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यजुर्वेद अध्याय - 6

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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 23
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - अब्यज्ञसूर्या देवताः छन्दः - निचृत् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
    75

    ह॒विष्म॑तीरि॒माऽआपो॑ ह॒विष्माँ॒२ऽआवि॑वासति। ह॒विष्मा॑न् दे॒वोऽअ॑ध्व॒रो ह॒विष्माँ॑२ऽअस्तु॒ सूर्यः॑॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह॒विष्म॑तीः। इ॒माः। आपः॑। ह॒विष्मा॑न्। आ। वि॒वा॒स॒ति॒। ह॒विष्मा॑न्। दे॒वः। अ॒ध्व॒रः। ह॒विष्मा॑न्। अ॒स्तु॒। सूर्यः॑ ॥२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हविष्मतीरिमा आपो हविष्माँ आ विवासति । हविष्मान्देवो अध्वरो हविष्माँ अस्तु सूर्यः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हविष्मतीः। इमाः। आपः। हविष्मान्। आ। विवासति। हविष्मान्। देवः। अध्वरः। हविष्मान्। अस्तु। सूर्यः॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 23
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनरन्योन्यं मिलित्वा राजप्रजे केन किं किं कुर्यातामित्याह॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसः! यथेमा आपो हविष्मतीर्हविष्मत्यः स्युरयं वायुर्हविष्मानेवाविवासति सर्वान् परिचरति, देवोऽध्वरो हविष्मान् स्यात्, सूर्यो हविष्मान् अस्तु भवेत्, तथा भवन्तो यज्ञेनैतान् शुद्धान् कुर्वन्तु॥२३॥

    पदार्थः

    (हविष्मतीः) प्रशस्तानि हवींषि विद्यन्ते यासु ताः (इमाः) प्रत्यक्षाः (आपः) जलानि (हविष्मान्) प्रशस्तानि हवींषि विद्यन्ते यस्य वायोः सः, दीर्घादटि समानपादे। (अष्टा॰८।३।९) इति रुः। आतोऽटि नित्यम्। (अष्टा॰८।३।३) इति सानुनासिकत्वम्। (आ) समन्तात् (विवासति) सेवते। विवासतीति परिचरणकर्मसु पठितम्। (निघं॰३।५) (हविष्मान्) (देवः) सुखयिता। (अध्वरः) यज्ञः (हविष्मान्) (अस्तु) (सूर्यः)॥ अयं मन्त्रः (शत॰३। ९। २। १०) व्याख्यातः॥२३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। येन वायुजलसंयोगेनानेकानि सुखानि साध्यन्ते, यैर्विविधदेश-देशान्तरगमनेन वस्तुप्रापणं भवति। तैरेतत् कर्म क्रियाविचक्षण एव कर्त्तुं शक्नोति, यो विविधक्रियाप्रकाशकोऽस्ति, स यज्ञो वृष्ट्यादिसुखकरो भवति॥२३॥

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    विषयः

    पुनरन्योऽन्यं मिलित्वा राजप्रजे केन किं किं कुर्यातामित्याह ।।

    सपदार्थान्वयः

    हे विद्वांसः! यथा इमाः प्रत्यक्षा आपः जलानि हविष्मतीः=हविष्मत्यः प्रशस्तानि हवींषि विद्यन्ते यासु ताः, स्युरयं वायुर्हविष्मान् प्रशस्तानि हवींषि विद्यन्ते यस्य वायोः सः,एव आ+विवासति=सर्वान् परिचरति समन्तात् सेवते। देवः सुखयिता अध्वरः यज्ञो हविष्मान् प्रशस्तानि हवींषि विद्यन्ते यस्य सः, स्यात्। सूर्य्यः हविष्मान् प्रशस्तानि हवींषि विद्यन्ते यस्य सः, अस्तु=भवेत्, तथा भवन्तो यज्ञेनैतान् शुद्धान् कुर्वन्तु।। ६।२३ ।। [हे विद्वांसः! यथेमा आप हविष्मतीः=हविष्मत्यः स्युरयं वायुर्हविष्मानेवाविवासति=सर्वान्परिचरति]

    पदार्थः

    (हविष्मतीः) प्रशस्तानि हवींषि विद्यन्ते यासु ताः (इमाः) प्रत्यक्षा: (आपः) जलानि (हविष्मान्) प्रशस्तानि हवींषि विद्यन्ते यस्य वायोः सः। दीर्घादटि समानपदि ॥ अ०। ८।३।९॥ इति रुः। अतोऽटि नित्यम् ॥ अ० ८ । ३ । ३।। इति सानुनासिकत्वम् (आ) समन्तात् (विवासति) सेवते । विवासतीति परिचरणकर्मसु पठितम् ॥ निघं० ३ । ५ ।।(हविष्मान्) (देव:) सुखयिता। (अध्वरः) यज्ञः (हविष्मान्) (अस्तु) (सूर्य:)।। अयं मन्त्रः शत० ३ । ९ ।२।१० व्याख्यातः॥ २३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः॥ येन वायुजलसंयोगेनानेकानि सुखानि साध्यन्ते, यैर्विविधदेशदेशान्तरगमनेन वस्तुप्रापणं भवति। तैरेतत्कर्म क्रियाविचक्षण एव कर्तुं शक्नोति। [देवोऽध्वरो हविष्मान् स्यात्, सूर्यो हविष्मानस्तु=भवेत्, तथा भवन्तो यज्ञेनैतान् शुद्धान् कुर्वन्तु] यो विविधक्रियाप्रकाशकोऽस्ति, स यज्ञो वृष्ट्यादिसुखकरो भवति ॥ ६। २३॥ [हे विद्वांसः! यथेमा आप हविष्मतीः=हविष्मत्यः स्युरयं वायुर्हविष्मानेवाविवासति=सर्वान्परिचरति]

    विशेषः

    दीर्घतमाः। अब्यज्ञसूर्या:=जलयज्ञसूर्याः। निचृदार्ष्यनुष्टुप्। गान्धारः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर परस्पर मिल कर राजा और प्रजा किससे क्या-क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् लोगो! तुम उन कामों को किया करो कि जिनसे (इमाः) ये (आपः) जल (हविष्मतीः) अच्छे-अच्छे दान और आदान क्रिया शुद्धि और सुख देने वाले हों अर्थात् जिन से नाना प्रकार का उपकार दिया लिया जाय (हविष्मान्) पवन उपकार अनुपकार को (आ) अच्छे प्रकार (विवासति) प्राप्त होता है (देवः) सुख का देने वाला (अध्वरः) यज्ञ भी (हविष्मान्) परमानन्दप्रद (सूर्य्यः) तथा सूर्यलोक भी (हविष्मान्) सुगन्धादियुक्त होके (अस्तु) हो॥२३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिस वायु जल के संयोग से अनेक सुख सिद्धि किये जाते हैं, जिनसे देश-देशान्तरों में जाने से उत्तम वस्तुओं का पहुंचाना होता है, उन अग्नि जल आदि पदार्थों से उक्त काम को क्रियाओं में चतुर पुरुष ही कर सकता है और जो नाना प्रकार की कारीगरी आदि अनेक क्रियाओं का प्रकाश करने वाला है, वही यज्ञ वर्षा आदि उत्तम-उत्तम सुख का करने वाला होता है॥२३॥

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    विषय

    हविष्मान्

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र में वर्णन था कि सब प्रजाएँ जलों, ओषधियों व गौवों की रक्षा करनेवाली हों। अब कहते हैं कि ( इमाः ) = ये जल, ओषधि व गौवों की हिंसा न करनेवाली ( आपः ) = प्रजाएँ ( हविष्मतीः ) = हविवाली हों। ये सदा दानपूर्वक अदन करनेवाली हों। वस्तुतः ( हविष्मान् ) = यह दानपूर्वक अदन करनेवाला व्यक्ति ही ( आविवासति ) = प्रभु की परिचर्या करता है। प्रभु का आदेश है ( त्यक्तेन भुञ्जीथाः ) = त्यागपूर्वक भोग करो। बस, जो इस आदेश का पालन करता है, वही प्रभु का सच्चा उपासक है। 

    २. ‘केवलाघो भवति केवलादी’ अकेला खानेवाला शुद्ध पाप ही खाता है। अपञ्चयज्ञो मलिम्लुचः पञ्च यज्ञ न करनेवाला चोर है और वस्तुतः इसके विपरीत ( हविष्मान् ) = दानपूर्वक अदन करनेवाला ( देवः ) = दिव्य गुणोंवाला बनता है। इसके मन में दान की वृत्ति होती है। ( अध्वरः ) = इसके हाथों से सदा ‘अ-हिंसात्मक’ उत्तम कर्म होते हैं। २१ वें मन्त्र में यही बात ‘दिव्यं नभः’ शब्दों से कही गई थी—‘प्रकाशमय अहिंसा’। 

    ३. और इन दोनों बातों से बढ़कर बात यह है कि ( हविष्मान् ) = यह हविवाला—दानपूर्वक अदन करनेवाला ( सूर्यः ) = ज्ञान का सूर्य ( अस्तु ) = हो। दूसरे शब्दों में हविष्मान् पुरुष का मन ‘देवों’ वाला होता है, उनके हाथों में ‘अध्वर’ होते हैं और इनका मस्तिष्करूप द्युलोक ज्ञान के सूर्य से देदीप्यमान हो उठता है। 

    ४. एवं, ‘दिर्घतमाः’ का यही मार्ग है कि वह ‘हविष्मान्’ बने।

    भावार्थ

    भावार्थ — हे प्रभो! आपकी कृपा से हविष्मान् बनकर हम आपके सच्चे उपासक बनें और अपने मनों को दिव्य गुणों का कोश बनाएँ। हविष्मान् के हाथों में अध्वर होता है और मस्तिष्क में ज्ञान का सूर्य।

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    विषय

    राजा के आप्त प्रजाजन के प्रति रक्षा का कर्तव्य ।

    भावार्थ

     ( इमाः आपः ) ये जल सदा ( हविष्मती : ) हवि, अर्थात् ग्रहण करने योग्य रस और अन्न से युक्त हो उनको ( हविष्मान् ) हविः, उत्तम गुण और ज्ञान से सम्पन्न पुरुष ( आविवासति ) प्रयोग में लावे, उपयोग करे । अथवा – ( इमा: ) इन ( हविष्मती: ) ज्ञान से समूद्ध प्रजाओं और आप्त पुरुषों या यज्ञादिक आप्त कर्मों को ( हविष्मान् आवि- वासाति ) ज्ञान जल और अन से समृद्ध पुरुष ही सेवन करता है। (देवः ) देव, साक्षात् राजा ( अध्वर: ) शत्रुओं से न पराजित होने वाला ( हविष्मान् ) ग्रहण करने योग्य राष्ट्र से युक्त हो । और ( सूर्यः ) वह सूर्य के समान रश्मियों से युक्त तेजस्वी होकर ( हविष्मान् अस्तु ) अनादि उपयोगी पदार्थों से सम्पन्न हो । 
    यज्ञ में ये आपः ' वसतीवरी' कहाती हैं जो ' वसति' अर्थात् राष्ट्र के नगर, ग्राम आदि में बसी श्रेष्ट प्रजाओं की प्रतिनिधि हैं । 
    अथवा - ( हविष्मान् ) हवि, ग्रहणशक्ति से सम्पन्न वायु जिस प्रकार ( हविष्मती : आपः आविवासति ) रस वाले जलों को अपने भीतर लेता है उसी प्रकार (अध्वरः देवः हविष्मान् ) अपराजित राजा स्वयं बलशाली होकर समस्त प्रजाओं को अपने वश रखे। और इसी प्रकार `अध्वर' हिंसा रहित यज्ञ जिस प्रकार अन्नवान् है और जिस प्रकार सूर्य अपने रस ग्रहण की शक्तिरूप हवि को धारण करता है उसी प्रकार राजा भी अन्न आदि से समृद्ध हो । शत० ३।९।२।१०+१२ | इसी प्रकार प्रत्येक गृहपति को भी हविष्मान् और पत्नी को हविष्मती और वीर्यवान्, वीर्यवती होने का उपदेश है । इस मन्त्र में ' आपः कन्या है क्योंकि उनको वरण द्वारा प्राप्त किया जाता है। उनके प्रतिनिधि भी वसतीवरी' हैं क्योंकि वसना चाहने वाले नवयुवकों को वे वरण करती हैं । और स्वंयवरा कन्या सूर्या' कहाती है । वरण योग्य पुरुष 'सूर्य कहाता है ||

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आप: यज्ञ: सूर्याश्च देवताः । निचृदार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः॥

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    विषय

    फिर परस्पर मिल कर राजा और प्रजा किससे क्या-क्या करें, इस विषय का उपदेश किया है ॥

    भाषार्थ

    हे विद्वान् लोगो ! जैसे (इमाः) यह (आपः) जल (हविष्मतीः) यज्ञ की प्रशस्त हवि से युक्त हों, और यह वायु भी (हविष्मान्) यज्ञ की प्रशस्त हवि से युक्त होकर ही (आ+ विवासति) सब ओर से सबकी परिचर्या सेवा करता है, सब को सुख प्रदान करता है। (देव:) सुख देने वाला (अध्वरः) यज्ञ (हविष्मान्) उत्तम हवि से सुगन्धित हो। (सूर्यः) सूर्य (हविष्मान्) उत्तम हवि से युक्त (अस्तु) हो तथा आप लोग यज्ञ से इन जल, वायु और सूर्य को शुद्ध करें।। ६। २३।।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है।। जिस वायु और जल के संयोग से अनेक सुख सिद्ध होते हैं, जिनसे विविध देश-देशान्तर में जाने से वस्तुओं की प्राप्ति होती है, उनसे यह कर्म क्रिया-कुशल व्यक्ति ही कर सकता है। जो नाना क्रियाओं का प्रकाशक यज्ञ है वह वर्षा आदि सुखों को उत्पन्न करनेवाला है।।६। २३॥

    प्रमाणार्थ

    (हविष्मॉ२ऽआविवासति) यहाँ 'दीर्घादटि समानपादे' (अ० ८। ३।९) इस सूत्र से नकार को 'रुत्व' और 'आतोऽटि नित्यम्’ (अ०८। ३। ३) इस सूत्र से सानुनासिकता है। (विवासति) यह पद निघं० (३।५) में सेवा-अर्थ वाली क्रियाओं में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।९।२। १०) में की गई है। ६। २३।।

    भाष्यसार

    १. राजा और प्रजा परस्पर मिल कर किससे क्या-क्या करें-- राजा और प्रजा के लोग परस्पर मिल कर जल और वायु को यज्ञ की हवि से युक्त करें क्योंकि यज्ञ की हवि से परिष्कृत जल और वायु सबकी चहुँ ओर से परिचर्या करते हैं, सेवा करते हैं, सबको सुख पहुँचाते हैं। वायु और जल के संयोग से अनेक सुखों को सिद्ध करें तथा इनके उपयोग से नाना देश-देशान्तर में जाकर वस्तुओं को प्राप्त करें। जल और वायु से यह कार्य कोई क्रिया-कुशल व्यक्ति ही कर सकता है, सब नहीं। सब सुखों को देने वाला यज्ञ श्रेष्ठ हवियों वाला हो। यज्ञ की श्रेष्ठ वे हवियाँ सूर्य को प्राप्त हों, जिससे सूर्य भी श्रेष्ठ हवियों से युक्त हो। यज्ञ से विद्वान् लोग जल, वायु तथा सूर्य को शुद्ध करें। नाना क्रियाओं को प्रकाशित करने वाला यज्ञ वर्षा आदि सुखों को उत्पन्न करने वाला होता है। अतः राजा और प्रजा परस्पर मिल कर यज्ञ से जल आदि पदार्थों को शुद्ध करें ॥ ६। २३ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या वायू व जल यांच्या संयोगाने अनेक प्रकारचे सुख प्राप्त होते व ज्यांच्यायोगे देशोदेशी प्रवास करता येतो व उत्तम पदार्थ इकडे तिकडे पाठविता येतात. त्या अग्नी व जल इत्यादी पदार्थांनी चतुर पुरुष कार्य संपन्न करतात. अशा प्रकारे विविध प्रकारचे कलाकौशल्य प्रकट करणारा यज्ञही वृष्टी इत्यादी सुख देणारा असतो.

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    विषय

    यानंतर राजा आणि प्रजा यांनी कोणत्या पदार्थांनी काय काय कर्मे पूर्ण करावीत, याविषयी पुढील मंत्रात वर्णन केले आहे-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वज्जनहो, तुम्ही ते ते कर्म करा की ज्यामुळे (इमा:) हे जल (हविषमती:) चांगले आदान-प्रदान क्रियेमुळे शुद्ध आणि सुखकारक होईल (तुम्ही यज्ञाद्वारे अशुद्ध जलावर क्रिया करून सर्वाना स्वच्छ वृष्टिजल द्या) त्यामुळे ते शुद्धजल जगावर नाना उपकार करणारे होईल. (हविष्मान्) यज्ञामुळे पवन देखील उपकारक होईल (आ) पवन उत्तम प्रकारे अनुपकारक दोषांना (विवासति) दूर करील. (देवः) सुखप्रदाता (अध्वरः) यज्ञदेखील (हविष्मान्) परमानन्ददायी होईल (सूर्य्यः) सूर्यलोकदेखील (हविष्मान्) सुगन्धीमय होऊन सुखकर्ता होईल. ॥23॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रामधे वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या वायू आणि जलाच्या साहाय्याने अनेक प्रकारच्या सुख सोयी मिळविल्या जातात आणि जय वायू व जलाद्वारे आपल्या उत्तम पदार्थांच्या (विक्री वा निर्मितीसाठी) देश-देशांतरापर्यंत नेता येणे शक्य आहे, त्या वायू, जल, अग्नी आदी पदार्थांपासून घेण्याचे कार्य केवळ कुशल मनुष्यच करू शकतो, तसा कुशल मनुष्य नानाविध करागीरी, कलाकौशल्यादींना जाणणारा आणि त्याची क्रिया करणारा आणि यज्ञाद्वारे वृष्टी करविणारा असतो. ॥23॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned persons, see that these waters contribute to your purity, comfort and usefulness. Air can be used and abused. May pleasure-promoting yajna grant us happiness, may the sun give us health and comfort.

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    Meaning

    The waters are a blessing carrying the purity and joy of yajna. May the wind too bless us with the gifts of yajna. May yajna, non-violent, a very god of love and peace, overflow with life-giving fragrance. May the sun be replete and generous with the light and life of yajna.

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    Translation

    The waters are fult of sacred food. Full of sacred food is the one who serves. May the brilliant sacrifice be full of sacred food; may the sun be full of sacred food. (1)

    Notes

    Havih, sacred food.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনরন্যোন্যং মিলিত্বা রাজপ্রজে কেন কিং কিং কুর্য়াতামিত্যাহ ॥
    পুনরায় পরস্পর মিলিত হইয়া রাজা ও প্রজা কাহার দ্বারা কী কী করিবে, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে বিদ্বান্গণ ! তোমরা সেই সব কর্ম করিতে থাক যাহার দ্বারা (ইমাঃ) এই সব (আপঃ) জল (হবিষ্মতীঃ) ভাল ভাল দান ও আদান ক্রিয়া শুদ্ধি ও সুখপ্রদ হউক অর্থাৎ যাহার দ্বারা নানা প্রকারের উপকার দেওয়া নেওয়া যায়, (হবিষ্মান্) পবন উপকার অনুপকারকে (আ) ভাল প্রকারে (বিবাসতি) প্রাপ্ত হয়, (দেবঃ) সুখ দায়ক (অধ্বরঃ) যজ্ঞ ও (হবিষ্মান্) পরমান্দপ্রদ (সূর্য়্যাঃ) তথা সূর্য্যলোক ও (হবিষ্মান্) সুগন্ধাদিযুক্ত হইয়া সুখদায়ক (অস্তু) হউক ॥ ২৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালংকার আছে । যে বায়ুর, জলসংযোগ দ্বারা অনেক সুখ সিদ্ধি করা হইয়া থাকে, যাহার দ্বারা দেশ-দেশান্তরে যাইলে উত্তম বস্তুসকলের পৌঁছানো হইয়া থাকে সেই অগ্নি জল ইত্যাদি পদার্থ দ্বারা উক্ত কর্মকে বিবিধ ক্রিয়াসকলে পরিণত চতুর পুরুষই করিতে পারে এবং যাহা নানা প্রকারে শিল্পাদি বহু ক্রিয়াকে প্রকাশ করে সেই যজ্ঞ বর্ষাদি উত্তম উত্তম ভাবে সুখকারক হইয়া থাকে ॥ ২৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    হ॒বিষ্ম॑তীরি॒মাऽআপো॑ হ॒বিষ্মাঁ॒২ऽআবি॑বাসতি ।
    হ॒বিষ্মা॑ন্ দে॒বোऽঅ॑ধ্ব॒রো হ॒বিষ্মাঁ॑২ऽঅস্তু॒ সূর্য়ঃ॑ ॥ ২৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    হবিষ্মতীরিত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । অব্যজ্ঞসূর্য়া দেবতাঃ । নিচৃদার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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