यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 34
ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - स्वराट् आर्षी पंथ्याबृहती,
स्वरः - मध्यमः
119
श्वा॒त्रा स्थ॑ वृत्र॒तुरो॒ राधो॑गूर्त्ताऽअ॒मृत॑स्य॒ पत्नीः॑। ता दे॑वीर्देव॒त्रेमं य॒ज्ञं न॑य॒तोप॑हूताः॒ सोम॑स्य पिबत॥३४॥
स्वर सहित पद पाठश्वा॒त्राः। स्थ॒। वृ॒त्र॒तुर॒ इति॑ वृत्र॒ऽतुरः॑। राधो॑गूर्त्ता॑ इति॑ राधः॑ऽगूर्त्ताः। अ॒मृत॑स्य। पत्नीः॑। ताः। दे॒वीः॒। दे॒व॒त्रेति॑ देव॒ऽत्रा। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। न॒य॒त॒। उप॑हूता॒ इत्यु॑पऽहूताः। सोम॑स्य। पि॒ब॒त॒ ॥३४॥
स्वर रहित मन्त्र
श्वात्रा स्थ वृत्रतुरो राधोगूर्ता अमृतस्य पत्नीः । ता देवीर्देवत्रेमँयज्ञन्नयतोपहूताः सोमस्य पिबत ॥
स्वर रहित पद पाठ
श्वात्राः। स्थ। वृत्रतुर इति वृत्रऽतुरः। राधोगूर्त्ता इति राधःऽगूर्त्ताः। अमृतस्य। पत्नीः। ताः। देवीः। देवत्रेति देवऽत्रा। इमम्। यज्ञम्। नयत। उपहूता इत्युपऽहूताः। सोमस्य। पिबत॥३४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथोक्तानां सभापत्यादिविदुषां पत्न्यः कीदृशकर्मानुष्ठात्र्यो भवन्त्वित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे देवीर्देव्यः पत्न्यः स्त्रियो यूयं वृत्रतुर इव राधोगूर्त्ता एव सत्यो यज्ञसहकारिण्यः श्वात्राः स्थ ता देवत्रेमं यज्ञं नयत, उपहूता इवामृतस्य सोमस्यातिस्वादिष्टं सोमाद्योषधिरसं पिबत॥३४॥
पदार्थः
(श्वात्राः) श्वात्रं शीघ्रं कर्मविज्ञानं वर्त्तते यासां ताः। अर्शादित्वादच्। श्वात्रमिति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं॰५।३) (स्थ) (वृत्रतुरः) वृत्रं मेघं तूर्वति यास्ता विद्युत इव (राधोगूर्त्ताः) धनवर्द्धिन्य एव (अमृतस्य) अतिस्वादिष्टस्य (पत्नीः) पत्न्यः (ताः) (देवीः) देदीप्यमानाः (देवत्रा) देवेषु पतिषु (इमम्) गृहसम्बन्धिनम् (यज्ञम्) संगन्तव्यम् (नयत) (उपहूताः) सामीप्यमाहूताः (सोमस्य) सोमाद्योषधिनिष्पादितस्य सारम्। अत्र कर्मणि षष्ठी॥ अयं मन्त्रः (शत॰३। ९। ४। १६-१७) व्याख्यातः॥३४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विदुष्यो विद्वत्स्त्रियः स्वधर्मव्यवहारेण स्वपतीन् प्रसादयन्ति, तथैव पुरुषाः स्वाः स्त्रीस्सततं प्रसादयेयुरित्थं परस्परानुमोदेन गृहाश्रमधर्ममलंकुर्वन्तु॥३४॥
सपदार्थान्वयः
हे देवीः=देव्यो देदीप्यमानाः! [पत्नीः]=पत्न्यः स्त्रियःयूयं वृत्रतुर वृत्रं=मेघं तूर्वति यास्ता विद्युत् इव राधोगूर्त्ता धनवर्द्धिन्य एव सत्यो यज्ञसहकारिण्यः श्वात्राः श्वात्रं=शीघ्रं कर्मविज्ञानं वर्त्तते यासांताःस्थभवत, ताः देवत्रा देवेषु=पतिषु इमं गृहसम्बन्धिनं यज्ञं संगन्तव्यं नयत। उपहूता: सामीप्यमाहूता इव अमृतस्य—सोमस्यातिस्वादिष्ठं सोमाद्योषधिरसं सोमाद्योषधिनिष्पादितस्य सारं पिबत॥ ६ । ३४।। [हे देवीः=देव्यः [पत्नीः]=पत्न्यः स्त्रियः! यूयं.....यज्ञसहकारिण्यः श्वात्राः स्थ, ता देवत्रा इमं यज्ञं नयत]
पदार्थः
(श्वात्राः) श्वात्रं=शीघ्रं कर्मविज्ञानं वर्त्तते यासां ताः। अर्शादित्वादच्। श्वात्रमिति क्षिप्रनामसु पठितम् ॥ निघं० ५ । ३ ॥ (स्थ) भवत (वृत्रतुरः) वृत्रं=मेघं तूर्वति यास्ता विद्युत् इव (राधोगूर्त्ता:) धनवर्द्धिन्य एव (अमृतस्य) अतिस्वादिष्टस्य (पत्नी:) पत्न्यः (ताः) (देवीः) देदीप्यमानाः (देवत्रा) देवेषु पतिषु (इमम्) गृहसंबन्धिनम् (यज्ञम्) संगन्तव्यम् (नयत) (उपहूताः) सामीप्यमाहूताः (सोमस्य) सोमाद्योषधिनिष्पादितस्य सारम्।अत्र कर्मणि षष्ठी (पिबत)॥अयं मंत्रः शत० ३ । ९ । ४ । १६-१७ व्याख्यातः॥ ३४ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः।। यथा विदुष्यो विद्वत्स्त्रियः स्वधर्मव्यवहारेण स्वपतीन् प्रसादयन्ति तथैव पुरुषाः स्वाः स्त्रीस्सततं प्रसादयेयुः, [उपहूता इवामृतस्य=सोमस्यातिस्वादिष्ठं सोमाद्योषधिरसं पिबत] इत्थं परस्परानुमोदेन गृहाश्रमधर्ममलङ्कुर्वन्तु।। ६ । ३४ ।।
विशेषः
मधुच्छन्दाः। यज्ञः=सत्सङ्गतिः॥ स्वराडार्षी बृहती। मध्यमः॥
हिन्दी (4)
विषय
अब उक्त सभाध्यक्षादिकों की स्त्री कैसे कर्म्म करने वाली हों, यह अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (देवीः) विद्यायुक्त स्त्रियो! तुम (वृत्रतुरः) बिजुली के सदृश, मेघ की वर्षा के तुल्य, सुखदायक की गति तुल्य चलने (राधोगूर्त्ताः) धन का उद्योग करने (पत्न्यः) और यज्ञ में सहाय देने वाली (स्थ) हो (देवत्रा) तथा अच्छे-अच्छे गुणों से प्रकाशित विद्वान् पतियो में प्रीति से स्थित हो, (इमम्) इस यज्ञ को (नयत) सिद्धि को प्राप्त किया कीजिये और (उपहूताः) बुलाई हुई पतियों के साथ (अमृतस्य) अति स्वाद-युक्त सोम आदि ओषधियों के रस को (पिबत) पीओ॥३४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वानों की पत्नी स्त्रीजन स्वधर्म व्यवहार से अपने पतियों को प्रसन्न करती हैं, उसी प्रकार पुरुष उन अपनी स्त्रियों को निरन्तर प्रसन्न करें, ऐसे परस्पर अनुमोद से गृहाश्रमधर्म को पूर्ण करें॥३४॥
विषय
राजा व राजसभा के सभ्यों की ‘पत्नियाँ’
पदार्थ
सभापति व राजसभा के लोग राष्ट्रहित के कार्यों में तभी अच्छी प्रकार लगे रह सकते हैं यदि उनकी पत्नियाँ उनके लिए अत्यन्त अनुकूलता उत्पन्न करें, अतः उन पत्नियों का वर्णन करते हैं—
१. ( श्वात्राः स्थ ) = तुम [ श्वि गतिवृद्ध्योः, त्रा रक्षणे ] क्रियाशीलता के द्वारा सदा वृद्धि को प्राप्त करनेवाली हो। इस क्रियाशीलता के द्वारा ही तुम वासनाओं के आक्रमण से अपना त्राण करनेवाली हो।
२. ( वृत्रतुरः ) = ज्ञान को आवृत करनेवाले काम का तुम विध्वंस करती हो।
३. ( राधोगूर्ताः ) = [ धनवर्धिन्यः—द० ] धनों का तुम वर्धन करनेवाली हो [ गुरी उद्यमने ] तुम धन का अनुचित व्यय न होने देते हुए उसका संग्रह करती हो।
४. ( अमृतस्य पत्नीः ) = तुम न मरियल पतियों की पत्नी हो। तुम्हारे द्वारा घर में भोजन की व्यवस्था इतनी सुन्दर होती है कि कोई अस्वस्थ होता ही नहीं। तुम घर के उत्तम प्रबन्ध द्वारा पतियों को चिन्ताओं से मुक्त-सा रखती हो। परिणामतः उनका स्वास्थ्य अत्युत्तम रहता है।
५. ( ताः देवीः ) = वे दिव्य गुणोंवाली तुम ( देवत्रा ) = देवों में ( इमं यज्ञं नयत ) = इस यज्ञ को प्राप्त कराओ, अर्थात् सदा यज्ञ करनेवाली बनो। ‘पत्युर्नो यज्ञसंयोगे’ इस ‘व्याकरण-सूत्र’ से पत्नी का मुख्यकार्य यज्ञ ही प्रतीत होता है।
६. ( उपहूताः ) = ‘उपहूतो वाचस्पतिरुपास्मान् वाचस्पतिर्ह्वयताम्’ इस अथर्व-वाक्य के अनुसार तुम आचार्यों के समीप उपहूत होनेवाली होओ, अर्थात् आचार्यकुल में रहकर तुमने विद्याध्ययन किया हो और ( सोमस्य पिबत ) = सोम का पान किया हो, अर्थात् संयमपूर्वक अपनी शक्ति की रक्षा की हो। वस्तुतः पत्नियों के उल्लिखित गुणों से सम्पन्न होने पर ही सभापति व सभादि अपने-अपने कार्यों को निश्चिन्तता से अच्छी प्रकार कर सकते हैं।
भावार्थ
भावार्थ — पत्नी अपने उत्तम व्यवहार से पति को प्रसन्न व निश्चिन्त रक्खेंगी तो पति अपने कार्यों को उत्तमता से कर पाएँगे।
विषय
प्रजाओं के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे प्रजाजनो ! आप लोग ही ( श्वात्राः ) विशेष नियम में बद्ध जलधाराओं के समान शीघ्र कार्य सम्पादन करने में समर्थ ( स्थ ) हो । और तुम लोग ( राधो गुर्त्ताः ) राधस्=धन ऐश्वर्य को प्रदान करने वाले और ( अमृतस्य पत्नी: ) अमृत, अन्न और जल का उचित रूप से पालन करते हो। हे ( देवी: ) विद्वान् या धन दान करने वाले ( ताः ) वे प्रजाजन ( देवत्रा ) देव अर्थात् योग्य उत्तम राजानों और शासक पुरुषों के हाथ ( इम यज्ञम् ) इस राष्ट्रमय यज्ञ को ( नयत ) प्राप्त कराते हो । और आप लोग ( उपहृताः ) आदर पूर्वक बुलाये जाकर ( सोमस्य ) इस राष्ट्र से उत्पन्न उत्तम फल का या राजा के इस राज्य का ( पिबत ) पान करो, आनन्द प्राप्त करो।
गृहस्थ पक्ष में - ( श्वात्राः ) विद्युत् के समान शीघ्र कार्य करने वाली, कार्य दक्ष ( वृत्रतुरः ) मेघ को जिस प्रकार बिजली फाड़ देती है उसी प्रकार विघ्न के नाश करने वाली ( राधोगुर्ता: ) धन के बढा.ने वाली ( अमृतस्य सोमस्य पत्नी: ) अमर, सदा स्थिर राजा की पत्नियों के समान अमृत रस या अन्न की पालन करने वाली गृहपत्नी ( देवी: ) देवियां ( देवत्रा ) अपने देव-तुल्य पतियों के आश्रय रहकर ( इमं यज्ञं नयत इस गृहस्थ यज्ञ को पूर्ण करें, निबाहें। और वे ( उपहृताः सोमस्य पिबत ) आदरपूर्वक यज्ञ में बुलाई जाकर सोम आदि ओषधियों के रसका पान भी करें ।
शतपथ में -- यह वर्णन 'निग्राभ्या आपः' का है। उनका विशेषण 'श्वात्रा:' और 'वृत्रतुरः ' हैं। इससे वे शीघ्र कार्य करने वाली, वेगवती, शत्रुओं के नाश करने वाली, अमृत, सोम रूप राजा की रक्षक हैं । अर्थात्, जब तक उनका प्रेरक सेनापति या राजा मरता नहीं तब तक वे उसको रक्षा पर डटी रहती हैं। वे ही ( राधोगूर्त्ताः ) समस्त धन ऐश्वर्यं प्राप्त कराती हैं । वे समस्त देवों, विद्वान् शासकों के बीच में राष्ट्र को स्थापन करती और आदरपूर्वक निमन्त्रित होकर राज्य के उत्तम फलों का उपयोग करें । 'वृत्रतुरः ' एतानि वृत्रमघ्नन् ।
'सोमस्य पिबत' तदुपहूता एव प्रथमभक्षं सोमस्य राज्ञो भक्षयन्ति।
शत० ३ । ९ । ४ । १६ ।
टिप्पणी
३४ - निग्राभ्या देवताः । सर्वा० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यज्ञो देवता । स्वराड् आर्षी बृहती । मध्यमः ॥
विषय
अब उक्त सभाध्याक्षादि विद्वानों की स्त्रियाँ कैसे कर्म्म करने वाली हों, यह उपदेश किया है॥
भाषार्थ
हे (देवीः) विद्या आदि गुणों से देदीप्यमान [पत्नी:] स्त्रियो! तुम (वृत्रतुरः) वृत्र अर्थात् मेघ का हनन करने वाली विद्युतों के समान (राधोगूर्त्ता:) धन को बढ़ाने वाली होकर यज्ञ कर्म में सहयोगिनी तथा (श्वात्राः) शीघ्र कर्म-विज्ञानको प्राप्त करने वाली (स्थ) बनो। और (देवत्रा) अपने पतियों में (इमम्) इस गृहसम्बन्धी (यज्ञम्) व्यवहार को (नयत) प्राप्त करो। और (उपहूताः) पास बुलाई हुई (अमृतस्य सोमस्य) अत्यन्त स्वादिष्ट सोम आदि औषधि से निष्पन्न रस का (पिबत) पान करो ॥ ६ । ३४ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। जैसे विद्वानों की विदुषी स्त्रियाँ अपने धर्मयुक्त व्यवहार से अपने पतियों को प्रसन्न करती हैं वैसे पुरुष भी अपनी स्त्रियों को सदा प्रसन्न रखें।इस प्रकार परस्पर प्रसन्नता से गृहाश्रम धर्म को अलंकृत करें ।। ६ । ३४ ।।
प्रमाणार्थ
(श्वात्राः) यहाँ 'अर्श आदिभ्योऽच्’ [अ० ५।२।१२७ ] इस सूत्र से 'अच्' प्रत्यय है। 'श्वात्र' शब्द निघं० (५। ३) में शीघ्र नामों में पढ़ा है। (सोमस्य) यहाँ कर्म कारक में षष्ठी विभक्ति है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।९।४।१६-१७) में की गई है ॥ ६ । ३४ ॥
भाष्यसार
१. सभापति आदि विद्वानों की पत्नियों के कर्म--पूर्व मन्त्र में प्रतिपादित सभापति आदि विद्वानों की पत्नियाँ कैसे कर्म वाली हों ? इसका उत्तर यह है कि दिव्य गुणों से प्रकाशित विदुषी स्त्रियाँ जैसे विद्युत् मेघ का हनन करने वाली है वैसे विद्या के प्रकाश से अविद्या अन्धकार का नाश करने वाली, धन को बढ़ाने वाली, यज्ञादि शुभ कर्मों में सहयोग करने वाली, कर्त्तव्य कर्मों को शीघ्र जानने वाली होती हैं। अपने विद्वान् पतियों के साथ गृह-सम्बन्धी शुभ कार्यों को प्राप्त होती हैं। इस प्रकार परस्पर मेल से अति स्वादिष्ट सोम आदि रसों का पान करें। जैसे विद्वानों की विदुषी स्त्रियाँ अपने उक्त धर्मयुक्त व्यवहार से अपने पतियों को प्रसन्न करती हैं वैसे विद्वान् भी स्त्रियों को प्रसन्न करें। इस प्रकार स्त्री-पुरुष परस्पर प्रसन्नता से गृहाश्रम को स्वर्ग बनावें ।। २. अलङ्कार– मन्त्र में उपमा-वाचक शब्द लुप्त है। इसलिये वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि विद्वान् पुरुषों की विदुषी स्त्रियाँ जैसे अपने पतियों को प्रसन्न करती हैं वैसे पुरुष भी अपनी स्त्रियों को प्रसन्न रखें ।। ६ । ३४ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशा विद्वानांच्या स्त्रिया आपल्या धर्मानुसार व्यवहार करून आपल्या पतींना प्रसन्न करतात, त्याचप्रमाणे पुरुषांनीही आपल्या स्त्रियांना सतत प्रसन्न ठेवावे. याप्रमाणे परस्पर आनंदात राहून गृहस्थाश्रम पूर्ण करावा.
विषय
वर वर्णन केलेल्या सभाध्यक्ष आदींच्या पत्नीसाठी कोणकोणती कर्में कर्त्तव्य आहेत, याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (सभाध्यक्ष आणि इतर राजकर्मचारी, राजपुरुष आदींची पत्नीला उद्देशून) हे (देवीः) विद्यावती स्त्रीजनहो, तुम्ही (वृत्रतुरः) विद्युतप्रमाणे प्रकाशमान वा किर्तीमान आणि वृष्टीसमान सुखकारी व्हा. (राधोगूर्त्ताः) धनाची वृद्धी होण्याकरीता व उद्योग-व्यवसायाकरिता सहाय्यकारी व्हा. (पत्न्यः) यज्ञात सहाय्य करणार्या (स्थ) व्हा. (देवत्रा) उत्तम गुणवान व विद्वान अशा आपल्या पतीविषयी प्रीती असणार्या होऊन राहा. (इदम्) या यज्ञाला (नयत) पूर्ततेकडे न्या (उपहूताः) पतीने बोलावल्यानंतर जी व त्यांच्यासह (अमृतस्य) अती स्वादिष्ट अशा सोम आदी औषधींचे रस (पिबत) प्या. ॥34॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे विद्वानांची पत्नी आपल्या धर्मयुक्त आचरणाने आपल्या पतीला आनंदित करते, त्याचप्रमाणे पतीचे देखील कर्तव्य आहे की त्याने तसेच प्रीतीपूर्ण आचरण करून पत्नीस प्रसन्न ठेवावे. याप्रमाणे दोघांनी परस्परात आमोद-प्रमोद करीत गृहश्रमधर्माचे पालन करावे. ॥34॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O ladies, ye are the possessor of practical wisdom, removers of all impediments, augmenters of wealth, helpers in the yajna, and lovers of your virtuous husbands. Fulfil this sacrifice of domestic life. Being invited taste with your husbands the sweet juice of the plants like Soma.
Meaning
Women, brilliant and virtuous, quick to learn and instant in action like thunder in the clouds, life-partners of your men, be strong, join the men in this holy yajna and take it forward to the heights. Invited to the vedi, have your fill of the immortal drink of soma, the nectar of life and joy.
Translation
O killers of nescience, you are auspicious, bestowers of riches and consorts of the Immortal. O divine one, lead this sacrifice to the bounties of Nature. Having been invoked, come and drink of the bliss. (1)
Notes
Vrtraturah, killers of Vrtra, i. e. the nescience. Radhogürtih, bestowers of riches. रायो धनं गुरंति उपयछंति या: ता: (U vata).
बंगाली (1)
विषय
অথোক্তানাং সভাপত্যাদিবিদুষাং পত্ন্যঃ কীদৃশকর্মানুষ্ঠাত্র্যো ভবন্ত্বিত্যুপদিশ্যতে ॥
এখন উক্ত সভাধ্যক্ষাদিকের স্ত্রী কেমন কর্ম করিবেন, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (দেবীঃ) বিদ্যাযুক্ত দেবীগণ ! তোমরা (বৃত্রতুরঃ) বিদ্যুৎ সদৃশ মেঘের বর্ষার তুল্য সুখদায়কের গতি তুল্য চলিতে (রাধোগূর্ত্তাঃ) ধনের উদ্যোগ করিতে (পত্ন্যঃ) এবং যজ্ঞে সাহায্য করিতে (স্থ) থাক (দেবত্রা) তথা ভাল-ভাল গুণে প্রকাশিত বিদ্বান্ পতিদিগের প্রীতিতে স্থিত থাক, (ইদম্) এই যজ্ঞ (নয়ত) সিদ্ধি প্রাপ্ত কর এবং (উপহূতাঃ) আহূত স্বীয় পতিদিগের সহিত (অমৃতস্য) অতি স্বাদযুক্ত সোমাদি ওষধির রস (পিবত) পান কর ॥ ৩৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন বিদ্বান্দিগের পত্নী স্ত্রীগণ স্বধর্ম ব্যবহার দ্বারা স্বীয় পতিদিগকে প্রসন্ন করে সেইরূপ পুরুষ সেইসব নিজ স্ত্রীদিগকে নিরন্তর প্রসন্ন করিবে । এই ভাবে পরস্পর অনুমোদন দ্বারা গৃহাশ্রম ধর্ম অলঙ্কৃত করিবে ॥ ৩৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
শ্বা॒ত্রা স্থ॑ বৃত্র॒তুরো॒ রাধো॑গূর্ত্তাऽঅ॒মৃত॑স্য॒ পত্নীঃ॑ ।
তা দে॑বীর্দেব॒ত্রেমং য়॒জ্ঞং ন॑য়॒তোপ॑হূতাঃ॒ সোম॑স্য পিবত ॥ ৩৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
শ্বাত্রা স্থ ইত্যস্য মধুচ্ছন্দা ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । স্বরাডার্ষী পথ্যা বৃহতীচ্ছন্দঃ । মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal