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यजुर्वेद अध्याय - 6

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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 30
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - स्वराट् आर्षी पङ्क्ति,भूरिक् आर्ची पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
    122

    दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ताभ्याम्। आद॑दे॒ रावा॑सि गभी॒रमि॒मम॑ध्व॒रं कृ॑धीन्द्रा॑य सु॒षूत॑मम्। उ॒त्त॒मेन॑ प॒विनोर्ज॑स्वन्तं॒ मधु॑मन्तं॒ पय॑स्वन्तं निग्रा॒भ्या स्थ देव॒श्रुत॑स्त॒र्पय॑त मा॒॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। आ। द॒दे॒। रावा॑। अ॒सि॒। ग॒भी॒रम्। इ॒मम्। अ॒ध्व॒रम्। कृ॒धि॒। इन्द्रा॑य। सु॒षूत॑मम्। सु॒सूत॑मा॒मिति॑ सु॒ऽसूत॑मम्। उ॒त्त॒मेनेत्यु॑त्ऽत॒मेन॑। प॒विना॑। ऊर्ज्ज॑स्वन्तम्। मधु॑मन्त॒मिति॒ मधु॑ऽमन्तम्। पय॑स्वन्तम्। निग्रा॒भ्या᳖ इति॑ निऽग्रा॒भ्याः᳖ स्थ॒। दे॒व॒ऽश्रुत॒ इति देव॒श्रु॒तः॑। त॒र्पय॑त। मा॒ ॥३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवस्य त्वा सवितुः प्रसवे श्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् । आददे रावासि गभीरमिममध्वरङ्कृधीन्द्राय सुषूतमम् । उत्तमेन पविनोर्जस्वन्तम्मधुमन्तम्पयस्वन्तम् । निग्राभ्या स्थ देवश्रुतस्तर्पयत मा मनो मे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। आ। ददे। रावा। असि। गभीरम्। इमम्। अध्वरम्। कृधि। इन्द्राय। सुषूतमम्। सुसूतमामिति सुऽसूतमम्। उत्तमेनेत्युत्ऽतमेन। पविना। ऊर्ज्जस्वन्तम्। मधुमन्तमिति मधुऽमन्तम्। पयस्वन्तम्। निग्राभ्या इति निऽग्राभ्याः स्थ। देवऽश्रुत इति देवश्रुतः। तर्पयत। मा॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 30
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ सभापतिः करधनप्रदं प्रजापुरुषं कथं स्वीकुर्य्यादित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे प्रजाजन! अहं देवस्य सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां त्वामाददे, त्वमिन्द्राय मह्यमुत्तमेन पविना वचसेमं गभीरं सुषूतममूर्जस्वन्तं कारदायमध्वरं कृधि। हे देवश्रुतः प्रजा यूयं निग्राभ्या मया नितरां ग्रहीतुं योग्याः स्थ, मा मामनेन तर्प्पयत॥३०॥

    पदार्थः

    (देवस्य) सर्वसुखप्रदातुः (त्वा) त्वां करधनदातारम् (सवितुः) सकलैश्वर्य्यस्य प्रसवितुर्जगदीश्वरस्य (प्रसवे) प्रसूते जगति (अश्विनोः) सूर्य्याचन्द्रमसोः (बाहुभ्याम्) बलवीर्य्याभ्याम् (पूष्णः) सोमाद्योषधिगणस्य (हस्ताभ्याम्) रोगनाशकधातुसाम्यकारकाभ्यां गुणाभ्याम् (आददे) गृह्णामि (रावा) दाता (असि) (गभीरम्) अगाधगुणम् (इमम्) प्रत्यक्षम् (अध्वरम्) निष्कौटिल्यम् (कृधि) कुरु (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते मह्यम् (सुषूतमम्) सुष्ठु सूते तम् (उत्तमेन) प्रशस्तेनेव (पविना) वाचा। पविरिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰१।११) (ऊर्जस्वन्तम्) उत्तमपराक्रमसम्बधिनम् (मधुमन्तम्) प्रशस्तमध्वादिपदार्थयुक्तम् (पयस्वन्तम्) बहुदुग्धादिमन्तम् (निग्राभ्याः) नितरां ग्रहीतुं योग्याः (स्थ) भवथ (देवश्रुतः) या देवान् शृण्वन्ति ताः (तर्पयत) प्रीणीत (मा) माम्॥ अयं मन्त्रः शतः ३। ९। ४। ३-६) व्याख्यातः॥३०॥

    भावार्थः

    प्रजाजनां योग्यतास्ति राजानमागत्य तस्मै सर्वेषां स्वकीयपदार्थानां यथायोग्यमंशभागी भवतीति॥३०॥

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    विषयः

    अथ सभापतिः करधनप्रदं प्रजापुरुषं कथं स्वीकुर्य्यादित्युपदिश्यते।।

    सपदार्थान्वयः

    हे प्रजाजन! अहं देवस्य सर्वसुखप्रदातुः सवितुः सकलैश्वर्य्यस्य प्रसवितुर्जगदीश्वरस्य प्रसवे प्रसूते जगति अश्विनोः सूर्य्याचन्द्रमसोः बाहुभ्यां बलवीर्य्याभ्यां पूष्णः सोमाद्योषधिगणस्य हस्ताभ्यां रोगनाशकधातुसाम्यकारकाभ्यां गुणाभ्यां [त्वा]=त्वाम् आ+ददेगृह्णामि। त्वं [रावा] दाता [असि], इन्द्राय मह्यं परमैश्वर्य्यवते मह्यम् उत्तमेन प्रशस्तेनेवपविना=वचसा वाचा इमं प्रत्यक्षं गभीरम् अगाधगुणंसुषूतमं सुष्ठु सूते तम्, ऊर्ज्जस्वन्तम् उत्तमपराक्रमसम्बन्धिनं [मधुमन्तम्] प्रशस्तमध्वादिपदार्थयुक्तं [पयस्वन्तम्] बहुदुग्धादिमन्तं करदायमध्वरं निष्कौटिल्यं कृधि कुरु। हे देवश्रुतः या देवान् शृण्वन्ति ताः प्रजाः! यूयं निग्राभ्या:=मया नितरां ग्रहीतुं योग्याः नितरां ग्रहीतुं योग्याः स्थ भवथ। मा=मामनेन तर्पयत प्रीणीत ।। ६ । ३० ।। [हे प्रजाजन! अहं .......[त्वा]=त्वामाददे। त्वं.......इन्द्राय मह्यंकरदायमध्वरं कृधि,....हे देवश्रुतः प्रजाः। यूयं.....मामनेन तर्पयत]

    पदार्थः

    (देवस्य) सर्वसुखप्रदातुः (त्वा) त्वां करधनदातारम् (सवितुः) सकलैश्वर्य्यस्य प्रसवितुर्जगदीश्वरस्य (प्रसवे) प्रसूते जगति (अश्विनोः) सूर्य्याचन्द्रमसो: (बाहुभ्याम्) बलवीर्य्याभ्याम् (पूष्ण:) सोमाद्योषधिगणस्य (हस्ताभ्याम्) रोगनाशकधातुसाम्यकारकाभ्यां गुणाभ्याम् (आददे) गृह्णामि (रावा) दाता (असि) (गभीरम्) अगाधगुणम् (इमम्) प्रत्यक्षम् (अध्वरम्) निष्कौटिल्यम् (कृधि) कुरु (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते मह्यम् (सुषूतमम्) सुष्ठु सूते तम् (उत्तमेन) प्रशस्तेनेव (पविना) वाचा। पविरिति वाङ्नामसु पठितम् ॥ निघं० १ । ११॥ (ऊर्जस्वन्तम्) उत्तमपराक्रमसम्बन्धिनम् (मधुमन्तम्) प्रशस्तमध्वादिपदार्थयुक्तम् (पयस्वन्तम्) बहुदुग्धादिमन्तम् (निग्राभ्याः) नितरां ग्रहीतुं योग्याः (स्थ) भवथ (देवश्रुतः) ता देवान् शृण्वन्ति ताः (तर्पयत) प्रीणीत (मा) माम् ॥ अयं मन्त्रः शत. ३।९।४ । ३–६ व्याख्यातः ॥ ३०॥

    भावार्थः

    प्रजाजनानां योग्यतास्तिराजानमागत्य तस्मै सर्वेषां स्वकीयपदार्थानां यथायोग्यमंशं दद्युर्यतः स भूमिगतपदार्थानामंशभागी भवतीति ।। ६ । ३०।।

    विशेषः

    मधुच्छन्दा:। सविता=जगदीश्वरः। स्वराडार्षी पंक्तिः। उत्तमेनेत्यस्य निचृदार्ष्यनुष्टुप्।गान्धारः। पञ्चमः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब सभापति कर-धन देने वाले प्रजाजनों को कैसे स्वीकार करे, यह अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    सब सुख देने (सवितुः) और समस्त ऐश्वर्य्य के उत्पन्न करने वाले जगदीश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए संसार में (अश्विनोः) सूर्य और चन्द्रमा के (बाहुभ्याम्) बल और पराक्रम गुणों से (पूष्णः) पुष्टि करने वाले सोम आदि ओषधिगण के (हस्ताभ्याम्) रोगनाश करने और धातुओं की समता रखने वाले गुणों से (त्वा) तुझ कर-धन देने वाले को (आददे) स्वीकार करता हूं। तू (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य वाले मेरे लिये (उत्तमेन) उत्तम अर्थात् सभ्यता की (पविना) वाणी से (इमम्) इस (गभीरम्) अत्यन्त समझने योग्य (सुषूतमम्) सब पदार्थों से उत्पन्न हुए (ऊर्जस्वन्तम्) राज्य को बलिष्ठ करने वाले (मधुमन्तम्) समस्त मधु आदि श्रेष्ठ पदार्थयुक्त (पयस्वन्तम्) दुग्ध आदि सहित कर-धन को (अध्वरम्) निष्कपट (कृधि) कर दे, (देवश्रुतः) श्रेष्ठ राज्य-गुणों को सुनने वाले तुम मेरे (निग्राभ्यः) निरन्तर स्वीकार करने के योग्य (स्थ) हो (मा) मुझे इस कर के देने से (तर्प्पयत) तृप्त करो॥३०॥

    भावार्थ

    प्रजाजनों की योग्यता है कि सभाध्यक्ष को प्राप्त होकर उस के लिये अपने समस्त पदार्थों से यथायोग्य भाग दें, जिस कारण राजा, प्रजापालन के लिये संसार में उत्पन्न हुआ है, इसी से राज्य करने वाला यह राजा संसार के पदार्थों का अंश लेने वाला होता है॥३०॥

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    विषय

    राज्य की दृढ़ता

    पदार्थ

    राजा प्रजा से कहता है कि १. मैं ( त्वा ) = तुझे ( सवितुः देवस्य ) = प्रेरक प्रभु की ( प्रसवे ) =  अनुज्ञा में ( आददे ) = स्वीकार करता हूँ। प्रभु ने वेदवाणी में जिस प्रकार राजा के लिए लिखा है कि विशो मे अङ्गानि सर्वतः = प्रजाएँ मेरे सब ओर होनेवाले अङ्ग हैं, अतः मुझे प्रजाएँ अपने अङ्गों की भाँति प्रिय हैं। 

    २. ( अश्विनोर्बाहुभ्याम् ) = सूर्य और चन्द्रमा के प्रयत्नों से मैं प्रजाओं का स्वीकार करता हूँ। सूर्य जिस प्रकार अन्धकार को दूर कर देता है उसी प्रकार मैं राष्ट्र में शिक्षा की उत्तम व्यवस्था से अविद्यान्धकार को दूर करने का प्रयत्न करता हूँ। जिस प्रकार चन्द्र आह्लाद का कारण होता है [ चदि आह्लादे ] उसी प्रकार मैं क्रीड़ा व स्नान के लिए तालाब व उद्यानादि की उत्तम व्यवस्थाओं से प्रजा की प्रसन्नता का कारण बनता हूँ। 

    ३. ( पूष्णः हस्ताभ्याम् ) = पूषा के हाथों से मैं तेरा ग्रहण करता हूँ, अर्थात् प्रत्येक कार्य में मेरा उद्देश्य प्रजा का पोषण ही होता है। 

    ४. ( रावा असि ) = हे प्रजे! तू मुझे खूब कर देनेवाली है। प्रसन्नतापूर्वक कर देकर तू ( इमम् ) = इस ( अध्वरम् ) = राष्ट्रयज्ञ को ( गभीरम् ) = खूब गहरा ( कृधि ) = कर दे—इसकी नींवें बड़ी गहरी हों। यह दृढ़ नींव पर स्थित हो। 

    ५. ( इन्द्राय ) =  राष्ट्र के अध्यक्ष के लिए अथवा राष्ट्र की जितेन्द्रिय प्रजाओं के लिए ( सुषूतमम् ) = [ सुष्ठु सूते ] राष्ट्र को उत्तमोत्तम पदार्थों को उत्पन्न करनेवाला बनाओ। 

    ६. ( उत्तमेन ) = अत्यन्त उत्कृष्ट ( पविना ) = वज्र से, शस्त्रास्त्रों से ( ऊर्जस्वन्तम् ) = इस राष्ट्र को सबल बनाओ। ( मधुमन्तम् ) = यह राष्ट्र माधुर्यवाला हो। बल के साथ ही माधुर्य का निवास होता है, निर्बलता के साथ चिड़चिड़ेपन का। ( पयस्वन्तम् ) = तुम इस राष्ट्र को पयस्वाला बनाओ। प्रजा के आप्यायन के लिए सब आवश्यक वस्तुएँ इस राष्ट्र में हों। 

    ७. राजा कहता है कि ( निग्राभ्याः स्थ ) = हे प्रजाओ! तुम नियन्त्रण में रखने योग्य होओ। तुम्हारा जीवन राष्ट्र के नियमों का पालन करने के झुकाववाला हो। ( देवश्रुतः ) = तुम विद्वानों से उत्तम ज्ञान की चर्चाओं को सुननेवाले बनो। ऐसे बनकर ( मा तर्पयत ) = मुझे प्रीणित करो। मैं तुम्हारी स्थिति को देखकर अपने में एक आनन्द का अनुभव करूँ। जैसे पिता पुत्र की उत्तम स्थिति को देखकर प्रसन्न होता है, उसी प्रकार मैं प्रजा की उन्नति से तृप्ति का अनुभव करूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ — राजा वेदानुकूल प्रजाओं का शासन करे। प्रजा उचित ‘कर’ देकर राष्ट्र की नींव को दृढ़ करे। राष्ट्र अन्य उन्नतियों के साथ शत्रु के आक्रमण से सुरक्षा के लिए उत्तम शस्त्रों से सुसज्जित हो। राष्ट्र में माधुर्य हो, आप्यायन हो। प्रजाएँ नियन्त्रित जीवनवाली व ज्ञान की रुचिवाली हों।

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    विषय

    प्रजाजनों का कर्तव्य।

    भावार्थ

    हे सेना समूह से सम्पन्न राजन् ! मैं ( सवितुः देवस्य ) सर्वोत्पादक सर्वप्रेरक परमेश्वर के ( प्रसवे ) राज्य शासन में ( अश्विनो ) सूर्य चन्द्रमा दोनों के ( बाहुभ्याम्) शान्तिदायक और संतापकारी सामर्थ्यों द्वारा और (पूष्णः ) पुष्टिकारक अन्न के ( हस्ताभ्यान् ) मधुर एवं गुणों द्वारा (आददे) तुझे ग्रहण करता हूं । तू (रावा असि ) समस्त पदार्थों का प्रदान करनेहारा है | ( इमम् अध्वरम् ) इस राष्ट्ररूप यज्ञ को ( गभीरम् ) गम्भीर, समुद्र के समान गम्भीर अगाध ऐश्वर्ववान् और ( इन्द्राय सूसूत- मम् ) इन्द, परमैश्वर्यवान् राजा के लिये खूब ऐश्वर्य बल एवं शक्ति के उत्पन्न करनेवाला ( उत्तमेन पविना ) उत्कृष्ट पवित्र अर्थात् वज्रस्वरूप, शस्त्रों के राजवल से इस यज्ञ को ( ऊर्जस्वम्तम् ) उत्तम बलयुक्त ( मधु- मन्तम् ) अन्नादि खाद्य पदार्थों से समृद्ध ( पयस्वन्तम् ) दूध आदि पुष्टि - कारक पदार्थ और गाय बैल आदि पशुओं से सम्पन्न ( कृधि ) बना। 
     हे प्रजाजनो ! आप लोग ( निग्राभ्या: स्थ ) मुझ राजा से राज्य- व्यवस्था द्वारा वश करने योग्य हैं। आप लोग ( देवश्रुत: ) देव अर्थात् राजा और विद्वान पुरुषों की आज्ञा और उपदेश के श्रवण करने वाली हो । अतः मैं राजा तुम्हें आज्ञा देता हूं कि ( मा तपर्यंत ) मुझे कर आदि द्वारा तृप्त करो, संतुष्ट करो ॥

    टिप्पणी

     ३०--रावा इत्यस्य ग्रावा, निग्राभ्या इत्यादि मन्त्रस्य आपो देवताः । सर्वा० ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सविता देवता । स्वराडार्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥ 

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    विषय

    अब सभापति कर-धन देने वाले प्रजाजनों को कैसे स्वीकार करे यह गुरुजन का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है॥

    भाषार्थ

    हे प्रजा-जन! मैं ( देवस्य) सकल सुखदाता (सवितुः) सकल ऐश्वर्य के उत्पन्न करने वाले जगदीश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न जगत् में (अश्विनोः) सूर्य और चन्द्रमा के (बाहुभ्याम्) बल और वीर्य से तथा (पूष्णः) सोम आदि औषधियों के (हस्ताभ्याम्) रोगनाशक एवं धातु साम्यकारक गुणों से [त्वा] तुझे (आददे) स्वीकार करता हूँ। तू [रावा] दाता [असि] है। मुझ(इन्द्राय) परम ऐश्वर्यवान् के लिये (उत्तमेन) श्रेष्ठ (पविना) वचन से (इमम्) इस (गभीरम्) अगाध गुण वाले (सुषूतमम्) उत्तम सुख को उत्पन्न करने वाले (ऊर्जस्वन्तम्) उत्तम पराक्रम वाले [मधुमन्तम्] श्रेष्ठ मधु आदि पदार्थों से युक्त [पयस्वन्तम्] बहुत दूध आदि पदार्थों वाले कर को (अध्वरम्) कुटिलता रहित (कृधि) कर। हे (देवश्रुतः) विद्वानों के उपदेश को ग्रहण करने वाले प्रजा-जनो! तुम (निग्राभ्याः) मुझ से अत्यन्त स्वीकार करने योग्य (स्थ) हो। (मा) मुझे इस कर-प्रदान से (तर्प्पयत) तृप्त करो ॥ ६ । ३० ॥

    भावार्थ

    प्रजा-जनों को योग्य है कि वे राजा के समीप आकर अपने सब पदार्थों का यथायोग्य भाग उसे प्रदान करें क्योंकि वह भूमि में उत्पन्न होने वाले पदार्थों का अंशभागी होता है।। ६।३०।।

    प्रमाणार्थ

    (पविना) 'पवि' शब्द निघं० (१। ११) में वाणी-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।९।४।३-६) में की गई है।। ६। ३०।।

    भाष्यसार

    राजा कर देने वाले पुरुषों को कैसे स्वीकार करें-- सभापति राजा से कहता है कि हे प्रजा-जनो! मैं सब सुखों के दाता, सकल ऐश्वर्य को उत्पन्न करने वाले जगदीश्वर की इस सृष्टि में सूर्य और चन्द्रमा के बल-वीर्य से, सोम आदि औषधियों के रोगनाशक तथा धातुओं को सम रखने वाले गुणों से तुम्हें स्वीकार करता हूँ। अर्थात् मैं तुम्हें सूर्य और चन्द्रमा के समान बल और वीर्य से युक्त करता हूँ तथा औषधियों के उत्पादन तथा सेवन से तुम्हें रोग रहित रखता हूँ। तुम अपने सब पदार्थों में से, यथायोग्य भाग देने वाले हो इसलिये मुझे परम ऐश्वर्य सम्पन्न बनाने के लिये तुम उत्तम वाणी से, अगाध गुण वाले, उत्तम सुख को उत्पन्न करने वाले, उत्तम पराक्रम वाले, मधु और दुग्ध आदि के हेतु कर-धन को कुटिलता रहित होकर प्रदान करो। विद्वानों के उपदेश को मानने वाले उक्त प्रजा-जनों को राजा कर-प्रदान से सर्वथा स्वीकार करे तथा प्रजा-जन उसे कर-धन देकर तृप्त रखें क्योंकि राजा भूमि-आदि में उत्पन्न पदार्थों का अंशभागी होता है।। ६। ३०।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    प्रजेने राजाला आपल्या संपत्तीचा यथायोग्य भाग द्यावा. कारण राजा हा प्रजेचा पालनकर्ता असतो. त्यासाठी तो राज्यातील वस्तूंवर कर बसवू शकतो.

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    विषय

    आता राज्याचा कर भरणाऱ्या प्रजाजनांशी सभाध्यक्षाने (राष्ट्राध्यक्ष वा शासकीय अधिकार्‍यांनी) कसे वागावे, याविषयी गुरूजनांनी सभाध्यक्षास काय उपदेश केला, तो पुढील मंत्रात सांगितला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (हे करदाता नागरिक), मी (सभाध्यक्ष) (देवस्य) सर्वसुखदाता आणि (सवितुः) समस्त ऐश्वर्यप्रदाता परमेश्‍वराने (प्रसवे) उत्पन्न केलेल्या या संसारात (अश्‍विनोः) सूर्य आणि पुष्टिकारक सोम आदी औषधींच्या (हस्ताभ्याम्) रोगनाशक आणि शक्तिवर्धक गुणांनी (त्वा) तुला म्हणजे शासनास कर देणार्‍या नागरिकाला (आददे) स्वीकार करीत आहे (तू कर देतोस म्हणून तुझ्या रक्षणाची व आरोग्यरक्षणाची जबाबदारी स्वीकारत आहे) तू (इन्द्राय) परमैश्‍वर्यशाली अशा माझ्यासाठी (उत्तमेन) उत्तम म्हणजे सभ्य अशा (पविना) वाणीने (इमम्) या (गभीरम्) गंभीर (सपूतमम्) पदार्थांपासून उत्पन्न आणि (ऊर्जस्वन्तम्) राज्याला अधिकाधिक बलशाली करण्यासाठी (मधुमन्तम्) मधुर, उपयोगी व श्रेष्ठ पदार्थांनी युक्त कर. (पयस्वन्तम्) दूध आदी पदार्थासहित कर-धन देत या (अध्वरम्) (राष्ट्रयज्ञाला) निर्विघ्न व निष्कपट (कृधि) कर (राष्ट्राचा नागरिक म्हणून राष्ट्राच्या बल, अन्न-धान्याची समृद्दी, कर भरणे आदी कर्त्तव्याचे पालन कर) हे नागरिक हो, (देवश्रुतः) राष्ट्राच्या गुणांचे व उत्कर्षाचे वर्णन ऐकणारे तुम्ही सर्व जण माझ्यासाठी (निग्राभ्यः) नेहमी स्वीकार्य व रक्षणीय रहाल. (तुमच्या रक्षण-पालनाची जबाबदारी मी स्वीकारत आहे) ॥30॥

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रजाजनांचे हे आद्य कर्त्तव्य आहे की त्यांनी सभाध्यक्षाविषयी (आपल्या राष्ट्राविषयी) योग्य कर्त्तव्यांची जाणीव ठेऊन आपल्या पदार्थांपैकी (संपत्तीपैकी) यथोचित भाग कररूपाने राज्यास अवश्य द्यावा, कारण की राजा हा प्रजेचे पालन करण्यासाठीच या संसारात उत्पन्न झालेला आहे (असतो) या पालनकर्माच्या पूर्ततेकरिताच भाग राजाला जगातील व राज्यातील पदार्थांचा थोडा अंश वा यथोचित भाग घेण्याचा अधिकार असतो ॥30॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O my subjects, in this world created by God, the Giver of happiness and the Source of all splendour, I receive ye with the strength and coolness of the sun and moon, and the disease-killing, and bodily humours equilibrium maintaining qualities of the herbs. For me full of splendour, in a civilised manner, pay open-heartedly the tax which is highly useful, is levied on all your products, which conduces to efficient administration, which is utilized for the advancement of industries and improving the cattle breed. O my subjects, ye who take interest in the welfare of your king, deserve to be welcomed by me. Please me by paying your taxes.

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    Meaning

    In this world of Lord Savita’s creation, with both the arms of Ashvinis (power and vitality of sun and moon) and with both the hands of Pusha (the nourishing virtues of mother earth’s herbs), I accept you. You are the giver. In the service of Indra, lord and ruler of this land, with the best and most graceful words of piety, enrich and expand this non-violent social yajna of love and good fellowship, so deep and full with blessings, so generous with milk and honey, health and energy and the joy of life. You have heard the words of the wise. Worthy you are of acceptance and welcome. Come and give me the pleasure of fulfilment.

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    Translation

    At the impulsion of the creator God, I take you with the arms of the healers and with the hands of the nourisher. (1) You are the great donor. Make this solemi. sacrifice most pleasing to the resplendent Lord. With the finest speech make it full of vigour, full of honey and full of milk. (2) You are the most acceptable and cared for by the enlightened ones. Grant me full satisfaction. (3)

    Notes

    Rava, राति ददाति इति रावा, donor. Susutamam, most pleasing. Pavina, वाचा, with the speech. Nigrabhyah, most acceptable.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ সভাপতিঃ করধনপ্রদং প্রজাপুরুষং কথং স্বীকুর্য়্যাদিত্যুপদিশ্যতে ॥
    এখন সভাপতি কর-ধন প্রদানকারী প্রজাগণকে কীভাবে স্বীকার করিবেন, এই গুরুজনের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- সর্ব সুখ দাতা (সবিতুঃ) এবং সমস্ত ঐশ্বর্য্য উৎপন্নকারী জগদীশ্বরের (প্রসবে) উৎপন্ন কৃত সংসারে (অশ্বিনোঃ) সূর্য়্য ও চন্দ্রমার (বাহুভ্যাম্) বল ও পরাক্রম গুণ দ্বারা (পূষ্ণঃ) পুষ্টিকারী সোমাদি ওষধিগণের (হস্তাভ্যাম্) রোগনাশকারক এবং ধাতু সকলের সমতা রক্ষাকারী গুণ দ্বারা (ত্বা) কর-ধন প্রদাতা তোমাদেরকে (আদদে) স্বীকার করি । তুমি (ইন্দ্রায়) পরম ঐশ্বর্য্য যুক্ত আমার জন্য (উত্তমেন) উত্তম অর্থাৎ সভ্যতার (পবিনা) বাণী দ্বারা (ইমম্) এই (গভীরম্) অত্যন্ত বুঝিবার যোগ্য (সুপূত মম্) সকল পদার্থ হইতে উৎপন্ন (ঊর্জ স্বন্তম্) রাজ্যকে বলিষ্ঠকারী (মধুমন্তম্) সমস্ত মধু ইত্যাদি শ্রেষ্ঠ পদার্থ যুক্ত (পয়স্বন্তম্) দুগ্ধাদি সহিত করধনকে (অধ্বরম্) নিষ্কপট (কৃধি) করিয়া দিবে, (দেবশ্রুতঃ) শ্রেষ্ঠ রাজ্য গুণ শ্রবণকারী তোমরা আমার পক্ষে (নিগ্রাভ্যঃ) নিরন্তর স্বীকার করিবার যোগ্য (স্থ) হও, (মা) আমাকে এই কর প্রদানে (তর্প্পয়ত) তৃপ্ত কর ॥ ৩০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- প্রজাগণের উচিত যে, সভাধ্যক্ষকে প্রাপ্ত হইয়া তাহার জন্য নিজের সমস্ত পদার্থ হইতে যথাযোগ্য অংশ দিবে, যে কারণে রাজা, প্রজাপালন হেতু সংসারে উৎপন্ন হইয়াছে এই জন্য রাজ্য করিবার এই রাজা সংসারের পদার্থের অংশ গ্রহণকারী হইয়া থাকে ॥ ৩০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দে॒বস্য॑ ত্বা সবি॒তুঃ প্র॑স॒বে᳕ऽশ্বিনো॑র্বা॒হুভ্যাং॑ পূ॒ষ্ণো হস্তা॑ভ্যাম্ । আদ॑দে॒ রাবা॑সি গভী॒রমি॒মম॑ধ্ব॒রং কৃ॑ধীন্দ্রা॑য় সু॒ষূত॑মম্ । উ॒ত্ত॒মেন॑ প॒বিনোর্জ্জ॑স্বন্তং॒ মধু॑মন্তং॒ পয়॑স্বন্তং নিগ্রা॒ভ্যা᳖ স্থ দেব॒শ্রুত॑স্ত॒র্পয়॑ত মা॒ ॥ ৩০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দেবস্য ত্বেত্যস্য মধুচ্ছন্দা ঋষিঃ । সবিতা দেবতা । স্বরাডার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥ উত্তমেনেত্যস্য নিচৃদার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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