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यजुर्वेद अध्याय - 6

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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 11
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - वातो देवता छन्दः - स्वराट् प्राजापत्या बृहती,भूरिक् आर्षी उष्णिक्,निचृत् गायत्री, स्वरः - ऋषभः
    224

    घृ॒तेना॒क्तौ प॒शूँस्त्रा॑येथा॒ रेव॑ति॒ यज॑माने प्रि॒यं धाऽआवि॑श। उ॒रोर॒न्तरि॑क्षात् स॒जूर्दे॒वेन॒ वाते॑ना॒स्य ह॒विष॒स्त्मना॑ यज॒ सम॑स्य त॒न्वा भव। वर्षो॒ वर्षी॑यसि य॒ज्ञे य॒ज्ञप॑तिं धाः॒ स्वाहा॑ दे॒वेभ्यो॑ दे॒वेभ्यः॒ स्वाहा॑॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तेन॑। अ॒क्तौ। प॒शून्। त्रा॒ये॒था॒म्। रेव॑ति। यज॑माने। प्रि॒यम्। धाः॒। आ। वि॒श॒। उ॒रोः। अ॒न्तरि॑क्षात्। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। दे॒वेन॑। वाते॑न। अ॒स्य। ह॒विषः॑। त्मना॑। य॒ज॒। सम्। अ॒स्य॒। त॒न्वा᳖। भ॒व॒। वर्षो॒ऽइति॒ वर्षो॒। वर्षीय॑सि। य॒ज्ञे। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। धाः॒। स्वाहा॑। दे॒वेभ्यः॑। दे॒वेभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतेनाक्तौ पशूँस्त्रायेथाँ रेवति यजमाने प्रियन्धाऽआविश । उरोरन्तरिक्षात्सजूर्देवेन वातेनास्य हविषस्त्मना यज समस्य तन्वा भव । वर्षा वर्षीयसि यज्ञे यज्ञप्तिन्धाः स्वाहा देवेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    घृतेन। अक्तौ। पशून्। त्रायेथाम्। रेवति। यजमाने। प्रियम्। धाः। आ। विश। उरोः। अन्तरिक्षात्। सजूरिति सऽजूः। देवेन। वातेन। अस्य। हविषः। त्मना। यज। सम्। अस्य। तन्वा। भव। वर्षोऽइति वर्षो। वर्षीयसि। यज्ञे। यज्ञपतिमिति यज्ञऽपतिम्। धाः। स्वाहा। देवेभ्यः। देवेभ्यः। स्वाहा॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ यज्ञकर्त्तृकारयित्रोः कर्त्तव्यमुपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे यज्ञकर्तृकारयितारौ घृतनेनाक्तौ घृतमनस्कौ युवां पशून् त्रायेथाम्, त्वमेकैकौ देवेन वातेन सजूरुरोन्तरिक्षात् प्रियं प्रेमोत्पादकं सुखं रेवति यजमाने धा आविश तत्स्वान्तवृत्तिमाप्नुहि, अस्य हविषस्त्मना आत्मना यज, अस्य तन्वा सम्भवैकीभव न द्वैधमाचर। हे वर्षो! यज्ञकर्मणा सुखसेचकं त्वं देवेभ्यः स्वाहा देवेभ्यः स्वाहा तद्यज्ञं दिदृक्षुभ्यः पुनः पुनरागतेभ्यो विद्वद्भ्योऽसकृत् सत्कृत्यनुरूपां वाचमुदीरयन् वर्षीयसि यज्ञे यज्ञपतिं धाः॥११॥

    पदार्थः

    (घृतेन) (अक्तौ) घृतेनासक्तचित्तौ यज्ञकर्त्ता यज्ञकारयिता च (पशून्) गवादीन् (त्रायेथाम्) रक्षेताम् (रेवति) प्रशस्तैश्वर्य्ययुक्ते (यजमाने) यज्ञानुष्ठातरि (प्रियम्) प्रसन्नतासम्पादि सुखम् (धाः) धेहि, अत्र लोडर्थे लुङ् अ[भावश्च। (आ) समन्तात् (विश) (उरोः) बहोः (अन्तरिक्षात्) (सजूः) मित्रमिव (देवेन) सर्वगतेन (वातेन) वायुना सह (अस्य) (हविषः) होतव्यस्य, कर्मणि षष्ठी। (त्मना) आत्मना (यज) संगच्छस्व एकीभव (सम्) (अस्य) (तन्वा) (भव) (वर्षो) यज्ञकर्म्मणा सर्वसुखसेचक! (वर्षीयसि) सर्वसुखमभिवर्षति (यज्ञपतिम्) यज्ञपालकम् (धाः) धेहि (स्वाहा) सत्कृत्यनुकूलाम् (देवेभ्यः) दीव्यन्ति प्रकाशन्ते सत्कर्म्मानुष्ठानेन ये तेभ्यो धर्म्मिष्ठेभ्यो विद्वद्भ्यः (देवेभ्यः) शुभेभ्यो गुणेभ्यः (स्वाहा) सत्कृत्यनुरूपाम्॥ अयं मन्त्रः (शत॰३। ८। १। ५-१६) व्याख्यातः॥११॥

    भावार्थः

    यज्ञार्थं घृतादिमभीप्सुभिर्मनुष्यैः पशवो रक्षणीया घृतादिसद्द्रव्येणाग्निहोत्रादियज्ञान् सम्पाद्य तैर्जलवायू संशोध्य सर्वेषां प्राणिनामभीष्टं संसाध्यम्॥११॥

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    विषयः

    अथ यज्ञकर्तृकारयित्रोः कर्त्तव्यमुपदिश्यते।।

    सपदार्थान्वयः

    हे यज्ञकर्तृकारयितारौ! घृतेनाक्तौ=घृतमनस्कौ घृतेनाऽऽसक्तचितौ यज्ञकर्त्ता यज्ञकारयिता च युवां पशून् गवादीन् त्रायेथांरक्षेताम्। त्वमेकैकोदेवेन सर्वगतेन वातेन वायुना सह सजूः मित्रमिव उरोः वहोः अन्तरिक्षात् प्रियं= प्रेमोत्पादकं सुखं प्रसन्नतासंपादि सुखं रेवति प्रशस्तैवर्य्ययुक्तेयजमाने यज्ञाऽनुष्ठातरि धाः धेहि आ+विश=तत्स्वान्तवृत्तिमाप्नुहि समन्ताद् विश।अस्य हविषः होतव्यस्य त्मना=आत्मना यज संगच्छस्व=एकीभव। अस्य तन्वा सम्+भव=एकीभव न द्वैधमाचर। हे वर्षो यज्ञकर्मणा सर्वसुखसेचक! त्वं देवेभ्यः दीव्यन्ति=प्रकाशन्ते सत्कर्माऽनुष्ठानेन ये तेभ्यो धर्मिष्ठेभ्यो विद्वद्भयः स्वाहा सत्कृत्यनुकूलां देवेभ्यः शुभेभ्यो गुणेभ्यः स्वाहा सत्कृत्यनुरूपां तद्यज्ञंदिदृक्षुभ्यः पुनः पुनरागतेभ्यो विद्वद्भ्योऽसकृत् सत्कृत्यनुरूपां वाचमुदीरयन् वर्षीयसि सर्वसुखमभिवर्षति यज्ञे यज्ञपतिं यज्ञपालकंधाःधेहि ।। ६ । ११ ।। [हे यज्ञकर्तृ कारयितारौ!...युवां पशून् त्रायेथाम्, त्वमेकैको देवेन वातेन.....प्रियम्=प्रेमोत्पादकं सुखं........यजमाने धाः]

    पदार्थः

    (घृतेन) (अक्तौ) घृतेनासक्तचित्तौ यज्ञकर्त्ता यज्ञकारयिता च (पशून्) गवादीन् (त्रायेथाम्) रक्षेताम् (रेवति) प्रशस्तैश्वर्ययुक्ते (यजमाने) यज्ञानुष्ठातरि (प्रियम्) प्रसन्नतासम्पादि सुखम् (धाः) धेहि। अत्र लोडर्थे लुङ् अडभावश्च (आ) समन्तात् (विश) (उरोः) बहोः (अन्तरिक्षात्) (सजूः) मित्रमिव (देवेन) सर्वगतेन (वातेन) वायुना सह (अस्य) (हविषः) होतव्यस्य।कर्मणि षष्ठी (त्मना) आत्मना (यज) संगच्छस्व=एकीभव (सम्) (अस्य) (तन्वा) (भव) (वर्षो) यज्ञकर्म्मणा सर्वसुखसेचक! (वर्षीयसि) सर्वसुखमभिवर्षति [यज्ञे] (यज्ञपतिम्) यज्ञपालकम् (धाः) धेहि (स्वाहा) सत्कृत्यानुकूलाम् (देवेभ्यः) दीव्यन्ति=प्रकाशन्ते सत्कर्म्मानुष्ठानेन ये तेभ्यो धर्मिष्ठेभ्यो विद्वद्भयः (देवेभ्यः) शुभेभ्यो गुणेभ्यः (स्वाहा) सत्कृत्यनुरूपाम् ॥ अयं मंत्र: शत० ३।८।१।५-१६ व्याख्यातः ॥ ११।।

    भावार्थः

    यज्ञार्थं घृतादिमभीप्सुभिर्मनुष्यैः पशवो रक्षणीया, घृतादिसद्द्रव्येणाग्निहोत्रादियज्ञान् संपाद्य तैर्जलवायू संशोध्य सर्वेषां प्राणिनामभीष्टं संसाध्यम्।। ६ । ११।।

    विशेषः

    मेधातिथिः। वातः=वायुः। भुरिगार्च्युष्णिक्। ऋषभः। उरोरित्यस्य भुरिगार्ष्युष्णिक्। वर्षो इत्यस्य स्वराडार्च्युष्णिक्। ऋषभः।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब यज्ञ करने और कराने वालों के कर्त्तव्य काम का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (घृतेन, अक्तौ) घृतप्रसक्त अर्थात् घृत चाहने और यज्ञ के कराने हारो! तुम (पशून्) गौ आदि पशुओं को (त्रायेथाम्) पालो, तुम एक एक जन (देवेन) सर्वगत (वातेन) पवन से (सजूः) समान प्रीति करते हुए (उरोः) विस्तृत (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष से उत्पन्न हुए (प्रियम्) प्रिय सुख को (रेवति) अच्छे ऐश्वर्ययुक्त (यजमाने) यज्ञ करने वाले धनी पुरुष में (धाः) स्थापन करो तथा (आविश) उस के अभिप्राय को प्राप्त होओ और (अस्य) इस के (हविषः) होम के योग्य पदार्थ को (त्मना) आप ही निष्पादन किये हुए के समान (यज) अग्नि में होमो अर्थात् यज्ञ की किसी क्रिया का विपरीत भाव न करो और (अस्य) इसके (तन्वा) शरीर के साथ (सम्) (भव) एकीभाव रक्खो, किन्तु विरोध से द्विधा आचरण मत करो। हे (वर्षो) यज्ञकर्म से सर्वसुख के पहुंचाने वालो! (देवेभ्यः) (स्वाहा) (देवेभ्यः) (स्वाहा) सत्कर्म के अनुष्ठान से प्रकाशित धर्मिष्ठ ज्ञानी पुरुष जो कि यज्ञ देखने की इच्छा करते हुए बार-बार यज्ञ में आते हैं, उन विद्वानों के लिये अच्छे सत्कार कराने वाली वाणियों को उच्चारण करते हुए यज्ञपति को (वर्षीयसि) सर्व सुख वर्षाने वाले यज्ञ में (धाः) अभियुक्त करो॥११॥

    भावार्थ

    यज्ञ के लिये घृत आदि पदार्थ चाहने वाले मनुष्य को गाय आदि पशु रखने चाहियें और घृतादि अच्छे-अच्छे पदार्थों से अग्निहोत्र से लेकर उत्तम यज्ञों से जल और पवन की शुद्धि कर सब प्राणियों को सुख उत्पन्न करना चाहिये॥११॥

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    विषय

    पति-पत्नी का यज्ञमय जीवन

    पदार्थ

    पिछले मन्त्र में ‘वीर्यरक्षा’ का प्रकरण था। ‘उस मन्त्र के अनुसार खान-पान सात्त्विक होने पर पति-पत्नी का जीवन कैसा बनेगा?’ इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत मन्त्र में है। 

    १. ( घृतेन आक्तौ ) = तुम दोनों शरीर में मल-क्षरण से और मस्तिष्क में ज्ञान की दीप्ति से अलंकृत होते हो। 

    २. ( पशून् त्रायेथाम् ) = अपने दीप्त मस्तिष्कवाले स्वस्थ शरीरों में तुम काम-क्रोध आदि पशुओं की रक्षा करो—इनको क़ाबू में रक्खो। ठीक उसी प्रकार जैसे चिड़ियाघर में शेर-चीते आदि को बन्धन में रखते हैं। [ कामः पशुः, क्रोधः पशुः ]। वस्तुतः वीर्यरक्षा का यह स्वाभाविक परिणाम है कि मनुष्य काम-क्रोधादि का शिकार नहीं होता। 

    ३. यह प्रभु से प्रार्थना करता है कि ( रेवति यजमाने ) = धन-सम्पन्न यज्ञशील व्यक्तियों में ( प्रियं धाः ) = तृप्ति व शान्ति को स्थापित कीजिए। आप ( आविश ) = हमारे हृदयों में प्रविष्ट होओ, अर्थात् आपकी कृपा से हम संसार-यात्रा के लिए आवश्यक धन से युक्त हों और यज्ञशील बनें। हम आपके निवासस्थान बन पाएँ। हमारा हृदय आपका मन्दिर हो। 

    ४. ( उरोः अन्तरिक्षात् ) = इस विशाल हृदयान्तरिक्ष से ( त्मना ) = स्वयं ( यज ) = हमें सङ्गत कीजिए। हम अपने हृदय को आपकी कृपा होने पर ही विशाल बना पाएँगे। 

    ५. प्रभु कहते हैं कि ( देवेन वातेन ) = दिव्य वायु के हेतु से ( अस्य हविषः ) = इस हव्य पदार्थ का ( सजूः ) = बड़े प्रेमवाला होकर ( यज ) = यजन कर। यह यज्ञशीलता जहाँ वायु को शुद्ध करेगी वहाँ तेरे हृदय में प्राणिमात्र के लिए प्रेम की भावना पैदा करेगी। तेरे हृदय को यही विशाल बनाएगी। ( अस्य ) [ हेतोः ] = इस यज्ञ के द्वारा ही तू ( तन्वा ) = शरीर से ( सम्भव ) = फूल-फल। तेरा शरीर सब प्रकार से उन्नत हो। 

    ६. प्रभु के इस आदेश को सुनकर मेधातिथि प्रभु से प्रार्थना करता है कि ( वर्षो ) = हे यज्ञिय कर्म से सब सुखों के वर्षक प्रभो! आप मुझ ( यज्ञपतिम् ) = यज्ञों के रक्षक को ( वर्षीयसि यज्ञे ) = सब सुखों के वर्षक उत्कृष्ट यज्ञ में ( धाः ) = स्थापित कीजिए। मैं ( देवेभ्यः ) = देवताओं के लिए ( स्वाहा ) = उत्तम आहुति देनेवाला होऊँ और ( देवेभ्यः ) = दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए ( स्वाहा ) = स्वार्थ का त्याग करनेवाला बनूँ। वस्तुतः यज्ञ से वायु आदि देवताओं की शुद्धि होती है और मनुष्य को दिव्य गुणों की प्राप्ति होती है, क्योंकि यज्ञ का मूल ही स्वार्थत्याग है।

    भावार्थ

    भावार्थ — हमारा जीवन यज्ञमय हो।

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    विषय

    स्त्री पुरुषों का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे स्त्री पुरुषो ! तुम दोनों (घृतेन अतौ) घृत=तेज और सेह युक्त होकर ( पशून) पशुओं का ( त्रायेथाम् ) पालन करो। हे ( रेवति ) ऐश्वर्यवति वाणि या भाग्यवती स्त्री ! तू ( यजमाने ) इस यजमान देवो- पासक या संगति करने हारे पुरुष में ( प्रियम् धाः ) उसका प्रियाचरण कर और ( आविश) उसमें प्रविष्ट हो । अर्थात् उसका ही एकाङ्ग होकर रह | अथवा हे स्त्री ! तु ( रेवति यजमाने ) ऐश्वर्य और सौभाग्य सम्पन्न यजमान गृह पति के आश्रय रह कर उसका ( प्रियं धाः ) प्रिय याचरण कर और ( आविश ) उसके भीतर एकचित्त होकर रह । ( देवेन ) देव, दिव्यगुणसम्पत्र ( वातेन ) प्राण के साथ ( सजूः ) इसकी सहसंगिनी, मित्र के समान होकर ( उरोः अन्तरिक्षात् ) विशाल अन्तरिक्ष से जिस प्रकार वायु सब की रक्षा करता है उसी प्रकार बड़े २ संकट से तू उसकी रक्षा कर । और (अस्य) इसके (हविषः ) हवि, होमयोग्य अन्न आदि पदार्थों से ( रमना ) स्वयं भी ( यज ) यज्ञ कर । अथवा ( अस्य हविषा त्मना यज ) इसके अन्न को स्वयं भी अपने उपभोग में ला और ( अस्य तन्वा ) उसके शरीर से ही तू ( सम् भव ) संगत होकर पुत्रलाभ कर, उससे एक होकर रह उसके विपरीत आचरम् मत कर ।हे ( वर्षो ) सब सुखों के वर्षक, सब सुखों को दात्रि ! ( वर्षीयसि यज्ञे ) यति विस्तीर्ण, बड़े भारी गृहस्थ रूप यज्ञ में ( यज्ञपतिम् ) यज्ञ को पालन करने में समर्थ गृहपति को ( धा: ) स्थापित कर । ( देवेभ्यः स्वाहा ) यज्ञ के पूर्व ही आये देवों,विद्वानों का प्रेमवचनों से सत्कार करो और ( देवेभ्यः स्वाहा ) यज्ञ के पश्चात् भी आदर वाणी से विद्वानों का आदर सत्कार करो ॥ 
    राज्य पक्ष में- हे शास अर्थात् शासक और हे स्वरो ! दुष्टों के दण्ड द्वारा उपतापक ! तुम घृत अर्थात् तेज से युक्त रहो । हे रेवति ! वेदवाणि ! तू यजमान राजा में प्रिय मनोहर रूप को धारण कर । अन्तरिक्ष में जिस प्रकार वेगवान् वायु सब प्राणियों को जीवन देता उनपर शासन करता है, उसी के समान शासक होकर उस राजा के ( हविष: त्मना ) आज्ञापक आत्मा के साथ ( यज्ञ ) संगत हो । सकल सुःखों के वर्षा करने हारे इस राष्ट्रमय महान् यज्ञ में यज्ञपति की रक्षा कर । हे राजन् ! समस्त विद्वान् ब्राह्मणों और शासकों का उत्तम वाणियों से आदर कर ॥ 
    इसी प्रकार यजमान के यज्ञ कर्ता भी उसकी इसी प्रकार सेवा करें, उसके अनुकूल होकर रहें, उसकी हविसे यज्ञ करें, यज्ञ पति की स्थापना करें और यज्ञ में आये विद्वानों का आदर करें। शत० ३ । ८ । ९। १।१६ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    स्वरुशासौ, वाक्तृणम्, देवाश्च वातो वा देवता । भुरिग् आर्ची उष्णिक् | ऋषभः ॥ 

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    विषय

    अब यज्ञ करने और कराने वालों के कर्त्तव्य का उपदेश किया जाता है॥

    भाषार्थ

    हे (घृतेन+अक्तौ) घृत चाहने वाले यज्ञ करने और यज्ञ कराने वालो! तुम दोनों (पशून्) गौ आदि पशुओं की (त्रायेथाम्) रक्षा करो। और तुम एक-एक होकर (देवेन) सर्वव्यापक (वातेन) वायु के साथ (सजू:) मित्र के समान (उरो:) बृहत् (अन्तरिक्षात्) आकाश से (प्रियम्) प्रेम उत्पन्न करने वाले सुख को (रेवति) उत्तम ऐश्वर्य सम्पन्न (यजमाने) यज्ञ करने वाले पुरुष में (धाः) स्थापित करो, और (आविश) उसके अन्तःकरण में प्रविष्ट हो जाओ, इस यजमान की (हविषः) हवि के (त्मना) आत्मा के साथ (यज) संगत हो जाओ, और (अस्य) इसके (तन्वा) शरीर के साथ (सम्+भव) एक होकर रहो, भेदभाव न रखो। हे (वर्षो) यज्ञ के द्वारा सब सुखों की वर्षा करने वाले आप (देवेभ्यः) शुभ कर्मों के अनुष्ठान से प्रकाशित धार्मिक विद्वानों के लिये (स्वाहा ) सत्कार के अनुकूल एवं (देवेभ्यः) शुभ गुणों की प्राप्ति के लिये (स्वाहा) सत्कार के अनुरूप, तथा उसके यज्ञ को देखने के इच्छुक होकर बार-बार आने वाले विद्वानों के लिये अनेक बार सत्कारपूर्ण वाणी को उच्चारण करके (वर्षीयसि) सब सुखों की वर्षा करने वाले (यज्ञे) यज्ञ में (यज्ञपतिम्) यज्ञरक्षक को (धाः) स्थिर करो ॥ ६। ११।।

    भावार्थ

    यज्ञ के लिये घृत आदि को प्राप्त करने के इच्छुक मनुष्य पशुओं की रक्षा करें, घृत आदि श्रेष्ठ द्रव्य से अग्निहोत्र आदि यज्ञों को सिद्ध करके, उनसे जल और वायु को शुद्ध कर सब प्राणियों का अभीष्ट सिद्ध करें ॥ ६। ११।।

    प्रमाणार्थ

    (धाः) धेहि। यहाँ लोट् अर्थ में लुङ् लकार है तथा 'अट्' का अभाव है। (हविष:) यहाँ कर्म में षष्ठी विभक्ति है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( ३।८।१।५-१६ ) में की गई है।। ६। ११।।

    भाष्यसार

    यज्ञ करने-कराने वालों का कर्त्तव्य--यज्ञ के लिये घृत आदि को प्राप्त करने के इच्छुक यज्ञ करने और कराने वाले मनुष्य गौ आदि पशुओं की रक्षा करें। वे दोनों घृत आदि उत्तम द्रव्यों से अग्निहोत्र आदि यज्ञों को सिद्ध करके सर्व-गत वायु के साथ विशाल आकाश से प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले सुख को ऐश्वर्यवान् यजमान में स्थापित करें। यज्ञ से अपने अन्तःकरण की वृत्तियों को प्राप्त करें, जानें,अन्तःकरण में प्रविष्ट हों। यज्ञ की हवि के साथ संगत हों, हवि के स्वरूप के समान एक होकर रहें, भेदभाव उत्पन्न न करें। यज्ञ करने-कराने वाले यज्ञ कर्म से सबको सुख से सींचने वाले हों और वे सत्कर्मों के अनुष्ठान से प्रकाशित धार्मिक विद्वानों के लिये उनके सत्कार के अनुकूल वाणी बोलें। उनके यज्ञ को देखने की इच्छा से बार-बार आने वाले विद्वानों के लिये भी अनेक बार सत्कारपूर्ण वाणी बोलें। सब सुखों की वर्षा करने वाले यज्ञ में यजमान को स्थिर रखें। यज्ञ से जल और वायु की शुद्धि से सब प्राणियों का अभीष्ट सिद्ध करें।। ६। ११।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    यज्ञासाठी तूप इत्यादी पदार्थांची इच्छा बाळगणाऱ्यांनी गाय वगैरे पशू पाळले पाहिजेत. तूप वगैरे पदार्थांनी उत्तम उत्तम यज्ञ करावेत व जल आणि वायू शुद्ध करून सर्व प्राण्यांना सुखी करावे.

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    विषय

    आता यज्ञ करणारे व करविणारे यांच्या कर्त्तव्य-कर्माविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (घृतेन, अक्तौ) घृताला प्रिय मानणारे, घृताची कामना करणारे याज्ञिकजनहो, तुम्ही (पशून्) गौ आदी पशूंचे (त्रायेथाम्) पालन करा (त्यायोगे तुम्हांस यज्ञाकरिता शुद्ध तूप मिळत राहील) तुम्ही एक एक करून सर्व जण (देवेन) सर्वत्र व्याप्त (वातेन) पवनाशी (सजूः) ज्याप्रमाणे सर्वजण समान प्रीती करतात वा त्यास चाहतात, तसेच (उरोः) विस्तृत (अन्तरिक्षात्) अंतरिक्षातून प्राप्त होणार्‍या (प्रियम्) (वायू, वृष्टी, जल, प्रकाश आदी) प्रिय सुखकारक पदार्थांनी या (रेवति) ऐश्‍वर्यवान (यजमाने) यज्ञ करणार्‍या धनवान व्यक्तीला (धाः) धारण करा (अधिक समृद्ध करा वा कार्यात यशस्वी होण्यास साहाय्य करा) आणि यजमानाची (आविश) इच्छा जाणून घ्या. (त्याप्रमाणे साहाय्य करा) आणि यजमानाची (आविश) इच्छा जाणून घ्या. (त्याप्रमाणे विधी करा) (अस्य) या यजमानाने (हविषः) होमाकरिता आणलेल्या पदार्थांद्वारे (त्मना) स्वतःची निष्पादित वस्तूप्रमाणे होम करा. (योग्य तेवढेच वापरा आणि आपलेच कार्य समजून आत्मीय भावनेने यज्ञ करा) म्हणजे यज्ञाच्या कोणतीही क्रिया वा विधी विपरीत वा अशुद्ध रीतीने करूं नका. तसेच (अस्य) या यजमानाच्या (तन्वा) शरीराशी (सम्) (भव) एकीभाव ठेवा, म्हणजे त्याचा विरोध करून त्याच्या इच्छेच्या विरूद्ध द्विधा आचरण करूं नका. हे यज्ञकर्माद्वारे सर्वांना सुख देणार्‍या याज्ञिकांनो, (देवेभ्यः) (स्वाहा) (देवेभ्यः) (स्वाहा) सत्कर्माच्या अनुष्ठानाने प्रभावित होऊन जे धर्मप्रिय मानी जन यज्ञ पाहण्याच्या इच्छेने वारंवार यज्ञस्थलाकडे येतात, त्या विद्वानांचा आदर व स्नेहयुक्त वाणीने स्वागत करून त्यांचा यथोचित सत्कार करा. तसेच यज्ञपती यजमानाची (वर्षीयसि) सर्व सुखांची वृष्टी करणार्‍या यज्ञाकडे (धाः) प्रवृत्ती अशीच वाढू द्या. ॥11॥

    भावार्थ

    भावार्थ - यज्ञाकरिता घृत आदी पदार्थांची आवश्यकता असते, त्यामुळे यम करणार्‍यांनी गौ आदी पशूं पाळावेत आणि घृत आदी उत्तमोत्तम पदार्थांद्वारे अग्निहोत्र करावा. उत्तम यज्ञाने जलाची आणि वायूची शुद्धता करावी. या रीतीने सर्व जीवांसाठी सुखाची व्यवस्था केली पाहिजे ॥11॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O performers of yajna and its supervisor fond of ghee as ye are, rear cows. Let each one of you regulate by purifying all pervading air the worshipper full of splendour, pleasure, born of wide space ; and understand his primary aim. Perform duly yourself the yajna with all its materials, and be one with the full observance of the details of the yajna. O giver of happiness through yajna, welcome with sweet words all the religious minded and learned persons who visit the yajna again and again, and establish the worshipper in the pleasure-giving yajna.

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    Meaning

    Anointed with ghee, both of you, the priest and the yajaka, protect and promote the animals. Betake yourself to the prosperous yajamana, perform yajna with oblations of rich materials and, joining the celestial wind like a friend, bring from the vast skies all that is loved and wanted by the yajamana. With your very heart and soul, be one with the body of yajna. You are the shower of joy through yajna, establish the yajamana in yajna, a very shower and treasure-house of joy. This is the divine voice. Chant the divine voice with the generous and the wise for the attainment of divine virtues.

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    Translation

    Both of you (fire and wind) balmed with clarified butter protect the cattle. (1) O divine speech, bestow desirable things on the sacrificer. Enter into him. (2) Be united with the divine wind coming from the vast midspace. With his oblations you perform sacrifice by yourself and be united with his body. (3) O great one, engage this sacrificer in a great sacrifice. (4) To the enlightened ones, I dedicate; I dedicate to the enlightened ones. (5)

    Notes

    Revati,धनवति वाग्देवते C divine speech!

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ য়জ্ঞকত্তৃর্কারয়িত্রোঃ কর্ত্তব্যমুপদিশ্যতে ॥
    এখন যজ্ঞ কারয়িতাদিগের কর্ত্তব্য কর্মের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (ঘৃতেন, অক্তৌ) ঘৃত প্রসক্ত অর্থাৎ ঘৃতকামী ও যজ্ঞ কারীগণ! তোমরা (পশূন্) গবাদি পশুদিগকে (ত্রায়েথাম্) পালন কর, তোমরা এক এক জন (দেবেন) সর্বগত (বাতেন) পবনের সঙ্গে (সজূঃ) সমান প্রীতি করিয়া সমান (উরোঃ) বিস্তৃত (অন্তরিক্ষাৎ) অন্তরিক্ষ হইতে উৎপন্ন (প্রিয়ম্) প্রিয় সুখকে (রেবতি) ভাল ঐশ্বর্য্যযুক্ত (য়জমানে) যজ্ঞকারী ধনী পুরুষে (ধাঃ) স্থাপন কর তথা (আবিশ) তাহার অভিপ্রায় প্রাপ্ত হও এবং (অস্য) ইহার (হবিষঃ) হোমের যোগ্য পদার্থকে (ত্মনা) স্বয়ংই নিষ্পাদিতের সমান (য়জ) অগ্নিতে হোম কর অর্থাৎ যজ্ঞের কোন ক্রিয়ার বিরুদ্ধ ভাব রাখিও না এবং (অস্য) ইহার (তন্বা) শরীর সহ (সম) (ভব) একীভাব রাখিও কিন্তু বিরোধ পূর্বক দ্বিধা আচরণ করিও না । হে (বর্ষো) যজ্ঞকর্ম দ্বারা সকল সুখ উপস্থিতকারীগণ ! (দেবেভ্যঃ) (স্বাহা) (দেবেভ্য) (স্বাহা) সৎকর্মের অনুষ্ঠান দ্বারা প্রকাশিত ধর্মিষ্ঠ জ্ঞানী পুরুষ যাহারা যজ্ঞ দেখিবার ইচ্ছা করিয়া বার বার যজ্ঞে আগমন করেন । সেই সব বিদ্বান্ দিগের জন্য ভাল সৎকারকারিণী বাণী উচ্চারণ করতঃ যজ্ঞপতিকে (বর্ষীয়সি) সকল সুখ বরিষণ কারী যজ্ঞে (ধাঃ) নিযুক্ত কর ॥ ১১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যজ্ঞ হেতু ঘৃতাদি পদার্থকামী মনুষ্যগণকে গবাদি পশু রাখা উচিত এবং ঘৃতাদি ভাল ভাল পদার্থ দ্বারা অগ্নিহোত্র হইতে লইয়া উত্তম উত্তম যজ্ঞ দ্বারা জলও পবনের শুদ্ধি করিয়া সকল প্রাণিদিগকে সুখ উৎপন্ন করা উচিত ॥ ১১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ঘৃ॒তেনা॒ক্তৌ প॒শূঁস্ত্রা॑য়েথা॒ᳬं রেব॑তি॒ য়জ॑মানে প্রি॒য়ং ধাऽআ বি॑শ । উ॒রোর॒ন্তরি॑ক্ষাৎ স॒জূর্দে॒বেন॒ বাতে॑না॒স্য হ॒বিষ॒স্ৎমনা॑ য়জ॒ সম॑স্য ত॒ন্বা᳖ ভব । বর্ষো॒ বর্ষী॑য়সি য়॒জ্ঞে য়॒জ্ঞপ॑তিং ধাঃ॒ স্বাহা॑ দে॒বেভ্যো॑ দে॒বেভ্যঃ॒ স্বাহা॑ ॥ ১১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ঘৃতেনাক্তাবিত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । বাতো দেবতা । ভুরিগার্চ্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ । উরোরিত্যস্য ভুরিগার্ষ্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ । বর্ষো ইত্যস্য স্বরাডার্ষ্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
    সর্বত্র ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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