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यजुर्वेद अध्याय - 6

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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 25
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - आर्षी विराट अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
    127

    हृ॒दे त्वा॒ मन॑से त्वा॒ दि॒वे त्वा॒ सूर्या॑य त्वा। ऊ॒र्ध्वमि॒मम॑ध्व॒रं दि॒वि दे॒वेषु॒ होत्रा॑ यच्छ॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हृ॒दे। त्वा॒। मन॑से। त्वा॒। दि॒वे। त्वा॒। सूर्य्या॑य। त्वा॒। ऊ॒र्ध्वम्। इ॒मम्। अ॒ध्व॒रम्। दि॒वि। दे॒वेषु॑। होत्राः॑। य॒च्छ॒ ॥२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हृदे त्वा मनसे त्वा दिवे त्वा सूर्याय त्वा । ऊर्ध्वमिममध्वरन्दिवि देवेषु होत्रा यच्छ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हृदे। त्वा। मनसे। त्वा। दिवे। त्वा। सूर्य्याय। त्वा। ऊर्ध्वम्। इमम्। अध्वरम्। दिवि। देवेषु। होत्राः। यच्छ॥२५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 25
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनस्ताः किं किमुपदिशेयुरित्याह॥

    अन्वयः

    हे ब्रह्मचारिणि कन्ये! त्वं यथा वयं सर्वा देवेषु स्वपतिषु समीपवर्त्तिन्यो होत्रा हवनकर्मानुष्ठात्र्यः स्मस्तथा भव, यथा वयं हृदे त्वा मनसे त्वा दिवे त्वा सूर्य्याय त्वानुशास्मस्तथा दिवीममध्वरमूर्ध्वं यच्छ॥२५॥

    पदार्थः

    (हृदे) हृत्सुखाय (त्वा) त्वाम् (मनसे) सदसन्मननाय (त्वा) त्वाम् (दिवे) सर्वसुखद्योतनात् (त्वा) त्वाम् (सूर्य्याय) सूर्यगुणाय (त्वा) त्वाम् (ऊर्ध्वम्) उत्कृष्टम् (इमम्) प्रत्यक्षम् (अध्वरम्) अविनश्वरं यज्ञम् (दिवि) शुभगुणप्रकाशे (देवेषु) विद्वत्सु (होत्राः) हवनकर्मानुष्ठात्र्यः (यच्छ) उपगृह्णीहि॥ अयं मन्त्रः (शत॰३.९.३.४-५) व्याख्यातः॥२५॥

    भावार्थः

    यथा पतिव्रताः स्वपतिषु तत्प्रियमाचरन्त्यैऽग्निहोत्रादिकर्मसु निरताः स्युस्तथा विवाहानन्तरं ब्रह्मचारिणीभिर्ब्रह्मचारिभिरपि परस्परमनुवर्त्तितव्यमिति॥२५॥

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    विषयः

    पुनस्ताः किं किमुपदिशेयुरित्याह ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे ब्रह्मचारिणि कन्ये! त्वं यथा वयं सर्वा देवेषु-स्वपतिषु विद्वत्सु समीपवर्त्तिन्यो होत्राः=हवनकर्माऽनुष्ठात्र्यः स्मस्तथा भव । यथा वयं हृदे हृत्सुखाय त्वा त्वां, मनसे सदसन्मननाय त्वा त्वां, दिवे सर्वसुखद्योतनाय त्वा त्वां, सूर्य्याय सूर्य्यगुणाय त्वा त्वाम् अनुशास्मस्तथा दिवि शुभगुणप्रकाशे इमं प्रत्यक्षम् अध्वरम् अविनश्वरं यज्ञम् ऊर्ध्वम् उत्कृष्टं यच्छ उपगृह्णीहि ॥ ६। २५ ॥ [हे ब्रह्मचारिणि कन्ये ! त्वं यथा वयं सर्वा देवेषु=स्वपतिषु समीपवर्त्तिन्यो होत्राः=हवनकर्माऽनुष्ठात्र्यः स्मस्तथा भव]

    पदार्थः

    (हृदे) हृत्सुखाय (त्वा) त्वाम् (मनसे) सदसन्मननाय (त्वा) त्वाम् (दिवे) सर्वसुखद्योतनाय (त्वा) त्वाम् (सूर्य्याय) सूर्यगुणाय (त्वा) स्वाम् (ऊर्ध्वम्) उत्कृष्टम् (इमम्) प्रत्यक्षम् (अध्वरम्) अविनश्वरं यज्ञम् (दिवि ) शुभगुणप्रकाशे (देवेषु) विद्वत्सु (होत्राः) हवनकर्मानुष्ठात्र्य: (यच्छ) उपगृह्णीहि ॥ अयं मंत्रः शत. ३। ९। ३। ४-५ व्याख्यातः ॥ २५॥

    भावार्थः

    यथा पतिव्रताः स्वपतिषु तत्प्रियमाचरन्त्योऽग्निहोत्रादिकर्मसु निरताः स्युस्तथा विवाहानन्तरं ब्रह्मचारिणीभिरपि परस्परमनुवर्त्तितव्यमिति ॥ ६ । २५ ॥

    भावार्थ पदार्थः

    होत्राः=अग्निहोत्रादिकर्मसु निरताः।।

    विशेषः

    मेधातिथिः। सोमः=उपदेशः॥ विराडार्ष्यनुष्टुप्। गान्धारः।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर से क्या-क्या उपदेश करें, यह अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे ब्रह्मचारिणी कन्या! तू जैसे हम सब (देवेषु) अपने सुख देने वाले पतियों के निकट रहने और (होत्राः) अग्निहोत्र आदि कर्म का अनुष्ठान करने वाली हैं, वैसी हो और जैसे हम (हृदे) सौहार्द्द सुख के लिये (त्वा) तुझे वा (मनसे) भला-बुरा विचारने के लिये (त्वा) तुझे वा (दिवे) सब सुखों के प्रकाश करने के लिये (त्वा) तुझे वा (सूर्य्याय) सूर्य्य के सदृश गुणों के लिये (त्वा) तुझे शिक्षा करती हैं, वैसे तू भी (दिवि) समस्त सुखों के प्रकाश करने के निमित्त (इमम्) इस (अध्वरम्) निरन्तर सुख देने वाले गृहाश्रमरूपी यज्ञ को (ऊर्ध्वम्) उन्नति (यच्छ) दिया कर॥२५॥

    भावार्थ

    जैसे अपने पतियों की सेवा करती हुई उनके समीप रहने वाली पतिव्रता गुरुपत्नियां अग्निहोत्रादि कर्मों में स्थिर बुद्धि रखती हैं, वैसे विवाह के अनन्तर ब्रह्मचारिणी कन्याओं और ब्रह्मचारियों को परस्पर वर्तना चाहिये॥२५॥

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    विषय

    पति पत्नी से

    पदार्थ

    गत मन्त्र में कन्या को ऐसे घर में विवाहित करने का प्रसङ्ग था जहाँ यज्ञादि का लोप न हुआ हो। उस घर में कन्या के पहुँचने पर पति कहता है कि— १. ( त्वा ) = मैं तुझसे अपना यह सम्बन्ध ( हृदे ) = हृदय के लिए करता हूँ। मेरे जीवन में तेरे प्रवेश से कुछ रस व कोमलता का सञ्चार होगा, कुछ श्रद्धा की भावना बढ़ेगी। 

    २. ( त्वा ) = तुझे मैं अपने जीवन का साथी बना रहा हूँ ( मनसे ) = मन के लिए। मेरे जीवन में कुछ विचार-शक्ति बढ़े। मैं सब कामों को सोच-विचार कर करनेवाला बनूँ। 

    ३. ( दिवे त्वा ) = मैं तुझे स्वर्ग-निर्माण के लिए अपना रहा हूँ। ‘तेरे आने से मेरा घर स्वर्ग बन जाए’ ऐसी मेरी कामना है। 

    ४. ( सूर्याय त्वा ) = तुझे सूर्य के लिए अपना रहा हूँ। तेरे आने से इस घर में प्रकाश की वृद्धि हो और सूर्य के समान निरन्तर क्रियाशीलता हो। 

    ५. ( इमं अध्वरम् ) = सबका कल्याण करनेवाले इस यज्ञ को तूने ( ऊर्ध्वम् ) = सबसे ऊपर स्थापित करना, अर्थात् यज्ञ इस घर का मुख्य कर्तव्य हो। ( दिवि ) = [ निमित्त सप्तमी ] स्वर्ग के निमित्त तथा ( देवेषु ) = दिव्य गुणों की प्राप्ति के निमित्त ( होत्राः ) = हवियों को ( यच्छ ) = दे, अर्थात् तू नियमित रूप से यज्ञ करनेवाली हो। वस्तुतः इस यज्ञ से ही घर स्वर्ग बनेगा और घर के सब लोगों में दिव्य गुणों का विकास होगा [ होत्राभिः हवनक्रियाभिः ऋ. ७।६०।९—द० ]। मन्त्र के अन्तिम भाग का अर्थ इस रूप में भी हो सकता है कि [ क ] ( दिवि ) = स्वर्ग के निमित्त ( होत्रा यच्छ ) = हवियों को दे। स्वर्गकामो यजेत यह उक्ति प्रसिद्ध ही है। यज्ञों का फल स्वर्ग-प्राप्ति है। यज्ञ को ब्राह्मणग्रन्थों में स्वर्ग्या नौः = स्वर्ग प्राप्त करनेवाली नाव कहा है। [ ख ] ( देवेषु ) = विद्वानों के चरणों में बैठकर ( होत्राः ) = ज्ञान की वाणियों को ( यच्छ ) = [ निबध्नीहि ] अपने में बाँध, अर्थात् विद्वानों के समीप रहकर तू अपने ज्ञान को बढ़ा। इस प्रकार यज्ञों से घर स्वर्ग बनेगा तो ज्ञान से उसमें निरन्तर पवित्रता बनी रहेगी।

    भावार्थ

    भावार्थ — पत्नी-पति के जीवन में ‘श्रद्धा, मननशक्ति, प्रकाश व नियमितता’ को बढ़ानेवाली हो। वह घर में यज्ञों को प्रमुख स्थान दे। यज्ञों में जहाँ हवियों को डाले वहाँ विद्वानों से ज्ञान को प्राप्त करनेवाली हो।

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    विषय

    स्वयं वरा के प्रयोजन ।

    भावार्थ

    हे कन्ये ! मैं तुझे ( हृदे ) हृदय वाले, प्रेम से युक्त, पुरुष के लिये, (मनसे) मन वाले या ज्ञानी, ( दिवे ) प्रकाश वाले, तेजस्वी और ( सूर्याय ) सूर्य के समान कान्तिमान्, वरण करने योग्य पुरुष के हाथ [ यच्छामि ] प्रदान करता हूं। और तू हे कन्ये ! ( इमम् ) इस वरण योग्य (अध्वरं ) अपराजित, अहिंसक ( ऊर्ध्वम् ) उत्कृष्ट पद पर स्थित पुरुष को ( दिवि ) ज्ञान प्रकाश में स्थित ( देवेषु ) देव विद्वानों के बीच में ( होत्रा: ) जो आहुति देने वाले या दान देने योग्य गृहस्थ पुरुष हैं उनके नियम में ( यच्छ ) बांध । अथवा वरण करने हारी कन्या वर के प्रति कहती है। मैं ( हृदे त्वा मन से दिवे वा, सूर्याय त्वा वृणोमि ) अपने हृदय, चित्त, और प्रकाश या सुख के और अपने प्रेरक पति बनाने के निमित्त वरण करती हूं। (इमम् उर्ध्वम् अध्वरम् ) तू इस गृहस्थ रूप यज्ञ को ( दिवि ) सुख लाभ के लिये ( देवेषु ) विद्वान पुरुषों में से भी जो ( होत्राः ) ज्ञान ऐश्वर्य प्रदान करने वाले यज्ञशील पुरुष हैं उनको ( यच्छ ) प्रदान कर उनके अधीन कर॥ 
    राजा के पक्ष में-- हे राजन् तेरे हृदय मन, तेज और राज पद के लिये तुझे हम प्रजाएं वरण करती हैं। ज्ञान, प्रकाश में जो विद्वानों में भी ( होत्राः ) उत्तम दानशील उदार पुरुष हैं तू इस राष्ट्रमय यज्ञ को उनके 
    अधीन कर ॥ शत० ३ । ९। ३ ।१ -५ ॥ 

    टिप्पणी

      २५--ऊर्ध्वो ऽध्वरं० इति काण्व ० ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोमो देवता । आर्षी विराड् अनुष्टुप् । गान्धारः॥

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    विषय

    फिर वे क्या-क्या उपदेश करें, यह वर्णन किया है॥

    भाषार्थ

    हे ब्रह्मचारिणी कन्या! तू जैसे हम सब (देवेषु) अपने विद्वान् पतियों के समीप (होत्रा:) यज्ञ-कर्म करने वाली हैं वैसी तू हो। जैसे हम लोग (हृदे) हार्दिक सुख के लिये (त्वा) तुझे, (मनसे) सत्य और असत्य के मनन के लिये (त्वा) तुझे, (दिवे) सब सुखों को प्रकाशित करने के लिये (त्वा) तुझे, (सूर्य्याय) सूर्य के गुणों के ज्ञान के लिये (त्वा) तुझे, शिक्षा करती हैं, वैसे तू (दिवि) शुभ गुणों के प्रकाश में (इमम्) इस (अध्वरम्) अविनाशी यज्ञ को (ऊर्ध्वम्) उत्कृष्ट रीति से (यच्छ) ग्रहण कर।। ६। २५।।

    भावार्थ

    जैसे पतिव्रता स्त्रियाँ अपने पतियों के प्रति प्रिय आचरण करती हुई अग्निहोत्र आदि शुभ कर्मों में रत रहती हैं वैसे ब्रह्मचारिणी कन्यायें भी विवाह के पश्चात् परस्पर अपने पतियों के साथ मिलकर रहें।। ६। २५।।

    प्रमाणार्थ

    इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।९।३।४–५) में की गई है।। ६। २५।।

    भाष्यसार

    गुरुपत्नियाँ ब्रह्मचारिणियों को क्या-क्या उपदेश करें--गुरुओं की पत्नियाँ ब्रह्मचारिणियों को यह उपदेश करें कि हे ब्रह्मचारिणियो! जैसे हम पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली अपने विद्वान् पतियों के प्रति प्रियाचरण करती हुई अग्निहोत्र आदि शुभ कर्मों में रत रहती हैं वैसे तुम भी विवाह के पश्चात् परस्पर अपने विद्वान् पतियों के अनुकूल रहो। जैसे हम तुम्हें हार्दिक सुख, सत्य-असत्य के ज्ञान, सब सुखों के प्रकाश तथा सूर्य के तेज आदि गुणों को धारण करने के लिये उपदेश करती हैं, वैसे शुभ गुणों के प्रकाश के लिये इस सत्यस्वरूप विवाह-यज्ञ को उत्तम रीति से ग्रहण करो।। ६।२५ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ज्याप्रमाणे आपल्या पतीची सेवा करणारी व त्याच्याजवळ राहणारी पतिव्रता गुरुपत्नी अग्निहोत्र इत्यादी कर्मामध्ये स्थिर बुद्धी ठेवते त्याप्रमाणेच विवाहानंतर ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणी यांनी परस्पर वर्तन करावे.

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    विषय

    आणखी कोणता उपदेश करावा, ते पुढील मंत्रात सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (आश्रमस्थ शिष्येला गृहाश्रमाच्या आरंभी वा स्वयंवराच्यावेळी गुरुपत्नी आशिर्वाद देत आहे) हे ब्रह्मचारीणी कन्ये, ज्याप्रमाणे आम्ही सर्व (गुरुपत्नी व गृहिणी स्त्रिया) (देवेषु) सुख देणार्‍या पतीजवळ नांदत आहोत आणि अग्निहोत्र आदी कर्म आचरत आहोत, तशी तूदेखील हो. आम्ही (हृदे) हार्दिक आनन्दाच्या प्राप्ती करिता (त्वा) तुला उपदेश करीत आहोत, (मनसे) चांगले-वाईट यामधे विवेक करण्यासाठी (त्वा) तुला सांगत आहोत, (दिवे) सर्व सुखांच्या प्राप्तीकरीता (त्वा) तुला सांगत आहोत आणि (सूर्य्याय) सूर्याचे गुण (प्रकाश, प्रेरणा, जीवनशक्ती) धारण करण्यासाठी (त्वा) तुला उपदेश करीत आहोत, त्याप्रमाणे तूदेखील (दिवि) समस्त सुखांच्या प्राप्तीकरीता या (अध्वरम्) निरंतर सुखदायक अशा गृहस्थाश्रम रूप यज्ञाची (उर्द्ध्वम्) उन्नती (यच्छ) करीत जा (आदर्श गृहस्थी स्त्री म्हणून यश मिळवू) ॥15॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्याप्रमाणे पतीची सेवा करीत त्याच्याजवळ राहणारी पतिव्रता गुरुपत्नी अग्निहोत्रादी गृहकर्म करण्यात दृढनिश्‍चयी असते, त्याप्रमाणे ब्रह्मचारिणी कन्या व ब्रह्मचारी युवकांनी देखील वागले पाहिजे. ॥25॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O virgins, just as we live with our husbands and perform the Havan, so do ye. Just as we impart instruction unto ye for mental peace, for discriminating between virtue and vice, for spreading happiness, and acquiring brilliance like the sun, so do ye uplift the domestic life for the diffusion of all kinds of happiness.

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    Meaning

    Brahmacharini, just as we perform the yajna in the company of our noble and learned men, so you too perform yajna with your man after marriage. We have taught you and we teach you for joy of the heart, for clarity of the mind, for the value of happiness and peace, and for the life and light from the sun, so you too, in the company of your man, send up your invocations and oblations of this auspicious yajna, so peaceful and lovely, for the sake of joy and enlightenment.

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    Translation

    O blissful Lord, I invoke you for the heart, for the mind, for the heaven and for the sun. Carry this sacrifice above in the sky to the bounties of Nature and to the cosmic sacrificers. (1)

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তাঃ কিং কিমুপদিশেয়ুরিত্যাহ ॥
    পুনরায় তাহারা কী কী উপদেশ করিবে, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে ব্রহ্মচারিণী কন্যা ! যেমন আমরা সকল (দেবেষু) স্বীয় সুখ প্রদাতা পতিদিগের নিকট থাকি এবং (হোত্রাঃ) অগ্নিহোত্রাদি কর্মের অনুষ্ঠান করিয়া থাকি সেইরূপ তুমি হইও এবং যেমন আমরা (হৃদে) সৌহার্দ্র সুখ হেতু (ত্বা) তোমাকে অথবা (মনসে) ভাল মন্দ বিচার করিবার জন্য (ত্বা) তোমাকে অথবা (দিবে) সকল সুখের প্রকাশ করিবার জন্য (ত্বা) তোমাকে অথবা (সূর্য়্যায়) সূর্য্য সদৃশ গুণ হেতু (ত্বা) তোমাকে শিক্ষা প্রদান করি সেইরূপ তুমিও (দিবি) সমস্ত সুখের প্রকাশ করিবার নিমিত্ত (ইমম্) এই (অধ্বরম্) নিরন্তর সুখ দান কারী গৃহাশ্রমরূপী যজ্ঞের (উর্ধ্বম) উন্নতি (য়চ্ছ) প্রদান করিতে থাক ॥ ২৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যেমন স্বীয় পতিদিগের সেবা করিয়া তাহার সমীপে নিবাসকারিণী পতিব্রতা গুরুপত্নী অগ্নিহোত্রাদি কর্মে স্থির বুদ্ধি রাখে, সেইরূপ বিবাহানন্তর ব্রহ্মচারিণী কন্যা এবং ব্রহ্মচারীদিগকে পরস্পর ব্যবহার করা উচিত ॥ ২৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    হৃ॒দে ত্বা॒ মন॑সে ত্বা॒ দি॒বে ত্বা॒ সূর্য়া॑য় ত্বা ।
    ঊ॒র্ধ্বমি॒মম॑ধ্ব॒রং দি॒বি দে॒বেষু॒ হোত্রা॑ য়চ্ছ ॥ ২৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    হৃদে ত্বেত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । সোমো দেবতা । বিরাডার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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