यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 7
ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः
देवता - त्वष्टा देवता
छन्दः - निचृत् आर्षी बृहती,
स्वरः - मध्यमः
129
उ॒पा॒वीर॒स्युप॑ दे॒वान् दैवी॒र्विशः॒ प्रागु॑रु॒शिजो॒ वह्नि॑तमान्। देव॑ त्वष्ट॒र्वसु॑ रम ह॒व्या ते॑ स्वदन्ताम्॥७॥
स्वर सहित पद पाठउ॒पा॒वीरित्यु॑पऽअ॒वीः। अ॒सि॒। उप॑। दे॒वान्। दैवीः॑। विशः॑। प्र। अ॒गुः॒। उ॒शिजः॑। वह्नि॑तमा॒निति॒ वह्नि॑ऽतमान्। देव॑। त्व॒ष्टः॒। वसु॑। र॒म॒। ह॒व्या। ते॒। स्व॒द॒न्ता॒म् ॥७॥
स्वर रहित मन्त्र
उपावीरस्युप देवान्दैवीर्विशः प्रागुरुशिजो वह्नितमान् । देव त्वष्टर्वसु रम हव्या ते स्वदन्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
उपावीरित्युपऽअवीः। असि। उप। देवान्। दैवीः। विशः। प्र। अगुः। उशिजः। वह्नितमानिति वह्निऽतमान्। देव। त्वष्टः। वसु। रम। हव्या। ते। स्वदन्ताम॥७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनः स तान् प्रति किं कुर्यात् ते च तं प्रति किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे देव त्वष्टः सभापते! यतस्त्वमुपावीरिवासि तस्माद् दैवीर्विशो यथा उशिजो वह्नितमान् देवान् उपप्रागुस्तथा त्वां प्राप्नुवन्ति, यथैतास्त्वदाश्रयेणाढ्या भूत्वा रमन्ते, तथा त्वमपि तासु रम रमस्व, भवानेतेषां पदार्थान् भुङ्क्ते तथैते ते हव्या होतुमर्हाणि हव्यानि वसु वसूनि स्वदन्ताम्॥७॥
पदार्थः
(उपावीः) उपागतपालक इव (असि) (देवान्) विदुषः (दैवीः) देवसम्बन्धिनीर्दिव्याः (विशः) प्रजाः (प्र) प्रकृष्टार्थे (अगुः) अगमन् (उशिजः) कमनीयान् (वह्नितमान्) अतिशयिता वह्नयो वोढारस्तान् (देव) दिव्यगुणसम्पन्न! (त्वष्टः) सर्वदुःखच्छित् (वसु) वसूनि धनानि। अत्र सुपां सुलुक्। (अष्टा (अष्टा॰७।१।३९) इति शसो लुक्। (रम) रमस्व, अत्रात्मनेपदे व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (हव्या) होतुमत्तुमर्हाणि (ते) तव (स्वदन्ताम्) भुञ्जताम्॥ अयं मन्त्र॥ शत॰ ३। ७। ३। ९-१२) व्याख्यातः॥७॥
भावार्थः
यथा गुणग्राहिण उत्तमगुणं सेवन्ते, न्यायविचक्षणं राजानं प्रजाश्च सेवन्ते, येन मिथः प्रीत्या परस्परस्योन्नतिर्भवतीति॥७॥
विषयः
पुनः स तान्प्रति किं कुर्य्यात् ते च तं प्रति कि कुर्य्युरित्युपदिश्यते ।।
सपदार्थान्वयः
हे देव! दिव्यगुणसम्पन्न!त्वष्टः=सभापते ! सर्वदुःखच्छित् ! यत् स्त्वमुपावीः उपागतपालक (इव) इवासि। तस्माद् दैवीः देवसम्बन्धिनीर्दिव्याः विशः प्रजाः यथाउशिजः कमनीयान् वह्नितमान् अतिशयिता वह्नयो=वोढारस्तान् देवान् विदुषः उप+प्र+अगुः प्रकृष्टतयाऽगमन्तथा त्वां प्राप्नुवन्ति। यथैतास्त्वदाश्रयेणाढ्या भूत्वा रमन्ते तथा त्वमपि तासु रम=रमस्व। [यथा] भवानेतेषां पदार्थान् भुङ्क्ते तथैते ते तव हव्या=होतुमर्हाणि हव्यानि होतुमत्तुमर्हाणिवसु=वसूनि वसूनि धनानि स्वदन्तां भुञ्जताम् ॥ ६।७।। [हे....त्वष्टः=सभापते!.....विशो यथा उशिजो वह्नितमान् देवानुपप्रागुस्तथा त्वां प्राप्नुवन्ति, यथैतास्त्वदाश्रयेणाढ्या भूत्वा रमन्ते तथा त्वमपि तासु रम=रमस्व]
पदार्थः
(उपावीः) उपागतपालक इव (असि) [उप] (देवान्) विदुषः (दैवी:) देवसम्बन्धिनीर्दिव्याः (विश:) प्रजा: (प्र) प्रकृष्टार्थे (अगु:) अगमन् (उशिजः) कमनीयान् (वह्नितमान्) अतिशयिता वह्नयो=वोढारस्तान् (देव) दिव्यगुणसम्पन्न! (त्वष्ट:) सर्वदुःखच्छित् (वसु) वसूनि=धनानि । अत्र सुपां सुलुक् ॥ अ० ७ । १ । ३९॥ इति शसो लुक् (रम) रमस्व। अत्रात्मनेपदे व्यत्ययेन परस्मैपदम् (हव्या) होतुमत्तुमर्हाणि (ते) तव (स्वदन्ताम्) भुञ्जताम् ॥ अयं मंत्रः शत० ३ । ७ । ३। ९-१२ व्याख्यातः ॥ ७॥
भावार्थः
यथा गुणग्राहिण उत्तमगुणं सेवन्ते तथा न्यायविचक्षणं राजानं प्रजांश्च सेवन्ते, येन मिथ: प्रीत्या परस्परस्योन्नतिर्भवतीति।।६।७।।
विशेषः
मेधातिथिः । त्वष्टा=सभापतिः॥ निचृद् आर्षी बृहती। मध्यमः।
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह प्रजाजनों के प्रति क्या करे और वे प्रजाजन उस राजा के प्रति क्या करें, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (देव) दिव्यगुणसम्पन्न! (त्वष्टः) सब दुःख के छेदन करने वाले सभाध्यक्ष! जिससे तू (उपावीः) शरणागत पालक सदृश (असि) है, इसी से (दैवीः) विद्वानों से सम्बन्ध रखने वाली दिव्यगुण सम्पन्न (विशः) प्रजा जैसे (उशिजः) श्रेष्ठ गुण शोभित कामना के योग्य (वह्नितमान्) अतिशय धर्म मार्ग में चलने और चलाने वाले (देवान्) विद्वानों को (उपप्रागुः) प्राप्त हुए वैसे तुझे भी प्राप्त होते हैं, जैसे तेरे आश्रय से प्रजा धनाढ्य होके सुखी हो, वैसे तू भी प्राप्त हुए प्रजाजनों से सत्कृत होकर (रम) हर्षित हो, जैसे तू प्रजा के पदार्थों को भोगता है, वैसे प्रजा भी तेरे (हव्या) भोगने योग्य अमूल्य (वसु) धनादि पदार्थों को (स्वदन्ताम्) भोगें॥७॥
भावार्थ
जैसे गुण के ग्रहण करने वाले उत्तम गुणवान् विद्वान् का सेवन करते हैं, वैसे न्याय करने में चतुर राजा का सेवन प्रजाजन करते हैं, इसी से परस्पर की प्रीति से सब की उन्नति होती है॥७॥
विषय
देव-उशिक्-वह्नि
पदार्थ
पिछले मन्त्र का प्रभु-द्रष्टा अपने आश्रम में क्या करता है ? इस विषय को प्रस्तुत मन्त्र में इस प्रकार कहते हैं कि १. ( उपावीः असि ) = तू अपने को सदा प्रभु के समीप रखता हुआ अपना अवन [ रक्षण ] करनेवाला है। वस्तुतः मनुष्य प्रभु से दूर हुआ और किसी-न-किसी वासना का शिकार बना। वासनाओं से बचने के लिए प्रभु के समीप रहना आवश्यक है।
२. इस प्रकार के ( देवान् ) = दिव्य वृत्तिवाले ( उशिजः ) = मेधावी ( वह्नितमान् ) = औरों को भी उच्च स्थान पर प्राप्त करनेवाले लोगों के ही ( उप ) = समीप ( दैवीः विशः ) = दिव्य वृत्तिवाली प्रजाएँ ( प्रागुः ) = प्रकर्षेण प्राप्त होती हैं। जिसे औरों का निर्माण करना है, उसे पहले अपना निर्माण तो अवश्य करना ही चाहिए। स्वयं देव बने बिना वह औरों को देव न बना पाएगा। स्वयं ज्ञानी होगा तभी औरों को ज्ञान देगा। अपने को उच्च स्थान में प्राप्त कराके ही यह दूसरों को उस स्थान पर ले- चल सकता है, अतः इसका ‘देव, उशिक् व वह्नि’ बनना अत्यन्त आवश्यक है।
३. ( देव ) = हे दिव्य गुणोंवाले! ( त्वष्टः ) = देवों का निर्माण करनेवाले [ देवशिल्पी ] अथवा औरों के दुःखों का छेदन करनेवाले ( वसु ) = [ वसु = वसूनि ] निवास के लिए आवश्यक धन में ही तू ( रम ) = आनन्द ले। अधिक धन पतन का कारण बनता है।
४. ( हव्या ) = हव्य पदार्थ—यज्ञिय सात्त्विक भोजन ( ते ) = तुझे ( स्वदन्ताम् ) = स्वाद देनेवाले हों, रुचिकर हों। इस आहार की शुद्धि पर अन्तःकरण की शुद्धि निर्भर है।
५. आहार को शुद्ध करके तथा धन में आसक्त न होकर तू अपनी बुद्धि को स्वस्थ रख सकेगा और बुद्धि का वर्धन करनेवाला अपने ‘मेधातिथि’ नाम को सार्थक करेगा।
भावार्थ
भावार्थ — जो व्यक्ति औरों का भला करना चाहता है उसे स्वयं ‘देव, उशिक् [ मेधावी ] व वह्नि [ अपने को ऊँचे स्थान पर ले-जानेवाला ]’ बनना चाहिए। वह निवास के लिए आवश्यक धन से अधिक धन न चाहे और सात्त्विक भोजनों को ही करे।
विषय
विद्वानों और राजा का परस्पर सम्बन्ध ।
भावार्थ
हे सभापते ! राजन् ! तू ( उपावी: असिः ) प्रजा के नित्य समीप रहकर उनका पालन करनेवाला रक्षक है । (दैवीः विशः) देव, राजा की दिव्य, या उत्तम गुणवाली ( विशः ) प्रजाऐं ( उशिजः ) कान्ति- मानू तेजस्वी ( वन्हितमान् ) राज्य कार्य भार को उत्तम रीति से वहन करने वाले, समर्थ ( देवान् ) देव, विद्वान् पुरुषों को ( उप प्र अगुः ) प्राप्त हों | हे ( देव ) देव ! राजन् ! हे ( त्वष्टः ) प्रजाओं के दुःखों को काटनेहारे तू (वसु) पशु, प्रजा और नानाविश्व सम्पत्तियों का ( रम) उपभोग कर । ( हव्या ) नाना प्रकार के भोजन करने योग्य अन्न और भोग्य पदार्थ ( ते )तुझे (स्वदन्ताम् ) आस्वाद दें । अथवा ( ते हव्या स्वदन्ताम् ) तेरे नाना भोग्य पदार्थों को प्रजाऐं भोग करें। विद्वांसो हि देवाः ॥ शत० ३ । ७ ।३ । ९-१२ ॥
टिप्पणी
७ --- मेधातिथिर्ऋषिः त्वष्टा देवता । द० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
तृणं पशवेश्च त्वष्टा वा देवता । आर्षी बृहती । मध्यमः ॥
विषय
फिर वह प्रजाजनों के प्रति क्या करे और वे प्रजाजन उस राजा के प्रति क्या करें, यह उपदेश किया है।।
भाषार्थ
हे (देव) दिव्य गुणों से युक्त (त्वष्टः) सब दुःखों का छेदन करने वाले सभापते ! जिससे आप (उपावी:) शरणागत के पालक ईश्वर के समान (असि) हो इसलिये (देवीः) दिव्य गुणों से युक्त (विशः) प्रजा (उशिजः) कामना करने के योग्य (वह्रितमान्) अत्यन्त सुखों को प्राप्त कराने वाले (देवान्) विद्वानों के (उपप्रागुः) पास जाती हैं वैसे आप को प्राप्त हो। जैसे यह प्रजा आपके आश्रय से आाढ्य (धनवान्) होकर सुख में रमण करती है वैसे आप भी उसमें (रम) रमण करो।जैसे आप इन प्रजा-जनों के पदार्थों का उपभोग करते हो वैसे ये प्रजाजन भी (ते) आपके (हव्या) खाने योग्य पदार्थों का एवं (वसु) धनों का (स्वदन्ताम्) आस्वादन करें ॥ ६ । ७ ॥
भावार्थ
जैसे गुणग्राही लोग उत्तम गुण का सेवन करते हैं वैसे न्यायकुशल राजा की और प्रजा की सेवा करें, जिससे परस्पर प्रीतिपूर्वक एक-दूसरे की उन्नति होती है ॥ ६ । ७ ॥
प्रमाणार्थ
(वसु) वसूनि। यहाँ 'सुपां सुलुक्०' (अ० ७।१।३९) सूत्र से 'शस्' प्रत्यय का लुक् है। (रम) रमस्व। यहाँ आत्मनेपद में व्यत्यय से परस्मैपद है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३। ७। ३।९–१२) में की गई है।। ६। ७।।
भाष्यसार
सभाध्यक्ष राजा और प्रजा का परस्पर व्यवहार-- सभाध्यक्ष राजा दिव्य गुणों से सम्पन्न, सबके दुःखों का छेदन करने वाला होता है। जो उसकी शरण में आता है वह उसी की रक्षा करता है। जैसे प्रजा-जन कामना करने के योग्य, सब सुखों को प्राप्त कराने वाले विद्वानों के पास जाते हैं इसी प्रकार दिव्य गुणों से युक्त प्रजा उक्त सभाध्यक्ष राजा के समीप जाती है। भाव यह है कि जैसे गुणग्राही प्रजा-जन उत्तम गुण वाले विद्वानों की सेवा करते हैं वैसे न्यायकुशल राजा की तथा श्रेष्ठ प्रजा-जनों की भी सेवा करते हैं। सभाध्यक्ष राजा के आश्रय से प्रजाजन आढ्य (सम्पन्न) होकर सुखों में रमण करते हैं, तथा राजा भी प्रजा के आश्रय से सुख में रमण करता है। राजा और प्रजाजन एक दूसरे के धन आदि पदार्थों का उपभोग करें इससे परस्पर प्रेम बढ़ कर एक-दूसरे की उन्नति होती है ॥ ६ । ७ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
जेव्हा गुणी लोक गुणी विद्वानांचा स्वीकार करतात व प्रजा चतुर व न्यायी राजाचा स्वीकार करते तेव्हाच परस्परप्रेमाने सर्वांची उन्नती होते.
विषय
राजाने प्रजाजनांप्रती काम करावे आणि प्रजेची राजाविषयी कोणती कर्त्तव्यें आहेत, याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (देव) दिव्यगुणसंपन्न (त्वष्टः) सर्व दुःखांचे छेदन करणारे सभाध्यक्ष! आपण (उपावीः) आश्रयास येणार्याचे, म्हणजे शरणागताचे पालकासमान (असि) आहात. (देवीः) विद्वानांजवळ राहणारे दिव्यगुणसंपन्न (विशः) प्रजाजन (उशिजः) श्रेष्ठ गुणांची कामना करतांना (वह्नितमान्) धर्ममार्गावर चालणार्या आणि चालविणार्या (देवान्) अत्यंत विद्वानजनांकडे (अधिक विदय व सद्गुण प्राप्त करण्यासाठी.) (उपप्रागुः) जातात, त्याप्रमाणे ते (रक्षण आणि ऐश्वर्यासाठी) आपणाकडेही येतात. आपला आश्रय प्राप्त करून प्रजाजन धनाढ्य होऊन सुखी होतात, त्याप्रमाणे आपण देखील प्रजाजनांतर्फे सत्कृत होऊन (रमस्व) हर्षित व्हा. (राजाने प्रजेला आश्रय, संरक्षण व ऐश्वर्य द्यावे आणि प्रजाजनांनी आपल्या राजाचा यथोचित सम्मान-सत्कार करावा) हे राजन्, ज्याप्रमाणे आपण प्रजेने उत्पन्न व अर्जित केलेल्या पदार्थांचा उपभोग घेता, त्याप्रमाणे प्रजेने देखील आपण दिलेल्या (हवतया) भोग्य व अमूल्य (वसु) धन आदी पदार्थांचा (स्वदन्ताम्) आनंदाने उपभोग घ्यावा. ॥7॥
भावार्थ
भावार्थ - सद्गुणग्रहणाची कामना करणारे लोक उत्तम गुणवान विद्वानांजवळ जातात (त्यांची सेवा करून त्यांच्या सहवासात राहतात) त्याचप्रमाणे प्रजाजन देखील न्यायप्रिय आणि नीतिकुशल राजाचा आश्रय ग्रहण करतात. यामुळेच दोघांत एकमेकाविषयी प्रीतिभाव निर्माण होतो. ॥7॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O king, thou art the embodiment of noble qualities, and remover the miseries of thy subjects. Thou protectest those who take refuge under thy shelter. May thy noble subjects be associated with learned persons, full of splendour and efficient to undertake the responsibility of government. Feel pleasure, and let thy subjects enjoy thy pleasurable precious riches.
Meaning
Close to the people, you are their protector. Brilliant in power and virtue, you are the destroyer of suffering. Just as meritorious people of quality and character approach the most lovable benefactors, so may they come to you. Abide in delight by your dominion and may the people enjoy what they offer for the social yajna and what they receive from it.
Translation
You are the protector of approachers. The divine subjects approach the yearning bounties of Nature, which are best conveyers. O universal architect, enjoy the riches. May your oblations be delicious. (1)
Notes
Upavih, one who protects those who approach him. Vobaitaman, the best conveyers or carriers.
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ স তান্প্রতি কিং কুর্য়াৎ তে চ তং প্রতি কিং কুর্য়্যুরিত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় সে প্রজাগণের প্রতি কী করিবে এবং সেই সব প্রজাগণ ঐ রাজার প্রতি কী করিবে এই উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে দেব দিব্যগুণ সম্পন্ন (ত্বষ্টঃ) সকল দুঃখের ছেদনকারী সভাধ্যক্ষ! যদ্দ্বারা তুমি (উপাবীঃ) শরণাগত পালক সদৃশ (অসি) হও, তদ্দ্বারা (দৈবীঃ) বিদ্বান্দিগের সহিত সম্পর্ক রক্ষাকারী দিব্যগুণ সম্পন্ন (বিশঃ) প্রজা যেমন (উশিজঃ) শ্রেষ্ঠগুণ শোভিত কামনার যোগ্য (বহ্নিতমান্) অতিশয় ধর্ম মার্গে চলন ও চালনাকারী (দেবান্) বিদ্বান্দিগকে (উপপ্রাগুঃ) প্রাপ্ত হইয়াছিল সেইরূপ তোমাদিগেরও প্রাপ্ত হয় যেমন তোমার আশ্রয় দ্বারা প্রজা ধনাঢ্য হইয়া সুখী হয় সেইরূপ তুমিও প্রাপ্ত প্রজাগণ দ্বারা সৎকৃত হইয়া (রমস্য) হর্ষিত হও, যেমন তুমি প্রজার পদার্থগুলিকে ভোগ কর সেইরূপ প্রজাও তোমার (হব্যা) ভোগ করিবার যোগ্য অমূল্য (বসি) অনাদি পদার্থগুলিকে (স্বদন্তাম্) ভোগ করুক ॥ ৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যেমন গুণ গ্রহণ কারী উত্তম গুণবান্ বিদ্বানের সেবন করেন সেইরূপ ন্যায় করিতে চতুর রাজার সেবন প্রজাগণ করিয়া থাকে । এইরূপে পরস্পর প্রীতি দ্বারা সকলের উন্নতি হয় ॥ ৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
উ॒পা॒বীর॒স্যুপ॑ দে॒বান্ দৈবী॒র্বিশঃ॒ প্রাগু॑রু॒শিজো॒ বহ্নি॑তমান্ ।
দেব॑ ত্বষ্ট॒র্বসু॑ রম হ॒ব্যা তে॑ স্বদন্তাম্ ॥ ৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
উপাবীরিত্যস্য মেধাতিথিরৃষিঃ । ত্বষ্টা দেবতা । নিচৃদার্ষী বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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