यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 35
ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः
देवता - द्यावापृथिव्यौ देवते
छन्दः - भूरिक् आर्षी अनुष्टुप्,
स्वरः - गान्धारः
164
मा भे॒र्मा संवि॑क्था॒ऽऊर्जं॑ धत्स्व॒ धिष॑णे वी॒ड्वी स॒ती वी॑डयेथा॒मूर्जं॑ दधाथाम्। पा॒प्मा ह॒तो न सोमः॑॥३५॥
स्वर सहित पद पाठमा। भेः॒। मा। सम्। वि॒क्थाः॒। ऊर्ज॑म्। ध॒त्स्व॒। धिष॑णे॒ऽइति॑ धिष॑णे। वीड्वीऽइति॑ वी॒ड्वी। स॒ती॑ऽइति॑ स॒ती। वी॒ड॒ये॒था॒म्। ऊ॑र्जम्। द॒धा॒था॒म्। पा॒प्मा। ह॒तः। न। सोमः॑ ॥३५॥
स्वर रहित मन्त्र
मा भेर्मा सँविक्था ऊर्जन्धत्स्व धिषणे वीड्वी सती वीडयेथामूर्जन्दधाथाम् । पाप्मा हतो न सोमः ॥
स्वर रहित पद पाठ
मा। भेः। मा। सम्। विक्थाः। ऊर्जम्। धत्स्व। धिषणेऽइति धिषणे। वीड्वीऽइति वीड्वी। सतीऽइति सती। वीडयेथाम्। ऊर्जम्। दधाथाम्। पाप्मा। हतः। न। सोमः॥३५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनः स्त्रीपुरुषौ परस्परं कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे स्त्रि! त्वं वीड्वी सती पत्युः सकाशान्मा भेर्मा संविक्था ऊर्ज्जं धत्स्व। हे पुरुष! त्वमप्येवं भवेः, युवां धिषणे इवोर्ज्जं दधाथां वीडयेथाम्। एवमनुवर्तिनोर्युवयोः पाप्मा हतो भवतु, सोमो न चन्द्र इवाह्लाद-शान्त्यादिगुणवृन्दः प्रकाशितो भवतु॥३५॥
पदार्थः
(मा) (भेः) मा बिभीयाः, लिडर्थे लुङ्। (मा) (सम्) (विक्थाः) भयं कम्पनं च कुर्य्याः (ऊर्ज्जम्) स्वशरीरात्मबलं पराक्रमं वा (धत्स्व) (धिषणे) द्यावापृथिव्याविव (वीड्वी) बलवती। वीड्वीति बलनामसु पठितम्। (निघं॰२।९) (सती) सद्गुणयुक्त (वीडयेथाम्) दृढबलौ भवेताम् (ऊर्ज्जम्) सन्तानादिभ्योऽपि बलं पराक्रमं च (दधाथाम्) (पाप्मा) अपराधः (हतः) नष्ट (न) इव (सोमः)॥ अयं मन्त्रः (शत॰२। ९। ४। १८) व्याख्यातः॥३५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। इत्थं स्त्रीपुरुषौ व्यवहारमनुवर्त्तेयाताम्, यतः परस्परं भयोद्वेगौ नश्येतामात्मनो दृढोत्साहः प्रीतिर्गृहाश्रमव्यवहारसिद्धिरैश्वर्य्यं च वर्द्धेत, दोषदुःखानि निवर्त्त्य चन्द्र इव परस्परमाह्लादकारिणौ भवेताम्॥३५॥
विषयः
पुनः स्त्रीपुरुषौ परस्परं कथं वर्तेयातामित्युपदिश्यते॥
सपदार्थान्वयः
हे स्त्रि ! त्वं वीड्वी बलवती सती सद्गुणयुक्ता पत्युः सकाशान्मा भेः मा बिभीयाः, मा सम्+विक्थाः भयं कम्पनं च कुर्य्याः, ऊर्ज्जं स्वशरीराऽऽत्मबलं पराक्रमं वा धत्स्व। हे पुरुष ! त्वमप्येवं भवेः, युवां धिषणे द्यावापृथिव्यौ इवऊर्ज्जं सन्तानादिभ्योऽपि बलं पराक्रमं च दधाथाम्, वोडयेथां दृढबलौ भवेताम्। एवमनुवर्तिनोर्युवयोः पाप्मा अपराधो हतः नष्टो भवतु । सोमो न=चन्द्र इवाऽऽह्लादशान्त्यादिगुणवृन्दः प्रकाशितो भवतु ॥ ६ । ३५ ।। [हे स्त्रि ! त्वं.....पत्युः सकाशान्मा भेः, मासंविक्थाः, ऊर्जं धत्स्व। हे पुरुष! त्वमप्येवं भवेः]
पदार्थः
(मा) (भेः) मा बिभीयाः। लिङर्थे लुङ् (मा) (सम्) (विक्थाः) भयं कम्पनं च कुर्य्या:(ऊर्ज्जम्) स्वशरीरात्मबलं पराक्रमं वा (धत्स्व) (धिषणे) द्यावापृथिव्याविव (वीड्वी) बलवती। वीड्वीति बलनामसु पठितम् ॥ निघं० २ ।९॥ (सती) सद्गुणयुक्ता (वीडयेथाम्) दृढ़बलौ भवेताम् (ऊर्ज्जम्) सन्तानादिभ्योऽपि बलं पराक्रमं च (दधाथाम्) (पाप्मा) अपराध: (हतः) नष्टः (न) इव ( सोमः)॥ अयं मन्त्रः श० २। ९।४ । १८ व्याख्यातः ॥ ३५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः ॥ इत्थं स्त्रीपुरुषौ व्यवहारमनुवर्त्तेयातां यतः परस्परं भयोद्वेगौ नश्येतामात्मनो दृढोत्साहः प्रीतिर्गृहाश्रमव्यवहारसिद्धिरैश्वर्यं च वर्द्धेत। [एवमनुवर्तिनोर्युवयोः पाप्मा हतो भवतु, सोमो न=चन्द्र इवाऽऽह्लादशान्त्यादिगुणवृन्दः प्रकाशितो भवतु] दोषदुःखानि निवर्त्य चन्द्र इव परस्परमाह्लादकारिणौ भवेताम् ॥ ६। ३५॥
विशेषः
मधुच्छन्दाः। द्यावापृथिव्यौ=सूर्यलोकः पृथिवी च। भुरिगार्ष्यनुष्टुप्।गान्धारः।
हिन्दी (5)
विषय
फिर स्त्री पुरुष परस्पर कैसा वर्त्ताव वर्त्तें, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है
पदार्थ
हे स्त्री! तू (विड्वी) शरीरात्मबलयुक्त होती हुई पति से (मा, भेः) मत डर (मा संविक्थाः) मत कंप और (ऊर्ज्जम्) देह और आत्मा के बल और पराक्रम को (धत्स्व) धारण कर। हे पुरुष! तू भी वैसे ही अपनी स्त्री से वर्त। तुम दोनों स्त्री-पुरुष (धिषणे) सूर्य्य और भूमि के समान परोपकार और पराक्रम को धारण करो, जिससे (वीडयेथाम्) दृढ़ बल वाले हो, ऐसा वर्ताव वर्त्तते हुए तुम दोनों का (पाप्मा) अपराध (हतः) नष्ट हो और (सोमः) चन्द्र के तुल्य आनन्द शान्त्यादि गुण बढ़ा कर एक-दूसरे का आनन्द बढ़ाते रहो॥३५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। स्त्री-पुरुष ऐसे व्यवहार में वर्त्तें कि जिससे उनका परस्पर भय, उद्वेग नष्ट होकर आत्मा की दृढ़ता, उत्साह और गृहाश्रम व्यवहार की सिद्धि से ऐश्वर्य्य बढ़े और दोष तथा दुःख को छोड़ चन्द्रमा के तुल्य आह्लादित हों॥३५॥
विषय
पति-पत्नी
पदार्थ
गत मन्त्र में पत्नी का कर्त्तव्य विशेषरूप से कहा गया। अब पति-पत्नी दोनों के लिए कुछ सामान्य बातें कहते हैं।
१. ( मा भेः ) = तुम डरो नहीं। संसार में सबसे निकृष्ट वस्तु डर है। दैवी सम्पत्ति का प्रारम्भ ‘अभयम्’ से होता है। घर में यदि पत्नी पति से डरती है या पति पत्नी से तब तो उस घर में दैवी सम्पत्ति का प्रारम्भ ही कैसे हो सकता है ? दोनों का परस्पर प्रेम हो, भय का वहाँ प्रश्न ही न हो। २. ( मा संविक्थाः ) = भय के कारण अपने धर्ममार्ग से विचलित न होओ। डर के कारण किसी कर्म को करना या किसी को छोड़ना उचित नहीं। आदर्श यही है कि स्तुति हो, निन्दा हो, सम्पत्ति आये, विपत्ति आये, जीवन हो या मृत्यु हो, हम अपने न्यायमार्ग पर ही चलते चलें, उससे विचलित न हों।
३. ( ऊर्जं धत्स्व ) = बल और प्राणशक्ति को धारण करो। शारीरिक शक्ति के साथ तुममें आत्मिक शक्ति भी हो।
४. ( धिषणे ) = [ द्यावापृथिव्यौ ] तुम द्यावापृथिवी के समान बनो [ द्यौरहं पृथिवी त्वम् ] पति द्युलोक के समान ज्ञानदीप्त हो और पत्नी अपनी शक्तियों के विस्तार से दृढ़ जीवनवाली हो। अथवा [ धिषणा = बुद्धि ] पति-पत्नी दोनों ही बुद्धि के पुञ्ज बनने का प्रयत्न करें।
५. ( वीड्वी सती ) = [ वीड्वी बल—नि० २।९ ] खूब बलवाले होते हुए ( वीडयेथाम् ) = संसार में शक्तिशाली कर्मों के करनेवाले बनो।
६. यही मार्ग है जिस मार्ग पर चलने से ( पाप्मा हतः ) = पाप नष्ट होता है ( न सोमः ) = सोम नष्ट नहीं होता। सौम्य स्वभाववाला व्यक्ति सदा सुरक्षित रहता है। ( ऊर्जं दधाथाम् ) = इस सबके लिए तुम दोनों बल और प्राणशक्ति को धारण करो। ऊर्ज् के साथ ही पुण्य का निवास है, ऊर्ज् के अभाव में पाप-ही-पाप है।
भावार्थ
भावार्थ — हम अभय हों, अविचल हों, बल और प्राणशक्ति को धारण करें। बुद्धिमान् बनें, शक्तिशाली कर्मों को करते हुए पाप को विनष्ट करें और सौम्य स्वभाव को विकसित करें।
विषय
राजा प्रजा का परस्पर अभय,
भावार्थ
हे राजन् ! और हे प्रजागण ! तू ( मा भेः ) भय मत कर । ( मा संविक्थाः ) तू भय से कंपित न हो । तू ( ऊर्ज धत्स्व ) 'ऊर्ज' बल को धारण कर । हे राजा और प्रजा तुम दोनों ! (धिषणे ) एक दूसरे का आश्रय होकर आकाश और पृथिवी या सूर्य और पृथिवी के समान दोनों ( वीड्वी सती ) वीर्यवान्, बलवान् दृढ़, हृष्ट पुष्ट होकर ( वीडयेथाम् ) एक दूसरे का बल बढ़ाओ। और अपने को बलवान् करो । इस प्रकार युद्धादि के अवसर पर भी यद्यपि राजा पर आक्रमण होगा तब भी प्रजा और राजा दोनों के बलिष्ट होने पर ( पाप्मा हतः ) पाप करने वाला दुष्ट शत्रु पुरुष ही मारा जाय । ( न सोमः ) सोम, सवैप्रेरक राजा या राष्ट्र का नाश नहीं होता । शत० ३ । ९ । ४ । १६-१८ ॥
गृहस्थ पक्ष में- हे पुरुष और हे स्त्री ! तुम दोनों गृह के पालन के कार्य में मत डरो। भय से कम्पित मत होओ। एक दूसरे के आश्रय और ( धिषणे ) बुद्धिमान और आत्मसन्मान, बलवान्, (बीड्वी) वीर्यवान् होकर सदा बलवान् दृढ़ बने रहो और ऊर्ज, पराक्रम को धारण करो इस प्रकार समस्त पाप नष्ट हो जायगा । और 'सोम' अर्थात् परस्पर का गृहस्थ सुख या आह्लाद कभी नष्ट नहीं होगा।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
द्यावापृथिव्यौ देवते । भुरिगार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः।
विषय
डर मत, पराक्रम कर
शब्दार्थ
(मा भे:) हे मानव ! डर मत (मा संविक्था) कम्पायमान मत हो, मत घबड़ा । (ऊर्जम् धत्स्व ) बल, साहस, पराक्रम धारण कर । (धिषणे) वाणी और विद्या का आश्रय लेकर और इन दोनों के आश्रय से (वीड्वीसती) बलवान् होकर (वीडयेथाम्) पुरुषार्थ करो (ऊर्जम् दधाथाम्) पराक्रम करो, जौहर दिखाओ ! (पाप्मा:) पाप करनेवाला शत्रु, पापी (हत:) मारा जाए, नष्ट हो जाए (न सोम:) सौम्यगुणयुक्त, सदाचारी पुरुषों का नाश न हो ।
भावार्थ
यदि संसार में पाप, अनाचार, भ्रष्टाचार, पाखण्ड, दम्भ, अधर्म बढ़ गया है, यदि दस्युओं, अनार्यो, अधर्मात्माओं और पाखण्डियों ने संसार के लोगों को आतंकित कर रक्खा है तो डरो मत, भयभीत मत होओ, घबराओ मत । उठो, खड़े हो जाओ और पराक्रम करो । विद्याबल से अपने को विभूषित करो, वाणी का बल सम्पादन करो । विद्या और वाणी का आश्रय लेकर-इन दोनों से बलवान् बनकर दानवता को दग्ध करने के लिए, मानवता का त्राण करने के लिए संसार में कूद पड़ो, जौहर कर दो । ऐसा पराक्रम करो कि जितने भी पापी, अत्याचारी, अनाचारी और पाखण्डी हैं उनमें से एक भी जीवित न रह पाए । पापियों को नष्ट-भ्रष्ट कर दो। जो सौम्य हैं, पुण्यात्मा हैं, सदाचारी और श्रेष्ठ पुरुष हैं उनकी रक्षा करो ।
विषय
फिर स्त्री-पुरुष परस्पर कैसा बर्ताव करें, यह उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
हे स्त्रि ! तू ( वीड्वी) बलवती, (सती) श्रेष्ठ गुणों से युक्त होकर पति से (मा भेः) मत डर तथा (मा संविक्थाः) भयभीत एवं कम्पित तथा विचलित मत हो और (ऊर्ज्जम्) अपने शरीर तथा आत्मा के बल वा पराक्रम को (धत्स्व) धारण कर । हे पुरुष! तू भी ऐसा ही बन। तुम दोनों (धिषणे) द्युलोक और पृथिवी के समान (ऊर्ज्जम्) सन्तान आदि के लिये बल और पराक्रम को (दधाथाम्) धारण करो तथा (वीडयेथाम्) दृढ़ बल वाले बनो। इस प्रकार परस्पर अनुकूल रहने वाले तुम दोनों का (पाप्मा) क्लेश (हतः) नष्ट हो (सोमः) चन्द्र के (न) समान सुख और शान्ति आदि गुण-गण प्रकाशित हों।। ६ । ३५ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। इस प्रकार स्त्री और पुरुष व्यवहार करें कि जिससे परस्पर भय और उद्वेग नष्ट हों तथा आत्मिक दृढ़-उत्साह, प्रीति, गृहाश्रम के व्यवहारों की सिद्धि और ऐश्वर्य की वृद्धि हो । दोष और दुःखों को हटाकर चन्द्र के समान परस्पर आनन्दकारी हों ॥ ६ । ३५ ॥
प्रमाणार्थ
(भेः) यहाँ लिङ् अर्थ में लुङ् लकार है। (वीड्वी) यह शब्द निघं० ( २। ९ ) में बल नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( २। ९ ।४ । १८ ) में की गई है। ६ । ३५ ।।
भाष्यसार
१. स्त्री पुरुष का परस्पर वर्ताव--बलवती और सद्गुणों से युक्त स्त्री पति से कभी भयभीत और उद्विग्न न हो किन्तु शारीरिक और आत्मिक बल वा पराक्रम को धारण करे। पुरुष भी इसी प्रकार व्यवहार करे। स्त्री और पुरुष परस्पर ऐसा व्यवहार करें जिससे भय और उद्वेग नष्ट हों। आत्मा में दृढ़ उत्साह और प्रीति उत्पन्न हो, गृहाश्रम के व्यवहारों की सिद्धि और ऐश्वर्य की वृद्धि हो । स्त्री और पुरुष द्यावापृथिवी के समान अपनी सन्तानों के लिये बल और पराक्रम को धारणकरें स्वयं सदा दृढ़ बल वाले हों। इस प्रकार परस्पर अनुयायी होने से दोष और दुःखों की निवृत्ति होती है तथा चन्द्र के समान आनन्द और शान्ति आदि गुण प्रकाशित होते हैं ।। २. अलङ्कार--मन्त्र में उपमावाचक शब्द लुप्त है इसलिये वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि जैसे स्त्री पति से भय और उद्वेग न माने तथा अपने शरीर और आत्मा के बल को बढ़ावे वैसे पुरुष भी स्त्री से भय और उद्वेग न माने तथा अपने शरीर और आत्मा के बल को बढ़ाया करे। मन्त्र में आगे 'न' उपमावाचक शब्द विद्यमान होने से उपमा अलङ्कार भी है। उपमा यह है कि चन्द्र के समान स्त्री और पुरुष के आनन्द और शान्ति आदि गुण प्रकाशित हों ।। ६ । ३५ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचक लुप्तोपमालंकार आहे. स्त्री-पुरुषांनी असा व्यवहार करावा की, ज्यामुळे परस्पर भय व उद्वेग नष्ट होऊन आत्म्यामध्ये दृढता, उत्साह व गृहस्थाश्रमाचे ऐश्वर्य वाढावे. त्यांनी दोष व दुःख दूर करून चंद्राप्रमाणे आल्हादित व्हावे.
विषय
पती-पत्नीने एकमेकाविषयी कशी वर्तणूक ठेवावी, याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (कोणी विद्वान वयोवृद्ध मनुष्य पति-पत्नीस उपदेश करीत आहे अथवा परमपिता परमेश्वर वेदमंत्राद्वारे सर्व गृहस्थ स्त्री-पुरुषांना आदेश देत आहे) हे स्त्री (पत्नी) तू (विड्वी सती) शारीरिक आणि आत्मिक शक्ती युक्त होऊन आपल्या पतिपासून (मा भेः) भिऊ नकोस (मासंविक्था) भिऊन कंपित होऊ नकोस. (त्यावर प्रेम कर व त्याची प्रिय होशील, असे आचरण कर) (उर्ज्जम्) आपल्या शरीर आणि आत्म्याच्या शक्ती आणि पराक्रमाला ओळख व ती शक्ती (धत्स्व) धारण कर. (पति-पत्नीस उद्देशून) तुम्ही दोघे पति-पत्नी (धिषणे) सूर्याप्रमाणे व भूमीप्रमाणे परोपकार व पराक्रम करीत राहा. (वीडयेथाम्) दोघेही दृढ व शक्तिमान व्हा. (माझा आशीर्वाद) की तुम्ही दोघे (पाप्माः) एकमेकाच्या चुकीला किंवा अपराधाला (हतः) नष्ट करण्यास शिका (तुमच्यातील अपराध-भाव नष्ट व्हावा) आणि तुम्ही दोघे (सोम।) चन्द्राप्रमाणे आनन्द आणि शांती देणारे व्हा. (एकमेकास व सर्वांस आनन्द व शांतिदायक व्हा) ॥35॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. पति-पत्नींनी एकमेकाशी असे आचरण ठेवावे की ज्यायोगे त्यांच्यामधे भय आणि उद्वेगाची भावना नष्ट होर्सल, आत्म्यात दृढता आणि उत्साह वाढेल, गृहाश्रमाचे व्यवहार पूर्ण करण्यासाठी ऐश्वर्य वृद्धी होईल आणि दोघेही एकमेकाच्या दोष व दुःखांना दूर करीत चंद्राप्रमाणे आल्हाददायक होतील. ॥35॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O woman, full of physical and spiritual strength, be not afraid of thy husband, shake not with terror, cultivate the strength of your body and soul. O man, thou also shouldst behave similarly towards thy wife, ye both, like the sun and earth should become strong and resolute ; whereby the shortcomings of ye both be removed, and ye become happy like the moon.
Meaning
Woman, wise and intelligent, fear not, nor tremble; take heart and be bold of heart and soul. You being strong and standing by your husband, both of you collect strength and firmness of body, mind and soul. Eliminate evil and sin, and shine happy and blessed like the moon.
Translation
Do not be afraid. Tremble not with terror. Take heart. О earth and heaven, being already steady, steady yourselves and take strength. Sin has been killed, not the bliss. (1)
Notes
Ma samvikthah, from ओविजी to fear, to move. With the prefix sam it means to tremble with fear. Do not tremble. Dhisane,हे द्यावापृथिव्यौ, О heaven and earth. Papma, the sin. Somah, the bliss.
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ স্ত্রীপুরুষৌ পরস্পরং কথং বর্ত্তেয়াতামিত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনঃ স্ত্রীপুরুষ পরস্পর কেমন ব্যবহার করিবে, এই উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে স্ত্রী ! তুমি (বিড্বী) শরীরাত্ম বলযুক্ত হইয়া পতি হইতে (মা, ভেঃ) ভয় করিও না, (মা সংবিক্থা) কম্পিত হইও না এবং (উর্জ্জম্) দেহ ও আত্মার বল ও পরাক্রম (ধৎস্ব) ধারণ কর । হে পুরুষ । তুমিও সেই প্রকার নিজ স্ত্রীর সহিত ব্যবহার করিবে । তোমরা দুই জন স্ত্রী পুরুষ (ধিষণে) সূর্য্য ও ভূমি সদৃশ পরোপকার ও পরাক্রম ধারণ কর যাহাতে (বীডয়েথাম্) দৃঢ় বলযুক্ত হও এইরকম ব্যবহার করিতে থাকিয়া তোমাদের উভয়ের (পাপ্মা) অপরাধ (হতঃ) নষ্ট হয় এবং (সোমঃ) চন্দ্রতুল্য আনন্দ শান্ত্যাদি গুণ বৃদ্ধি করিয়া একে অন্যের আনন্দ বৃদ্ধি করিতে থাক ॥ ৩৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালংকার আছে । স্ত্রী-পুরুষ এমন ব্যবহার করিবে যাহাতে তাহাদের পরস্পর ভয় ও উদ্বেগ নষ্ট হইয়া আত্মার দৃঢ়তা, উৎসাহ ও গৃহাশ্রম ব্যবহারের সিদ্ধি দ্বারা ঐশ্বর্য্যের বৃদ্ধি হয় এবং তাহারা দোষ ও দুঃখ ত্যাগ করিয়া চন্দ্রমা তুল্য আহ্লাদিত হয় ॥ ৩৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
মা ভে॒র্মা সংবি॑ক্থা॒ऽঊর্জং॑ ধৎস্ব॒ ধিষ॑ণে বী॒ড্বী স॒তী বী॑ডয়েথা॒মূর্জং॑ দধাথাম্ ।
পা॒প্মা হ॒তো ন সোমঃ॑ ॥ ৩৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
মা ভের্মেত্যস্য মধুচ্ছন্দা ঋষিঃ । দ্যাবাপৃথিব্যৌ দেবতে । ভুরিগার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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