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यजुर्वेद अध्याय - 6

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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 24
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - लिङ्गोक्ता देवताः छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप्,त्रिपाद गायत्री, स्वरः - धैवतः, षड्जः
    114

    अ॒ग्नेर्वोऽप॑न्नगृहस्य॒ सद॑सि सादयामीन्द्रा॒ग्न्योर्भा॑ग॒धेयी॑ स्थ मि॒त्रावरु॑णयोर्भाग॒धेयी॑ स्थ॒ विश्वे॑षां दे॒वानां॑ भाग॒धेयी॑ स्थ। अ॒मूर्याऽउप॒ सूर्ये॒ याभि॒॑र्वा॒ सूर्यः॑ स॒ह। ता नो॑ हिन्वन्त्वध्व॒रम्॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नेः। वः। अप॑न्नगृह॒स्येत्यप॑न्नऽगृहस्य। सद॑सि। सा॒द॒या॒मि॒। इ॒न्द्रा॒ग्न्योः। भा॒ग॒धेयी॒रिति॑ भाग॒ऽधेयीः॑। स्थ॒। मि॒त्रावरु॑णयोः। भा॒ग॒धेयी॒रिति॑ भाग॒ऽधेयीः॑। विश्वे॑षाम्। दे॒वाना॑म्। भा॒ग॒धेयी॒रिति॑ भाग॒ऽधेयीः॑। स्थ॒। अ॒मूः। याः। उप॑। सूर्य्ये॑। याभिः॑। वा॒। सूर्य्यः॑। स॒ह। ताः। नः। हि॒न्व॒न्तु॒। अ॒ध्व॒रम् ॥२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नेर्वापन्नगृहस्य सदसि सादयामीइन्द्राग्न्योर्भागधेयी स्थ मित्रावरुण्योर्भागधेयी स्थ विश्वेषान्देवानाम्भागधेयी स्थ । अमूर्याऽउप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह । ता नो हिन्वन्त्वध्वरम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नेः। वः। अपन्नगृहस्येत्यपन्नऽगृहस्य। सदसि। सादयामि। इन्द्राग्न्योः। भागधेयीरिति भागऽधेयीः। स्थ। मित्रावरुणयोः। भागधेयीरिति भागऽधेयीः। विश्वेषाम्। देवानाम्। भागधेयीरिति भागऽधेयीः। स्थ। अमूः। याः। उप। सूर्य्ये। याभिः। वा। सूर्य्यः। सह। ताः। नः। हिन्वन्तु। अध्वरम्॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 24
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ गुरुपत्न्यो ब्रह्मचर्यमनुवर्तिनीः कन्याः किं किमुपदिशेयुरित्याह॥

    अन्वयः

    हे ब्रह्मचारिण्यः! यूयं या अमूः स्वयंवरविवाहं कृतवत्यः सन्ति, यूयं इन्द्राग्न्योर्भागधेयीः स्थ, मित्रावरुणयोर्भागधेयीः स्थ, विश्वेषां देवानां भागधेयीः स्थ, ता वो युष्मान् अपन्नगृहस्याग्नेः सदस्यहं सादयामि, या उपसूर्ये सूर्य्यगुणेषु तिष्ठन्ति वा याभिः सह सूर्यो वर्त्तते, ता नोऽस्माकमध्वरं विवाहं कृत्वा हिन्वन्तु॥२४॥

    पदार्थः

    (अग्नेः) विद्यादिगुणप्रकाशितस्य सभ्यजनस्य (वः) युष्मान् युष्माकं वा (अपन्नगृहस्य) अप्राप्तगृहस्य कुमारब्रह्मचारिणः (सदसि) सीदन्ति बुद्धिविषया यस्मिन्निति सदः अध्ययनाध्यापननिमित्ता सभा। तत्र (सादयामि) स्थापयामि (इन्द्राग्न्योः) सूर्यविद्युतोर्गुणानाम् (भागधेयीः) विभागविज्ञानयुक्ताः। नामरूपभागेभ्यः स्वार्थे धेयः प्रत्ययः। (अष्टा (अष्टा॰५।४।३६ भा॰ वा॰)॥ केवलमामक॰। (अष्टा॰४।१।३०) इत्यादिना ङीप्। (स्थ) भवथ (मित्रावरुणयोः) प्राणोदानयोः (विश्वेषाम्) सर्वेषाम् (देवानाम्) विदुषां पृथिव्यादीनां वा (भागधेयीः) (स्थ) (अमूः) प्रत्यक्षाः (याः) (उप) (सूर्ये) सवितृलोके (याभिः) (वा) पक्षान्तरे (सूर्यः) सूर्यलोकः (सह) (ताः) (नः) अस्माकम् (हिन्वन्तु) प्रीणन्तु (अध्वरम्) गृहाश्रमक्रियासिद्धिकरं यज्ञम्॥२४॥

    भावार्थः

    ब्रह्मचर्यधर्ममनुवर्त्तिनीनां कन्यानामविवाहितैः स्वतुल्यगुणकर्मस्वभावैः पुरुषैः सहैव विवाहकरणयोग्यतास्तीति हेतोर्गुरुपत्न्यो ब्रह्मचारिण्यः कन्यास्तादृशमेवोपदिशन्तु खल्वापत्काले कृतविवाहयोर्नियोगो भवितुमर्हति नान्यथेति॥२४॥

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    विषयः

    अथ गुरुपत्न्यो ब्रह्मचर्यमनुवर्त्तिनीः कन्याः किं किमुपदिशेयुरित्याह।।

    सपदार्थान्वयः

    हे ब्रह्मचारिण्यः! यूयं याः अमू: प्रत्यक्षाः स्वयंवरविवाहं कृतवत्यः सन्ति, यूयम् इन्द्राऽग्न्योः सूर्य्यविद्युतोर्गुणानां भागधेयीः विभागविज्ञानयुक्ताः स्थ भवथ, मित्रावरुणयोः प्राणोदानयोः भागधेयीः विभागविज्ञानयुक्ताः स्थ भवथ। विश्वेषां सर्वेषां देवानां विदुषां पृथिव्यादीनां वा भागधेयीः विभागविज्ञानयुक्ताः स्थभवथ ता वः=युष्मान् युष्मान् अपन्नगृहस्य अप्राप्तगृहस्य कुमारब्रह्मचारिणो अग्नेः विद्यादिगुणप्रकाशितस्य सभ्यजनस्य सदसि सीदन्ति बुद्धिविषया यस्मिन्निति सदः, अध्ययनाऽध्यापननिमित्ता सभा तत्र अहं सादयामि स्थापयामि। या उप सूर्य्ये=सूर्य्यगुणेषु सवितृलोके तिष्ठन्ति वा पक्षान्तरे याभिः सह सूर्य्यः सूर्य्यलोको वर्त्तते ताः नः=अस्माकम् अध्वरं=विवाहं गृहाऽऽश्रमक्रियासिद्धिकरं यज्ञे कृत्वा हिन्वन्तु प्रीणन्तु ॥६ । २४॥ [हे ब्रह्मचारिण्यः! यूयं या अमूः स्वयंवरविवाहं कृतवत्यः सन्ति......ता वः=युष्मानपन्नगृहस्याग्नेःसदस्यहं सादयामि]

    पदार्थः

    (अग्ने:) विद्यादिगुणप्रकाशितस्य सभ्यजनस्य (व:) युष्मान् युष्माकं वा (अपन्नगृहस्य) अप्राप्तगृहस्य कुमारब्रह्मचारिणः (सदसि) सीदन्ति बुद्धिविषया यस्मिन्निति सदः अध्ययनाध्यापननिमित्ता सभा, तत्र (सादयामि) स्थापयामि (इन्द्राग्न्योः) सूर्यविद्युतोर्गुणानाम् (भागधेयीः) विभागविज्ञानयुक्ताः। नामरूपभागेभ्य: स्वार्थे घेय: प्रत्ययः। अ० ५ । ४ । ३६ भा० वा०॥केवलमामक० ॥ [अ० ४ । १ । ३० ॥ इत्यादिना ङीष् (स्थ) भवथ (मित्रावरुणयोः) प्राणोदानयोः (भागधेयी) (स्थ) (विश्वेषाम् ) सर्वेषाम् (देवानाम्) विदुषां पृथिव्यादीनां वा (भागधेयी) (स्थ) (अमू:) प्रत्यक्षा: (याः) (उप) (सूर्ये) सवितृलोके (याभिः) (वा) पक्षान्तरे (सूर्यः) सूर्यलोकः (सह) (ताः) (नः) अस्माकम् (हिन्वन्तु) प्रीणन्तु (अध्वरम्) गृहाश्रमक्रियासिद्धिकरं यज्ञम् ॥ २४॥

    भावार्थः

    ब्रह्मचर्यधर्ममनुवर्त्तिनीनां कन्यानामविवाहितैः स्वतुल्यगुणकर्मस्वभावैः पुरुषैः सहैव विवाहकरणयोग्यताऽस्तीति हेतोर्गुरुपत्न्यो ब्रह्मचारिणी: कन्यास्तादृशमेवोपदिशन्तु खल्वापत्काले कृतविवाहयोर्नियोगो भवितुमर्हति नान्यथेति ॥ ६ । २४ ।।

    विशेषः

    मेधातिथिः। आपः=गुरुपत्न्यः॥ आर्षी त्रिष्टुप्। धैवतः। अमूर्य्येत्यस्य त्रिपाद् गायत्री। षड्जः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब गुरुपत्नी ब्रह्मचर्य्य के अनुकूल जो कन्याजन हैं, उन को क्या-क्या उपदेश करें, यह अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे ब्रह्मचारिणी कन्याओ! (अमूः) वे (याः) जो स्वयंवर विवाह से पतियों को स्वीकार किये हुए हैं, उन के समान जो (इन्द्राग्न्योः) सूर्य और बिजुली के गुणों को (भागधेयीः) अलग-अलग जानने वाली (स्थ) हैं, (मित्रावरुणयोः) प्राण और उदान के गुणों को (भागधेयीः) अलग-अलग जानने वाली (स्थ) हैं, (विश्वेषाम्) विद्वान् और पृथिवी आदि पदार्थों के (भागधेयीः) सेवने वाली (स्थ) हैं, उन (वः) तुम सभों को (अपन्नगृहस्य) जिसको गृहकृत्य नहीं प्राप्त हुआ है, उस ब्रह्मचर्य धर्मानुष्ठान करने वाले और (अग्नेः) सब विद्यादि गुणों से प्रकाशित उत्तम ब्रह्मचारी की (सदसि) सभा में मैं (सादयामि) स्थापित करती हूं और जो (याः) (उप) (सूर्ये) सूर्यलोक गुणों में (उप) उपस्थित होती हैं (वा) अथवा (याभिः) जिनके (सह) साथ (सूर्यः) सूर्यलोक वर्त्तमान अर्थात् जो सूर्य के गुणों में अति चतुर हैं (ताः) वे सब (नः) हमारे (अध्वरम्) घर के काम-काज को विवाह करके (हिन्वन्तु) बढावें॥२४॥

    भावार्थ

    ब्रह्मचर्य धर्म को पालन करने वाली कन्याओं को अविवाहित ब्रह्मचारी और अपने तुल्य गुण, कर्म, स्वभावयुक्त पुरुषों के साथ विवाह करने की योग्यता है, इस हेतु से गुरुजनों की स्त्रियां ब्रह्मचारिणी कन्याओं को वैसा ही उपदेश करें कि जिससे वे अपने प्रसन्नता के तुल्य पुरुषों के साथ विवाह करके सदा सुखी रहें और जिसका पति वा जिसकी स्त्री मर जाय और सन्तान की इच्छा हो, वे दोनों नियोग करें, अन्य व्यभिचारदि कर्म कभी न करें॥२४॥

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    विषय

    बल-प्रकाश-स्नेह व द्वेषाभाव की प्रार्थना तथा कन्या का विवाह कहाँ?

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र में प्रजाओं के हविष्मान् बनने का उल्लेख था। ‘हमारी सन्तानें हविष्मान् ही बनी रहें’ इस उद्देश्य से प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि हम उनके विवाहादि सम्बन्धों को ऐसे घरों में करें जहाँ अग्निहोत्र इत्यादि नियमपूर्वक होते हों। घर का वातावरण यज्ञ के अनुकूल होगा तो सन्तानें भी उसी प्रवृत्तिवाली बनी रहेंगी। कन्या का पिता कन्या से कहता है कि ( वः ) = तुम्हें ( अपन्नगृहस्य ) = [ न पन्नं पतितं गृहं यस्य ] यज्ञादि उत्तम कर्मों के त्याग से पतित नहीं हुआ है जिसका घर, उस ( अग्नेः ) = प्रगतिशील व्यक्ति के ( सदसि ) = घर में ( सादयामि ) = स्थापित करता हूँ। 

    २. तुम इस उत्तम घर में स्थित होकर ( इन्द्राग्न्योः ) = इन्द्र और अग्नि के ( भागधेयी स्थ ) = भाग को धारण करनेवाले बनो। तुममें इन्द्र और अग्नि दोनों देवों का अंश स्थापित हो। ‘इन्द्र’ बल का प्रतीक है तो ‘अग्नि’ प्रकाश का। तुम बल और प्रकाशवाले होवो। 

    ३. ( मित्रावरुणयोः ) = मित्र और वरुण के ( भागधेयी स्थ ) = भाग को धारण करनेवाले बनो। ‘मित्र और वरुण’ इन दोनों देवों का अंश तुममें स्थापित हो। तुम मित्र के अंश को धारण करके सबके साथ स्नेह करनेवाले बनो और वरुण के अंश को धारण करके तुम द्वेष का निवारण करनेवाले होओ। तुम किसी से भी द्वेष न करो। 

    ४. ठीक-ठीक बात तो यह है कि तुम ( विश्वेषाम् ) = सब ( देवानाम् ) = देवों के ( भागधेयी स्थ ) = भाग को धारण करनेवाले बनो। तुममें सब दिव्य गुणों की वृद्धि हो। यद्यपि इस वाक्य में ‘इन्द्र-अग्नि और मित्र-वरुण’ का भी समावेश है तो भी ‘ब्राह्मणा आयाता वसिष्ठोऽप्यायातः’— ‘ब्राह्मण आ गये, वसिष्ठ भी आ गये’ जैसे इस वाक्य में ब्राह्मणों के अन्तर्गत होते हुए भी अधिक आदरणीय होने से वसिष्ठ का अलग उल्लेख है, उसी प्रकार यहाँ ‘इन्द्राग्नी और मित्र-वरुण’ का अलग उल्लेख हुआ है। 

    ५. ( अमूः ) = हमारी वे प्रजाएँ—सन्तानें ( याः ) = जो ( उपसूर्ये ) = ज्ञान के सूर्य आचार्य के समीप रही हैं ( वा ) = और ( याभिः सह ) = जिनके साथ ( सूर्यः ) =  ज्ञान का सूर्य आचार्य रहा है, अर्थात् आचार्य के समीप रहने से जो सचमुच ‘अन्तेवासी’ इस नाम से कहलाने योग्य थीं और आचार्य ने भी जिन्हें मानो अपने गर्भ में धारण किया हुआ था, ( नः ) = हमारी ( ताः ) = वे सन्तानें ( अध्वरम् ) = हिंसारहित यज्ञादि कर्मों को ( हिन्वन्तु ) = [ प्रीणन्तु =  बढ़ावें—द० ] अपने घरों में बढ़ानेवाली [ प्रेरित करनेवाली ] हों।

    भावार्थ

    भावार्थ — हमारे घरों में यज्ञों का कभी लोप न हो, हमारी सन्तानें सब देवांशों को धारण करनेवाली हों। विशेषतया उनमें ‘बल, प्रकाश, स्नेह व द्वेषाभाव’ तो अवश्य ही हों।

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    भावार्थ

    हे स्वंय वरण करने हारी कन्याओ ! मैं तुम्हारा पिता वः ) तुम सब को ( अपनगृहस्य ) विपत्तिरहित गृह वाले पुरुष के सदसि ) गृह में ( सादयामि ) स्थापित करूं । तुम ( इद्राग्न्योः ) इन्द्र और अग्नि, इन्द्र= आचार्य और अग्नि =ज्ञानवान् गृहस्थ अथवा इन्द्र राजा शक्तिशाली पुरुष और ज्ञानवान् पुरुषों के ( भागधेयी: स्थ ) भाग, अर्थात् सेवन करने योग्य अंश को धारण करती हो अर्थात् उनके योग्य हो । अथवा उनके सेवन करने योग्य अन्न आदि के धारण करने हारी हो । ( मित्रा वरुणयोः भागधेयी: स्थ ) पिन, स्वरनेही पुरुष और वरुण, पापों से निवारण करने वालों के भागों या अन्नादि पदार्थों को धारण करने वाली हो । ( विश्वेषां देवानाम् ) समस्त देव, विद्वान पुरुषों के ( भाग- धेयीः स्थ ) भोग्य अन्न यादि पदार्थों को धारण करने वाली हो। और ऐसी हो, इन्द्र, आचार्य, अग्नि, ज्ञानवान् पुरुष, मित्रजन, पाप निवारक हितैषी, समस्त विद्वानों के लिये अन्नादि से उनका सत्कार करने वाली बनी रहो ॥ 
    ( याः ) जो गृहस्थ वधुएं ( सूर्ये) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष के (उप) समीप रहें और (याभिः सह ) जिनके साथ (सूर्यः) सूर्य जैसा तेजस्वी पुरुष निवास करे ( ताः ) वे (नः) हमारे ( अध्वरम् ) अजेय राष्ट्र की शक्ति को ( हिन्वन्ति ) बढ़ाने वाली हों || 
    राजा के पक्ष में- हे आप्त प्रजाओ ! तुमको ( अपन्नगृहस्य सदसि साद- यामि ) जिसका गृह अर्थात् वश करने की शक्ति कभी कष्ट नहीं होती ऐसे राजा के सदस् अर्थात् राजसभा में स्थापित करता हूं । आप सब इन्द्र राजा और अग्नि सेनापति दोनों के ( भागधेयीः ) प्राप्तव्य अंश को धारण करती हैं, इसी प्रकार मित्र, न्यायकर्त्ता और वरुण, दुष्टों के दमनकारी अधिकारियों के भी भागों को धारण करती हो । तुम समस्त ( देवानाम् ) राज्य शासकों के भागों को धारण करती हो। और जितनी आप्त प्रजाएं ( सूर्ये उप ) सूर्य समान तेजस्वी राजा के समीप उसके आश्रय हैं और जिनके साथ तेजस्वी राजा सदा विद्यमान है, वे प्रजाएं राष्ट्र की वृद्धि करती हैं । अर्थात् प्रजा राज्य के सब विभागों को धन आदि से पालन करे और उनका व्यय दे । राजा प्रजा परस्पर मिल कर रहें तो राष्ट्र की वृद्धि होती है॥ 
    शत० ३ । ९ । २ । १३ – १७ ॥
     

    टिप्पणी

     १अग्नेर्वो। २ अमूर्या। 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । (१) आर्षी त्रिष्टुप् । धैवतः । ( २ ) त्रिपाद् गायत्री षड्जः ॥

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    विषय

    अब गुरुपत्नी ब्रह्मचर्य के अनुकूल जो कन्याजन हैं उनको क्या-क्या उपदेश करें, यह वर्णन किया है॥

    भाषार्थ

    हे ब्रह्मचारिणियों ! जो (अमू:) ये तुम स्वयंवर विवाह को कर चुकी हो, सो तुम (इन्द्राग्न्योः) सूर्य और विद्युत् के गुणों को (भागधेयीः) पृथक्-पृथक् जानने वाली (स्थ) हो, (मित्रावरुणयोः) प्राण और उदान को (भागधेयीः) पृथक्पृथक् जानने वाली (स्थ) हो, (विश्वेषाम्) सब (देवानाम्) विद्वानों वा पृथिवी आदि को (भागधेयीः) पृथक्-पृथक् जानने वाली (स्थ) हो, उन (व:) तुम को (अपन्नगृहस्य) घर को अप्राप्त कुमार ब्रह्मचारी की (अग्ने) विद्या आदि गुणों से प्रकाशित सभ्यजन की (सदसि) बौद्धिक विषयों के रमण स्थान तथा अध्ययन-अध्यापन की हेतु सभा में मैं (सादयामि) स्थापित करता हूँ। जो ब्रह्मचारिणियाँ (उप-सूर्ये) सूर्य के गुणों से युक्त तेजस्विनी हैं अथवा जिनके साथ (सूर्यः) सूर्य के गुण वर्तमान हैं उन्हें (नः) हम (अध्वरम्) गृहाश्रम के कर्मों को सिद्ध करने वाले विवाह-यज्ञ को करके (हिन्वन्तु) प्रसन्न करें ॥ ६ । २४ ॥

    भावार्थ

    ब्रह्मचर्य धर्म का अनुसरण करने वाली कन्याओं का अविवाहित, अपने तुल्यगुण, कर्म, स्वभाव वाले पुरुषों के साथ ही विवाह करना योग्य है, इसलिये गुरु-पत्नियाँ ब्रह्मचारिणी कन्याओं को ऐसा ही उपदेश करें, केवल आपत्काल में विवाहित स्त्री-पुरुषों का नियोग हो सकता है; अन्यथा नहीं ॥ ६।२४।।

    प्रमाणार्थ

    (भागधेयी:) यह शब्द 'नामरूपभागेभ्यः स्वार्थे धेयः प्रत्ययः' (अ० ५।४।३६) भा० वार्त्तिक से 'धेय' प्रत्यय और 'केवलमामक०' (अ० ४।१।३०) इत्यादि सूत्र से 'ङीप्' प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है ॥ ६ । २४॥

    भाष्यसार

    गुरुपत्नियाँ ब्रह्मचारिणी कन्यानों को क्या-क्या उपदेश करें-- गुरुओं की पत्नियाँ ब्रह्मचारिणी कन्याओं को यह उपदेश करें कि हे ब्रह्मचारिणी कन्याओ! तुम स्वयंवर विवाह करो क्योंकि ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करने वाली कन्याओं को अविवाहित, अपने तुल्य गुण, कर्म, स्वभाव वाले पुरुषों के साथ विवाह करना योग्य है, केवल आपत्काल में ही विवाहित स्त्री-पुरुषों का नियोग हो सकता है; अन्यथा नहीं। हे ब्रह्मचारिणी कन्याओ! तुम सूर्य और विद्युत् के गुणों को पृथक-पृथक् जानने वाली हो, तुम प्राण और उदान के भेद को जानने वाली हो। सब विद्वानों तथा पृथिवी आदि के भेद जानने वाली हो। इसलिये मैं तुम्हें घर को अप्राप्त कुमार ब्रह्मचारी जो विद्यादि गुणों से प्रकाशित सभ्य है उसकी सभा में स्थापित करती हूँ। जो ब्रह्मचारिणी कन्यायें सूर्य के तेज आदि गुणों से तेजस्विनी हैं, जिनके साथ सूर्य विद्यमान है अर्थात् जो विद्यादि प्रकाश और तेज आदि से विभूषित हैं, वे विवाह संस्कारपूर्वक अपने तुल्य वरों को प्राप्त करके उन्हें प्रसन्न करें।। ६। २४ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ब्रह्मचर्य पालन करणाऱ्या कन्यांनी आपल्यासारख्याच गुणकर्म स्वभावाच्या पुरुषांबरोबर विवाह करावा व गुरुपत्नी विदुषी स्त्रियांनी ब्रह्मचारिणींना असा उपदेश करावा की, ज्यायोगे त्यांनी आपल्याला पसंत असलेल्या पुरुषांबरोबर विवाह करून सदैव सुखी व्हावे. ज्याची पत्नी वारलेली असेल किंवा ज्या स्त्रीचा पती मरण पावलेला असेल व ज्यांना संतानाची इच्छा असेल तर त्यांनी नियोग करावा; परंतु व्यभिचार इत्यादी कर्म करू नयेत.

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    विषय

    ब्रह्मचर्य धारणासाठी गुरुपत्नीने आपल्या कन्यांना कसा व कोणकोणता उपदेश करावा, पुढील मंत्रात याविषयी सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (गुरुपत्नी शिष्यागणांना म्हणत आहे) हे ब्रह्मचारिणी कन्यांनो, (अमूः) त्या (याः) ज्या अशा स्त्रिया आहेत की ज्यांनी स्वयंवरविवाह-पद्धतीने आपले पती निवडले आहेत, तसेच ज्या स्त्रिया (इन्द्राग्न्योः) सूर्याच्या आणि विद्युतेच्या गुणांना (भागधेयीः) वेगवेगळे करून जाणणार्‍या (स्थ) आहेत, (विवेषाम्) विदुषी असून पृथ्वी आदी पदार्थांचा उपभोग घेणार्‍या (स्थ आहेत, त्या तशा विदुषी स्त्रियांचा सभेत (वः) तुम्हा ब्रह्मचारिणी कन्यांना (अपन्नगृहस्य) मी तुमची आचार्य वा गुरुपत्नी अविवाहित व धर्मानुष्ठान करणार्‍या (अग्ने) ब्रह्मचारी युवकांच्या (सदसि) सभेत (सादयामि) स्थापित करते (स्वयंवराकरिता नेत आहे) (वा) अथवा (याभिः) ज्या स्त्रिया (सह) माझ्याप्रमाणे (सूर्यः) सूर्यलोकाच्या गुणांना जाणण्यात अतिकुशल आहेत, (त्वः) त्या अनुभवी विवाहिता गृहिणी स्त्रिया (नः) आमच्या (अध्वरम्) गृहकार्याविषयी (हिन्वनतु सहाय्य करणार्‍या असाव्यात. (तुमचे व माझे मार्गदर्शन करणार्‍या असाव्यात) ॥24॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ब्रह्मचर्य-धर्माचे पालन केलेल्या युवती कन्या, अविवाहित, ब्रह्मचारी आणि गुण, कर्म व स्वभावाने आपल्या अनुरूप अशा पुरुषाशी विवाह करण्यास पात्र असतात. गुरुजनांच्या पत्नींनी त्या कन्यांना असाच उपदेश करावा. यामुळे त्या कन्या आपल्याशी समान गुण कर्म स्वभाव असलेल्या पुरुषाशी विवाह करून सदा सुखी राहतील. (या मंत्रातील दुसरा भावार्थ असा की) ज्या स्त्रीच्या पतीचे निधन झाले असेल अथवा ज्या पतीची पत्नी मेली असेल (आणि त्या स्त्रीस वा त्या पुरुषास) संतानप्राप्तीची कामना असेल, तर त्यांनी नियोग करावा, पण व्यभिचारादी कुकर्म कदापी करूं नये. ॥24॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O virgins, I set ye down in the assembly of learned bachelors. Ye are cognisant of the diverse qualities of sun and lighting, ye know fully well the science of the control of breath, ye can make selection of learned husbands. Those of you, who after marriage live with husbands brilliant like the sun, and with you whom, live brilliant husbands, should both advance our domestic dealings.

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    Meaning

    Brahmacharini/s, unmarried graduates, I settle you in the home/s (refined and cultured with education and learning) of the unmarried graduate/s bright as Agni in marriage according to your own choice. You know the virtues and advantages of sun and fire. You know the properties of prana and udana (forms of pranic energy). You know the nature and learning of the scholars and you know the properties of the powers of nature such as earth and others. Be partners in their blessings in your life. And those who imbibe the virtues of the sun and whom the light and life of the sun has already blessed, we invite to grace this marital yajna of ours.

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    Translation

    I set you down in the place of fire, whose home is indestructible. (1) You are the share of the Lord resplendent and adorable. (2) You are the share of the Lord friendly and venerable. (3) You are the share of all the bounties of Nature. (4) May the waters, which are in the sun or those accompanying the sun, make our sacrifice pleasing. (5)

    Notes

    According to the ritualists, in this mantra the Soma plant is addressed.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ গুরুপত্ন্যো ব্রহ্মচর্য়মনুবর্তিনীঃ কন্যাঃ কিং কিমুপদিশেয়ুরিত্যাহ ॥
    এখন গুরুপত্নী ব্রহ্মচর্য্যের অনুবর্ত্তিনী কন্যাদিগকে কী কী উপদেশ করিবেন, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে ব্রহ্মচারিণী কন্যাসকল ! (অমূ) তাহারা (য়াঃ) যাহারা স্বয়ম্বর বিবাহ দ্বারা পতিদেরকে স্বীকার করিয়াছে তাহাদের সমান যাহারা (ইন্দ্রাগ্ন্যোঃ) সূর্য্য ও বিদ্যুতের গুণকে (ভাগধেয়ীঃ) পৃথক পৃথক ভাবে জ্ঞাত (স্থ) হয়, (মিত্রাবরুণয়োঃ) প্রাণ ও উদানের গুণসমূহকে (ভাগধেয়ীঃ) পৃথক পৃথক জ্ঞাতা (স্থ) (বিশ্বেষাম্) বিদ্বান্ ও পৃথিবী ইত্যাদি পদার্থগুলির (ভাগধেয়ীঃ) সেবনকারিণী হয়, সেই (বঃ) তোমাদের সকলকে (অপন্ন গৃহস্য) যাহাদের গৃহকৃত্য প্রাপ্ত হয় নাই, সেই ব্রহ্মচর্য্য ধর্মানুষ্ঠানকারী এবং (অগ্নেঃ) সকল বিদ্যাদি গুণ দ্বারা প্রকাশিত উত্তম ব্রহ্মচারীর (সদসি) সভায় আমি (সাদয়ামি) স্থাপিত করি এবং যাহারা (য়াঃ) (উপ) (সূর্যে) সূর্য্যলোক গুণে (উপ) উপস্থিত হয় (বা) অথবা (য়াভিঃ) যাহাদের (সহ) সহিত (সূর্য়) সূর্য্যলোক বর্ত্তমান যাহারা সূর্য্যের গুণে অত্যন্ত চতুর । (তাঃ) তাহারা সবাই (নঃ) আমাদিগের (অধ্বরম্) গৃহের কর্মাদিকে বিবাহ করিয়া (হিন্বন্তু) বৃদ্ধি করিবে ॥ ২৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- ব্রহ্মচর্য্য ধর্ম পালনকারিণী কন্যাসকলের অবিবাহিত ব্রহ্মচারী এবং স্বীয় তুল্য গুণ-কর্ম-স্বভাবযুক্ত পুরুষদিগের সহিত বিবাহ করিবার যোগ্যতা আছে এই হেতু গুরুজনদের স্ত্রী সকল ব্রহ্মচারিণী কন্যাসকলকে সেইরূপই উপদেশ করিবে যাহাতে তাহারা স্বীয় প্রসন্নতার তুল্য পুরুষদিগের সহিত বিবাহ করিয়া সর্বদা সুখী থাকে এবং যাহার পতি অথবা যাহার স্ত্রী মৃত্যু প্রাপ্ত হয় এবং সন্তানের ইচ্ছা হয় তাহারা দুইজন নিয়োগ করিবে অন্য ব্যভিচারাদি কর্ম কখনও করিবে না ॥ ২৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒গ্নের্বোऽপ॑ন্নগৃহস্য॒ সদ॑সি সাদয়ামীন্দ্রা॒গ্ন্যোর্ভা॑গ॒ধেয়ী॑ স্থ মি॒ত্রাবরু॑ণয়োর্ভাগ॒ধেয়ী॑ স্থ॒ বিশ্বে॑ষাং দে॒বানাং॑ ভাগ॒ধেয়ী॑ স্থ । অ॒মূর্য়াऽউপ॒ সূর্য়ে॒ য়াভি॒॑র্বা॒ সূর্য়ঃ॑ স॒হ । তা নো॑ হিন্বন্ত্বধ্ব॒রম্ ॥ ২৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অগ্নের্ব ইত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । লিঙ্গোক্তা দেবতা । আর্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ । অমূর্য়্যা ইত্যস্য নিচৃৎ ত্রিপাদ্ গায়ত্রী ছন্দঃ । ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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