ( रेटू असि ) तू ज्ञानवान् होने योग्य है । अग्नि, आचार्य तुझे ज्ञान में परिपक्क करे । आप्त पुरुष तेरे संग रहे । वात अर्थात् प्राण के तीव्रगति और परिपोषक सूर्य के प्रचण्डता की उष्णता से अर्थात् तप से तुझे तपस्या करायी गयी है । अतः हे सहनशील मेरे भीतर से ( प्रयुतं द्वेषः ) प्राणियों के प्रति तेरे हृदय में बैठे द्वेषभाव को पृथक् कर दिया गया है ॥
     
    राजा प्रजा पक्ष में और योद्धा पक्ष में -- ( रेट् ) शत्रुओं का तू नाशक है । अग्नि अग्रणी सेनापति युद्धाग्नि तुझे परिपक्क करे। या ( वातस्य त्वा ध्राज्यै ) वायु के प्रचण्डवेग और ( पूष्णः रहो, सूर्य के प्रचण्ड गति के प्राप्त करने के लिये ( त्या आपः सम् अरिणन् ) जलों के समान शान्त स्वभाव के विद्वान पुरुष तुझे प्रेरित करें। या ऐसे जल तुझे प्राप्त हों । तेरी ( उष्मः ) अपनी प्रचण्डता से ( प्रयुतम् ) लक्षों ( द्वेषः ) द्वेषकारी शत्रु ( व्यथिषत् ) पीड़ित हो ॥ शत० ३। ८। ३ । ९-२४ ॥ 

    टिप्पणी

     १८- हृदयं, वसा, द्वेषश्च देवताः । सर्वा० ॥ १ सं ते मनो। २ रेडस्यग्नि। 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । ( १ ) प्राजापत्यानुष्टुप् । गांधारः ॥ ( २ ) दैवी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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    विषय

    अब रण में युद्ध करने वाला कैसा हो, यह उपदेश किया जाता है।।

    भाषार्थ

    हे योद्धा ! संग्राम में (ते) तेरा (मनः) अन्तःकरण (मनसा) विज्ञान से और (प्राण:) प्राण (प्राणेन) बल से (सम् +गच्छताम्) संगत रहे। हे वीर! तू (रेट्) शत्रुओं का हिंसन करने वाला (असि) है, (त्वा) तुझे (अग्निः) युद्ध से उत्पन्न क्रोध की अग्नि (श्रीणातु) परिपक्व बनाये। तू (प्रयुतम्) करोड़ों शत्रुओं की सेना को प्राप्त करके तथा उससे उत्पन्न (ऊष्मणः) सन्तापयुक्त (द्वेषः) द्वेष से (मा व्यथिषत्) व्यथित न हो [त्वा] तुझे (वातस्य ध्राज्यै) युद्ध कर्म में वायु की गतियों के समान गति करने के लिये अथवा -- (पूष्ण:) पुष्टि करने वाले सूर्य की (रंह्यै) गति के समान युद्धभूमियों में गति करने के लिये अर्थात् यथार्थ रूप से युद्ध-कर्म में प्रवृत्त होने के लिये (आपः) जल [त्वा] तुझे (सम्+अरिणन्) प्राप्त हों।। ६। १८।।

    भावार्थ

    मनुष्य युद्ध में मन को लगाकर, अपने बल को बढ़ाने वाले अन्न, पान एवं शस्त्र आदि पदार्थों को सिद्ध करके शत्रुओं को मारकर संग्राम में विजयी हों।। ६। १८।।

    प्रमाणार्थ

    (रेट्) शत्रु हिंसकः। यहाँ हिंसा अर्थ वाली "रिष्" धातु से कर्ता-कारक में 'विच्' प्रत्यय है। (अरिणन्) 'रिणाति' पद निघं० (२। १४) में गत्यर्थक क्रियाओं में पढ़ा है। (ध्राज्यै) यहाँ गति अर्थ वाली 'ध्रज्' धातु से 'इञ् वपादिभ्यः' (अ० ३।३।१०८) इस भाष्य वार्तिक से 'इञ्' प्रत्यय है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।८।३।९-३१) में की गई है।। ६। १८।।

    भाष्यसार

    रण में योद्धा कैसा हो--संग्राम (युद्ध) में योद्धा का अन्तःकरण विज्ञान से युक्त हो, प्राण बल से संयुक्त हो। योद्धा वीर शत्रुओं का हनन करने वाला हो। वीर की युद्धजन्य क्रोध अग्नि शत्रुओं का पचन करने वाली हो। विशाल शत्रु सेना भी योद्धा वीर को व्यथित न कर सके। युद्ध में वायु की गति के समान तथा युद्ध भूमि में सूर्य की गति के समान विविध गति करने वाला हो। युद्ध कर्म में प्रवृत्त रहने के लिये बल को बढ़ाने वाले अन्न, जल, शस्त्र आदि पदार्थ सदा प्राप्त हों। योद्धा वीर संग्राम में शत्रुओं का हनन करके विजय को प्राप्त करें।। ६। १८।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    (शूरवीर) माणसांनी आपली शक्ती वाढविणारे पदार्थ अन्न, जल, शस्त्र, अस्त्र इत्यादी एकत्र करून शत्रूंचे हनन करून युद्ध जिंकावे.

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    विषय

    रणक्षेत्रात युद्ध करणारा शिष्य कसा असावा, हा विषय पुढील मंत्रात प्रतिपादिला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे युद्धवीर सैनिका, (अथवा आचार्याच्या हे वीर शिष्या) (ते) तुझे (मनः) मन (मनसा) विद्येच्या बलाने विद्याज्ञानावरील आत्मविश्‍वासाने) आणि (प्राणः) तुझे प्राण (प्रारेन) प्राणशक्तीसह (सम्) (गच्छताम्) संयुक्त राहो (युद्धक्षेत्रात तुझे मानसिक व शारीरिक बळ स्थिर राहो) हे वीर, तू (रेट्) शत्रूंचा संहारक (असि) आहेस (त्वा) तुझ्या मनात (अग्निः) युद्धामुळे उत्पन्न झालेला क्रोध (श्रीणातु) तुला हानिकारक होऊ नये. (प्रयुतम्) कोटी कोटी प्रकारच्या शत्रुसैन्याशी सामना करण्यास समर्थ आहेस, पण तज्जन्य (ऊष्मणाः) उष्णता म्हणजे क्रोध वा (द्वेषः) द्वेष तुला (व्यथिषत्) पीडाकारी होऊ नये (क्रोध व द्वेषाग्नी तुझ्यासाठी हानिकारक न होता शत्रूसाठी अनिष्टकारी होवो. त्या अग्नीने शत्रूला जाळावे) (वातस्य) (ध्राज्यै) वायूसारखी तीव्र गती प्राप्त करण्याकरिता, तसेच (पूष्णोः) पुष्टिकारक सूर्यासारखा (रंह्यै) वेग (प्रभाव व पराक्रम) प्राप्त करण्यासाठी तुला (रापः) शुद्ध जल (सम्) (अरिणन्) उत्तम प्रकारे प्राप्त होवो. ॥18॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांसाठी उचित आहे की त्यानी शक्ती वाढविणारे पदार्थ, अन्न, जल आदींचा आणि युद्धासाठी साधनें अस्त्र-शस्त्रादींवा भरपूर संग्रह करावा आणि त्याद्वारे अस्त्र-शस्त्रादींचा भरपूर संग्रह करावा आणि त्याद्वारे शत्रुंचा नाश करून युद्दात विजय मिळवावा. ॥18॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O warlike hero, may thy mind in battle be filled with knowledge, and thy breath be united to lifes force. O hero, thou art the killer of foes. May the fire of righteous indignation created by battle mature thee. Facing millions of the army of enemies, let not the heat generated by battle disturb thee. May thou get refreshing drinks to fight in war with the velocity of wind, and speed of the sun.

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    Meaning

    Young warrior, may your mind be full of strength and knowledge, and your spirit full of courage and high morale. You are a destroyer of the enemy. May the fire season and temper you, may the waters inspire you to the speed of the winds and the velocity of the sun-rays. Full of ardour and passion, send the enemy-army of crores into disarray.

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    Translation

    May your mind be united with the cosmic mind; may your breath be united with the cosmic breath. (1) You are small; may the adorable Lord make you mature. May the waters be available to you. I dedicate you for the rush of the wind and for the speed of the sun. May he suffer from heat. (2) He, who cherishes hatred towards us. (3)

    Notes

    Ret, small; little. Ramhyai, गंत्यै, for speed

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ রণে য়োদ্ধা কীদৃগ্ভবেদিত্যুপদিশ্যতে ॥
    এখন রণে যুদ্ধ করিতে থাকা শিষ্য কেমন হইবে, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে যুদ্ধশীল শূরবীর ! সংগ্রামে (তে) তোমার (মনঃ) মন (মনসা) বিদ্যাবল ও (প্রাণঃ) প্রাণ (প্রাণেন) প্রাণসহ (সম্) (গচ্ছতাম্) সঙ্গত হউক । হে বীর ! তুমি (রেট্) শত্রুদিগের হত্যাকারী (অসি) হও (ত্বা) তোমাকে (অগ্নিঃ) যুদ্ধ হইতে উৎপন্ন ক্রোধাগ্নি (শ্রীণাতু) ভালমত পরিপাক করুক, তুমি (প্রয়ুতম্) কোটি প্রকারের শত্রুদিগের সেনা প্রাপ্ত হও, তোমাকে তজ্জন্য (ঊষ্মণঃ) উষ্ণতার (দ্বেষঃ) দ্বেষ (ব্যথিষৎ) অত্যন্ত পীড়িত না করুক যাহাতে (বাতস্য ধ্রাজ্যৈ) পবনের গতি তুল্য গতির জন্য অথবা (পূষ্ণঃ) পুষ্টিকারক সূর্য্যের (রংহ্যৈ) বেগতুল্য বেগের জন্য অর্থাৎ যথার্থতা পূর্বক যুদ্ধ করিতে প্রবৃত্ত হওয়ার জন্য (আপঃ) ভাল-ভাল জল (সম্) (অরিণন্) ভাল ভাবে প্রাপ্ত হউক ॥ ১৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, স্বীয় বল বৃদ্ধিকারী অন্ন জল ও অস্ত্র-শস্ত্রাদি পদার্থগুলি একত্রিত করিয়া শত্রুদিগকে মারিয়া সংগ্রামে জয়লাভ করুক ॥ ১৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    সং তে॒ মনো॒ মন॑সা॒ সং প্রা॒ণঃ প্রা॒ণেন॑ গচ্ছতাম্ । রেড॑স্য॒গ্নিষ্ট্বা॑ শ্রীণা॒ত্বাপ॑স্ত্বা॒ সম॑রিণ॒ন্ বাত॑স্য ত্বা॒ ধ্রাজ্যৈ॑ পূ॒ষ্ণো রꣳহ্যা॑ऽঊ॒ষ্মণো॑ ব্যথিষ॒ৎ প্রয়ু॑তং॒ দ্বেষঃ॑ ॥ ১৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সং ত ইত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । প্রাজাপত্যানুষ্টুপ্ ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ । রেডসীত্যস্য দৈবীপংক্তিশ্ছন্দঃ । শ্রীণাত্বিত্যস্যার্চীপংক্তিশ্ছন্দঃ । উভয়ত্র পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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